अजय कुमार बियानी
इंजीनियर एवं स्वतंत्र लेख
भोपाल स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार कर रहे एक यात्री ने बड़े सहज भाव से पूछा—"शताब्दी में जनरल डिब्बा किधर लगता है?" उनकी सरल जिज्ञासा सुनकर मन ठिठक गया। शताब्दी में जनरल डिब्बा नहीं होता—यह बताना भर था, पर अचानक लगा जैसे रेल व्यवस्था का पूरा बदलाव एक वाक्य में समा गया हो। हमने उन्हें सलाह दी—"टीटी से पूछ लेना, जगह मिल गयी तो टिकट बनवा लेना।" पर उन्होंने साफ़ कहा—"नहीं, ऐसी ट्रेन से जायेंगे जिसमें जनरल डिब्बा लगता हो।"
उनके उत्तर में वह पीड़ा छिपी थी जो शायद आज लाखो
साधारण यात्रियों की है। कभी अधिकांश ट्रेनों में जनरल डिब्बे होते थे। जरूरत पड़ी तो कष्ट सहकर यात्रा पूरी कर लेते थे। भीड़ में खड़े रहकर, सीट की उम्मीद छोड़कर भी सफ़र सम्भव था। आज वह विकल्प लगातार सिकुड़ रहा है। रेलवे का दावा है कि जनरल डिब्बों की संख्या स्थिर है, पर यात्रियों का अनुभव कुछ और कहानी कह रहा है। लंबी दूरी की टिकटें मिल पाना कठिन, किराये बढ़ते चले जाना, और भीड़ में यात्रा का दायरा संकुचित होना—ये सब बदलाव आम आदमी की यात्रा को और जटिल बना रहे हैं। पहले कष्ट सहकर भी चल देना एक विकल्प था, अब वह भी विलुप्त होता जा रहा है।
इसी यात्रा में एक और दृश्य मन को छू गया। भोपाल में एक बुजुर्ग दंपति ट्रेन में चढ़े। छोटे-छोटे कई बैग थे, चढ़ाने में कठिनाई हो रही थी। सामान चढ़वाया, सही जगह रखवाया। लखनऊ उतरते समय भी सहयोग किया। यह सब मानवता का सामान्य भाव था। पर आगे जो हुआ, उसने आधुनिक परिवहन व्यवस्था और आम नागरिक के संबंधों की खाई को उजागर कर दिया।
स्टेशन के बाहर बुजुर्ग दंपति घर जाने के लिए ऑटो खोजते रहे लेकिन उम्मीद के विपरीत कोई ऑटो नहीं मिला। वे कुछ दूर तक चले, फिर लौट आए। बोले—"यहाँ तो हमेशा ऑटो मिल जाते थे, आज पता नहीं क्यों नहीं मिल रहे।" उनकी व्याकुलता देखकर मोबाइल से उबर एप के माध्यम से ऑटो बुक करवा दिया। उन्हें आश्चर्य हुआ—“मोबाइल से ऑटो कैसे आ जाएगा?” जब बताया कि अब सब कुछ ऑनलाइन होता है, तो मुस्कुराते हुए बोले—“हम भी यह एप लगवायेंगे।”
बातों-बातों में पता चला कि वे 2020 में जीएसटी के एडिशनल कमिश्नर के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं और उनका बेटा आईआईटी की पढ़ाई के बाद प्रशासनिक सेवा की तैयारी कर रहा है। इतनी ऊँची जिम्मेदारी निभाने वाले अधिकारी को भी आधुनिक एप आधारित व्यवस्था की जानकारी नहीं थी। इसका कारण केवल यह नहीं कि वे तकनीक से दूर थे, शायद आवश्यकता ही नहीं पड़ी होगी। नियमित यात्राएँ नहीं की होंगी, और जब भी की हों, साधारण ऑटो मिल जाता रहा होगा। इस छोटे से प्रसंग ने एक बड़ी सचाई उजागर कर दी—तकनीक का विस्तार कितना भी हो जाए, उसका उपयोग तभी होता है जब आवश्यकता सामने हो।
लेकिन एक और चिंता मन में कौंधती रही। जब ऑटो बुक करवा दिया और वे रवाना हो गए, तो दिल में बार-बार एक ही शंका उठती रही—कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गयी? मोबाइल से बुकिंग, डिजिटल भुगतान, ओटीपी, कॉल—इन सबने लोगों के मन में संदेह का एक नया संसार बना दिया है। समाज में होने वाले अपराधों ने लोगों का आपसी विश्वास कितना कम कर दिया है, यह सोचकर मन विचलित हो उठा। आज किसी की मदद करते हुए भी मन में डर पलता रहता है—कहीं लफड़ा न हो जाए।
घर पहुँचकर भी मन शांत नहीं हुआ। मोबाइल देखा—वे अपने घर नहीं पहुँचे थे। ड्राइवर से बात की तो उसने बताया कि रास्ते में भारी जाम है। बुजुर्ग से भी संपर्क हुआ, उन्होंने कहा—“आप मिस्ड कॉल कर दीजिए, ताकि नंबर सेव हो जाए।” मिस्ड कॉल कर दी, पर उनका फोन फिर वापस नहीं आया। मन में एक अजीब-सी बेचैनी बनी रही। यह बेचैनी किसी घटना का डर नहीं, बल्कि उस अविश्वास का परिणाम है, जो समाज में गहराता जा रहा है। तकनीकी सुविधाओं ने अनेक समस्याएँ हल तो की हैं, लेकिन मन की सुरक्षा, विश्वास और सहजता को कहीं न कहीं कम कर दिया है।
इसी उधेड़बुन में घर लौटते समय लगा कि यह घर भी कितना कुछ याद दिला देता है। वर्षों बाद नया ठिकाना बनवाया है। नींव से लेकर छत तक, ईंट से लेकर सपनों तक—सबको आकार देने में जो संघर्ष, धैर्य और संतोष लगा है, वह अनजाने में रामदरश मिश्र की कविता याद दिला देता है
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे
किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे-धीरे।
जहाँ आप पहुँचे छलाँगे लगाकर,
वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे।
इस कविता में छिपा भाव आज की यात्रा-व्यवस्था, सामाजिक बदलाव और तकनीकी जीवनशैली—तीनों पर लागू होता है। समाज छलाँगों से आगे भाग रहा है, पर बहुत-से लोग अब भी धीरे-धीरे ही चल पाते हैं। यात्रा चाहे रेल की हो या जीवन की—हर यात्री की गति और उसकी जरूरत अलग होती है। बदलाव का अर्थ यह नहीं कि पुरानी राहें समाप्त हो जाएँ। रेलवे के जनरल डिब्बों से लेकर शहर के साधारण ऑटो तक—ये केवल सुविधाएँ नहीं, समाज के उस वर्ग की जीवनरेखा हैं जिसे अभी भी “धीरे-धीरे” ही चलना है।
समाज को यह समझना होगा कि विकास तभी सार्थक है जब तेजी से दौड़ने वालों के साथ-साथ धीरे चलने वालों की राह भी सुरक्षित, सुगम और मानवीय बनी रहे। तकनीक उपयोगी है, पर मानवीयता उससे भी अधिक मूल्यवान है। और विश्वास—वह तो किसी भी समाज की सबसे बड़ी पूँजी है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि प्रगति के बीच कहीं हम एक-दूसरे पर भरोसा करना, और जरूरत के समय मदद करना न भूल जाएँ।
यात्राएँ, मुलाकातें, छोटी मददें—ये सब जीवन के वे धागे हैं जिनसे समाज की बुनावट बनती है। इसे मजबूत बनाए रखना हम सबकी जिम्मेदारी है।

Post a Comment