हवा में मौजूद बहुत छोटे, ठोस या ऐसे तरल कण जो इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे हमारी सांसों के साथ शरीर में घुस जाते हैं. ये गाड़ियों, फैक्ट्रियों, लकड़ी या फसलों के जलने से निकलते हैं और हमारे शारीर में प्रवेश कर जाते हैं.
दुनियाभर में प्रदूषण का स्तर खतरनाक लेवल पर पहुंच गया है. दुनिया की 92% आबादी इस वक्त ऐसी हवा में सांस ले रही है जो स्वच्छ हवा के मानकों पर बिल्कुल भी खरी नहीं उतरती. विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इस संबंध में समय समय पर चेतावनी जारी करता रहता है. यही नहीं जब कभी भी प्रदूषण से होने वाले नुकसान की बात होती है तो सबसे पहले फेंफड़ों, ब्लड प्रेशर और स्किल प्रॉब्लम की बात होती है हालांकि असल परेशानी इससे कहीं ज्यादा बड़ी है. वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया है कि हवा का प्रदूषण हमारे डीएनए (DNA) और जीन (genes) को भी बदल सकता है. यानी यह सिर्फ सांस लेने की परेशानी नहीं, बल्कि आनुवंशिक बदलाव की भी शुरुआत है.
हवा में जब कई हानिकारक पदार्थ घुल जाते हैं तो उन्हें हम एयर पॉल्यूशन कहते हैं. यह प्रदूषित हवा हमारे फेफड़ों के साथ-साथ शरीर की हर कोशिका तक पहुंचकर हमें नुकसान पहुंचाती है. प्रदूषित हवा में कई तरह के तत्व होते हैं, जैसे पार्टिकुलेट मैटर (PM), ब्लैक कार्बन, नाइट्रोजन ऑक्साइड्स (NOx), ओज़ोन (O₃), भारी धातुएं (heavy metals) और पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन (PAHs).इनमें सबसे खतरनाक होता है पार्टिकुलेट मैटर. हवा में मौजूद बहुत छोटे, ठोस या ऐसे तरल कण जो इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे हमारी सांसों के साथ शरीर में घुस जाते हैं. ये गाड़ियों, फैक्ट्रियों, लकड़ी या फसलों के जलने से निकलते हैं और हमारे शारीर में प्रवेश कर जाते हैं.
डीएनए और जीन पर हवा का हमला
हमारे शरीर का ब्लूप्रिंट यानी डीएनए बहुत संवेदनशील होता है. इसके छोटे-से बदलाव भी शरीर के कामकाज को पूरी तरह बदल सकते हैं. वैज्ञानिकों ने पाया है कि प्रदूषित हवा के संपर्क में आने से डीएनए मिथाइलेशन की प्रक्रिया बिगड़ जाती है. सामान्य परिस्थितियों में, मिथाइलेशन हमारे जीन को नियंत्रित करता है. कौन-सा जीन कब सक्रिय होगा या बंद रहेगा. ये मिथाइलेशन से ही तय होता है. लेकिन जब प्रदूषक के कण शरीर में प्रवेश करते हैं, तो वे इस संतुलन को बिगाड़ देते हैं.
कभी मिथाइलेशन बहुत बढ़ जाता है (हाइपरमिथाइलेशन) तो कुछ अच्छे जीन, जैसे सूजन या कैंसर से बचाने वाले जीन शांत हो हो जाते हैं और खतरा बढ़ जाता है. इसी तरह कभी यह घट जाता है, जिससे डीएनए अस्थिर हो जाता है और गलत जीन सक्रिय होने लगते हैं.
जीन बदलने का मतलब क्या है?
जब हमारे जीन बदलते हैं तो शरीर की कोशिकाएं गलत प्रोटीन बनाने लगती हैं. इससे फेफड़ों की बीमारी, हृदय रोग, मधुमेह, यहां तक कि कैंसर तक हो सकता है. अगर ये बदलाव गर्भावस्था या बचपन के दौरान हों, तो आने वाली पीढ़ियों के विकास पर भी असर पड़ सकता है. इसलिए वैज्ञानिक अब कहते हैं कि प्रदूषण सिर्फ पर्यावरण की समस्या नहीं है, यह आनुवंशिक समस्या बन चुका है.
पार्टिकुलेट मैटर (PM2.5)- हवा में सबसे खतरनाक कण
PM2.5 का मतलब है ऐसे कण जिनका आकार 2.5 माइक्रोमीटर या उससे कम हो. ये इतने छोटे होते हैं कि इन्हें न तो देखा जा सकता है, न रोका जा सकता है. ये सीधे हमारे फेफड़ों में पहुंचते हैं और फिर रक्त प्रवाह में शामिल हो जाते हैं. जर्नल ऑफ टॉक्सिकोलॉजी में प्रकाशित शोध के अनुसार, PM2.5 डीएनए की संरचना को तोड़ देता है. यह बदलाव जीन में परिवर्तन ला सकता है, जो आगे चलकर कैंसर जैसी बीमारियों का कारण बनता है.
PM2.5 Reactive Oxygen Species (ROS) बनाता है . ये अस्थिर अणु होते हैं जो डीएनए, प्रोटीन और लिपिड्स पर हमला करते हैं. इससे डीएनए ऑक्सीडेटिव डैमेज झेलता है.
PM2.5 हमारे डीएनए रिपेयर जीन (जैसे OGG1, MTH1, XRCC1) को भी नुकसान पहुंचाता है. यानी जब डीएनए टूटता है तो उसे ठीक करने वाला सिस्टम भी बिगड़ जाता है. धीरे-धीरे ये सारे बदलाव मिलकर शरीर को बीमारियों की ओर धकेल देते हैं।
नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO₂)- हवा का छिपा ज़हर
नाइट्रोजन डाइऑक्साइड मुख्यतः गाड़ियों के धुएं, फैक्ट्रियों और गैस स्टोव से निकलता है. यह गैस हमारे फेफड़ों के ऊतकों में गहराई तक पहुंच जाती है. केमोस्फियर नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में, जब चूहों को नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के संपर्क में लाया गया, तो उनके डीएनए में कई जगहों जैसे- फेफड़ों, दिमाग, गुर्दे, और दिल तक में दिक्कत पाई गई.
एक अन्य अध्ययन में इंसानों की नाक की कोशिकाओं को 0.1 पीपीएम नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (जो शहर की हवा में आमतौर पर पाया जाता है) के संपर्क में लाया गया. सिर्फ 30 मिनट में कोशिकाओं के डीएनए टुकड़े-टुकड़े हो गए और तीन घंटे में उनमें माइक्रोन्यूक्लियस बनने लगे- जो जीन की अस्थिरता का संकेत है. चौंकाने वाली बात यह रही कि कोशिकाएं मरी नहीं थीं- वे जीवित रहीं लेकिन उनका डीएनए स्थायी रूप से बदल चुका था.
ओजोन- दिखाई न देने वाला खतरनाक दुश्मन
ओज़ोन, जिसे हम वातावरण की ऊपरी परत में सुरक्षा कवच मानते हैं. नीचे की हवा में एक विषाक्त गैस बन जाती है. यह सांस के साथ शरीर में जाकर ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस बढ़ाती है और जीनोटॉक्सिक असर डालती है. 2017 में PLOS जर्नल में छपे एक अध्ययन में, इंसानों की फेफड़ों की कोशिकाओं पर 120 पीपीबी ओजोन के असर का परीक्षण किया गया. नतीजे में डीएनए टूटे हुए मिले और माइक्रोन्यूक्लियस बनने लगे, जो जीन में स्थायी क्षति के संकेत हैं.
सबसे अधिक नुकसान फेफड़ों की परत में हुआ, क्योंकि यह ओजोन के संपर्क में सबसे पहले आती है. इससे फेफड़ों की कोशिकाएं धीरे-धीरे कमजोर होती जाती हैं और उनमें कैंसर जैसी बीमारियों की शुरुआत हो सकती है.
भारी धातुएं- हवा में घुला धीमा जहर
सीसा (lead), आर्सेनिक (arsenic), कैडमियम (cadmium), निकेल (nickel) और पारा (mercury) जैसी भारी धातुएं भी हवा में मिलकर हमारे शरीर में प्रवेश करती हैं. ये फैक्ट्रियों, कचरा जलाने या दूषित मिट्टी से उड़ने वाली धूल के जरिए फैलती हैं. एनवायरमेंटल इंटरनेशनल जर्नल में छपे शोध बताते हैं कि इन धातुओं के लगातार संपर्क से डीएनए के मिथाइलेशन में भारी गड़बड़ी आती है. यह असंतुलन समय के साथ जीनोम को अस्थिर बना देता है.
ये धातुएं डीएनए के चारों ओर लिपटे हिस्टोन प्रोटीन को भी प्रभावित करती हैं, जिससे अच्छे जीन दब जो हैं और बुरे जीन सक्रिय हो जाते हैं. लंबे समय में यह असंतुलन कैंसर, सांस की बीमरी, हार्टअटैक का कारण बन सकती हैं.
प्रदूषण का असर आने वाली पीढ़ियों पर
हवा में मौजूद जहरीले कण सिर्फ हमें नहीं, बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी प्रभावित कर सकते हैं. गर्भवती महिलाओं के शरीर में जब ये कण पहुंचते हैं, तो वे प्लेसेंटा के जरिए भ्रूण तक भी पहुंच जाते हैं. इससे भ्रूण के डीएनए में भी मिथाइलेशन के पैटर्न बदल सकते हैं, जिससे बच्चे के जन्म के बाद कमज़ोर फेफड़े, मोटापा, या विकास संबंधी दिक्कतें देखी जा सकती हैं. यह बात कई क्लिनिकल एपिजेनेटिक अध्ययनों में साबित हो चुकी है कि पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण डीएनए में हुए बदलाव पीढ़ियों तक चल सकते हैं.

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