150 वर्ष पूरे होने पर वंदे मातरम् पर संसद में विशेष चर्चा हुई। राजनीतिक दलों में टकराव तेज हो गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इसे राष्ट्रीय सम्मान का विषय बताया, जबकि विपक्ष का कहना है कि किसी को मजबूर नहीं किया जा सकता।
वंदे मातरम्- गौरव, विवाद और पहचान की बहस
भारत में ऐसे कुछ ही प्रतीक हैं जिन्होंने हमारी राष्ट्रीय चेतना को आकार दिया है। वंदे मातरम् उनमें सबसे प्रमुख है। यह सिर्फ एक गीत नहीं, बल्कि वह स्वर है जिसने करोड़ों भारतीयों के भीतर दबी स्वतंत्रता की आग को जगा दिया। अंग्रेज़ों के राज में यही शब्द उन क्रांतिकारियों के होंठों पर थे जो जेल की अंधेरी काल कोठरी से फांसी के तख्ते तक जाते हुए मुस्कुराते रहे। लेकिन दुखद है कि वही वंदे मातरम् आज बहस, राजनीति और ध्रुवीकरण का विषय बन गया
वंदे मातरम् पर नई जंग: संसद से सड़क तक राष्ट्रगीत पर राजनीति और पहचान की बहस
बहस की शुरुआत इस सवाल से नहीं हुई कि वंदे मातरम् महान है या नहीं, क्योंकि इसमें कोई दो राय नहीं। विवाद इस बात पर है कि क्या इसे अनिवार्य बनाया जाए? भारत एक लोकतांत्रिक और विविधता वाला राष्ट्र है। यहां भाषा, धर्म, संस्कृति और विचारों की असंख्य धाराएं हैं। ऐसे में राष्ट्रवाद की परिभाषा किसी एक प्रतीक के माध्यम से तय नहीं की जा सकती। किसी से जबरन वंदे मातरम् गवाना, उतना ही गलत है जितना इसे अपमानित करना।
150 साल बाद फिर सवाल- वंदे मातरम् गर्व की आवाज़ या चुनावी ध्रुवीकरण?
वंदे मातरम्, जो कभी स्वतंत्रता आंदोलन की धड़कन था और जिसने अनगिनत क्रांतिकारियों को अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी, आज एक बार फिर राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में है। इसके 150 वर्ष पूरे होने के अवसर पर संसद में एक विशेष बहस की गई, जहां सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने इसे लेकर अपने दृष्टिकोण रखे। कुछ इसे राष्ट्रगौरव का प्रतीक मानते हैं, तो कुछ का कहना है कि भारत जैसे बहुधर्मी देश में कोई भी राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत या प्रतीक अनिवार्य नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि बीते कुछ दिनों से वंदे मातरम् चर्चा, राजनीति, भावनाओं और विवादों के केंद्र में है।
पक्ष- विपक्ष के बीच पिसा वंदे मातरम्
वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर सरकार ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का फैसला किया है। संसद में विषय रखा गया और कई नेताओं ने इस पर अपने विचार रखे। इसके बाद राजनीतिक विमर्श तेज हो गया। सरकार का कहना है कि यह अवसर सिर्फ उत्सव का नहीं बल्कि इतिहास को फिर से समझने और राष्ट्रीय सांस्कृतिक धरोहर के प्रति सम्मान दिखाने का है। वहीं विपक्ष के कुछ नेता यह कह रहे हैं कि, “देशभक्ति को गीतों के माध्यम से नहीं मापा जा सकता।” यही दो दृष्टिकोण आज बहस की धुरी बने हुए हैं।
पीएम मोदी का बयान: “वंदे मातरम् भारत की आत्मा, संघर्ष और चेतना है”
संसद में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि वंदे मातरम् को लेकर विवाद खड़ा होना दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा, “वंदे मातरम् सिर्फ एक गीत नहीं, यह वह आवाज है जिसने भारत को आज़ादी की राह दिखाई, जिसने गुलामी की जंजीरों में बंधी इस धरती को आज़ादी का सपना दिखाया। इसे विवाद का विषय नहीं, राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक मानना चाहिए।” उन्होंने यह भी कहा कि आज की पीढ़ी को यह समझना जरूरी है कि वंदे मातरम् सिर्फ साहित्य नहीं, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन का उस वक्त का युद्धघोषथा। मोदी ने विपक्ष पर निशाना साधते हुए कहा, “जो लोग आज वंदे मातरम् को लेकर सवाल उठाते हैं, वे भूल जाते हैं कि यह गीत हिंदुस्तान के हर कोने की मिट्टी की महक है। यह सांप्रदायिक नहीं, सांस्कृतिक है। यह राजनीतिक नहीं, राष्ट्रीय है।”
राजनाथ सिंह का बयान: “वंदे मातरम् का अपमान देश का अपमान”
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने भाषण में इस चर्चा को और भावनात्मक दिशा दी। उन्होंने कहा, “वंदे मातरम् ने हजारों क्रांतिकारियों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने की शक्ति दी। अगर उस समय कोई आवाज भारत की नसों में बह रही थी, तो वह यही थी- “वंदे मातरम्।” उन्होंने आगे कहा, “किसी को यह कहना कि वह इसे गाए या न गाए, यह मुद्दा नहीं है। मुद्दा यह है कि इस गीत का सम्मान किया जाए। इसका अपमान या विरोध, स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत का अपमान है।”
विपक्ष की दलील: “देशभक्ति जबरदस्ती नहीं हो सकती”
कांग्रेस और कुछ अन्य विपक्षी दलों ने साफ कहा है कि देशभक्ति किसी गीत, झंडे या नारे से नहीं मापी जानी चाहिए। कुछ नेताओं ने कहा, “यदि कोई व्यक्ति वंदे मातरम् गाना नहीं चाहता, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह भारत विरोधी है। संविधान हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है।” कई विपक्षी नेताओं का मानना है कि इसे सांस्कृतिक पहचान के रूप में मनाया जा सकता है, लेकिन इसे राजनीतिक हथियार नहीं बनाया जाना चाहिए।
बहस का धार्मिक पहलू भी उभरा
बहस के दौरान यह तर्क भी दिया गया कि वंदे मातरम् के कुछ छंदों में भारत माता को देवी के रूप में वर्णित किया गया है। कुछ मुस्लिम सांसदों ने कहा, “हम इसकी ऐतिहासिक महत्ता का सम्मान करते हैं, लेकिन धार्मिक रूप से इसे गाना हमारे लिए संभव नहीं।” उनका दावा था कि यह भावना आज नहीं, बल्कि 1930 के दशक से ही दर्ज है, जब इसे राष्ट्रीय गीत घोषित किया गया था और आंशिक रूप से संशोधित रूप में स्वीकारा गया था।
इतिहास में इसकी भूमिका
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भगत सिंह, बिपिन चंद्र पाल, अरविंदो घोष, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, क्रांतिकारी संगठन, सबने इसका इस्तेमाल आंदोलन और प्रेरणा के रूप में किया। जेलों में बंद स्वतंत्रता सेनानी इसे गाते थे। अंग्रेज़ों ने इस गीत को कई बार प्रतिबंधित किया क्योंकि वे जानते थे कि यह गीत लोगों में क्रांतिकारी ऊर्जा भरता है।
देशभर में प्रतिक्रिया
जहां सरकार ने इसे राष्ट्रीय उत्सव का हिस्सा बनाया है, वहीं कई विश्वविद्यालयों में इसके अनिवार्य पाठ और गायन को लेकर विवाद पैदा हो गया है। कई राज्यों में रैलियां, सांस्कृतिक कार्यक्रम, स्कूलों में विशेष सभा, ध्वजारोहण समारोह आदि आयोजित किए जा रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि वंदे मातरम् का विवाद केवल सांस्कृतिक प्रश्न नहीं है बल्कि पहचान, इतिहास और राष्ट्रवाद की राजनीति से जुड़ा है। आगे यह मुद्दा चुनावी मंचों पर, पाठ्यक्रम सुधारों में और नागरिक अधिकारों से जुड़े विमर्शों में और उभरेगा।
एक गीत जो आज भी देश को जोड़ता है
वंदे मातरम् अब सिर्फ एक गीत नहीं रहा! यह राष्ट्रवाद, पहचान और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के बीच जारी संवाद का प्रतीक बन गया है। जहां एक वर्ग इसे राष्ट्रीय सम्मान मानता है, वहीं दूसरा कहता है कि सम्मान मजबूर करके नहीं पाया जा सकता।
पर इतना तय है कि वंदे मातरम्, जिसने कभी भारत की स्वतंत्रता की लौ जगाई थी, आज भी भारत की राजनीति और भावनाओं को झकझोरने की ताकत रखता है। समस्या यह नहीं कि लोग इसे गाते हैं या नहीं! समस्या है ध्रुवीकरण! आज राष्ट्रगीत पर बहस तथ्य और इतिहास पर नहीं, बल्कि राजनीति और भावनाओं पर खड़ी है। कुछ लोग इसे अपनी पहचान, धर्म या विचारधारा की कसौटी पर तौल रहे हैं, जबकि वंदे मातरम् इससे कहीं बड़ा है। यह गीत किसी एक राजनीतिक दल, धर्म या विचार का नहीं, पूरे भारत का है।
बिना आवाज के भी वंदे मातरम् धड़कता है भारत के दिल में!
वंदे मातरम् का सम्मान और स्वीकृति तभी सच्ची होगी जब इसे न थोपना पड़े, न छिपाना पड़े, न विवाद में घसीटना पड़े! भारत को यह स्वीकारना होगा कि राष्ट्रवाद कई रूप ले सकता है- गीत गाकर भी, मौन रहकर भी। राष्ट्रगीत वह भावना है जो हवा में है, मिट्टी में है, भाषाओं के परे है। यह तब भी भारत की पहचान था जब झंडा नहीं था, संविधान नहीं था, संसद नहीं थी। आज जरूरत इस बात की नहीं कि कौन गाता है, कौन नहीं, बल्कि इस समझ की, कि वंदे मातरम् एक राष्ट्र का सम्मान है, बहस का मंच नहीं। जिस दिन यह बात समझ ली जाएगी, उसी दिन यह गीत फिर वही बनेगा – स्वतंत्रता का स्वर।

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