अजय कुमार बियानी
इंजीनियर एवं स्वतंत्र लेखक
राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा केवल कपड़े का टुकड़ा नहीं, बल्कि भारत की आत्मा, संघर्ष और स्वाभिमान का प्रतीक है। जब भी तिरंगे को लेकर कोई प्रश्न उठता है, भावनाएँ स्वतः उबाल पर आ जाती हैं। इन्हीं भावनाओं के बीच वर्षों से एक आरोप दोहराया जाता रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 52 वर्षों तक अपने मुख्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया। यह आरोप सुनने में जितना सीधा लगता है, उसका सच उतना ही जटिल और कानून से जुड़ा हुआ है।
स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1950 में जब संविधान लागू हुआ, उसी समय राष्ट्रीय ध्वज से संबंधित एक विधिक व्यवस्था अस्तित्व में आई। इस व्यवस्था के अंतर्गत यह तय किया गया कि तिरंगा किन स्थानों पर, किन परिस्थितियों में और किसके द्वारा फहराया जा सकता है। इस कानून के लागू होते ही राष्ट्रीय ध्वज फहराने का अधिकार सामान्य नागरिकों और निजी संस्थानों के लिए सीमित कर दिया गया। तिरंगा अब केवल सरकारी भवनों और निर्धारित अवसरों तक सीमित हो गया। निजी स्थानों पर ध्वज फहराना दंडनीय अपराध की श्रेणी में आ गया।
आज यह बात भुला दी जाती है कि स्वतंत्रता आंदोलन के समय वही आम नागरिक, वही संगठन और वही संस्थाएँ तिरंगा हाथ में लेकर सड़कों पर उतरी थीं। जिस ध्वज के लिए लाखों लोगों ने जेलें काटीं, बलिदान दिए, उसी ध्वज को स्वतंत्र भारत में कानून के दायरे में बांध दिया गया। इस कानून का पालन सभी को करना था, चाहे वह कोई संगठन हो या सामान्य नागरिक।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएँ और कार्यालय निजी श्रेणी में आते थे। इसलिए संघ ने कानून का उल्लंघन न करते हुए तिरंगा फहराना बंद किया। यह निर्णय राष्ट्रध्वज के प्रति अनादर नहीं, बल्कि विधि का पालन था। इस तथ्य को अक्सर जानबूझकर नजरअंदाज किया गया और इसे राष्ट्रभक्ति से जोड़कर प्रस्तुत किया गया।
वास्तविक मोड़ वर्ष 2002 में आया। उद्योगपति और सांसद नवीन जिंदल ने इस व्यवस्था को चुनौती दी। विदेश में अध्ययन के दौरान उन्होंने देखा कि वहां नागरिक अपने घर, दुकान और कार्यालय पर राष्ट्रीय ध्वज गर्व से फहराते हैं। उनके मन में प्रश्न उठा कि भारत में, जो स्वतंत्रता के लिए इतना बड़ा संघर्ष कर चुका है, वहां नागरिकों को अपने ही ध्वज को फहराने का अधिकार क्यों नहीं।
उन्होंने अपने औद्योगिक परिसर में तिरंगा फहराया, जिसके बाद उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई हुई और गिरफ्तारी तक की नौबत आई। इसके पश्चात उन्होंने न्यायालय में लंबी लड़ाई लड़ी। अंततः उच्चतम न्यायालय ने ऐतिहासिक निर्णय देते हुए कहा कि राष्ट्रीय ध्वज फहराना प्रत्येक नागरिक का अधिकार है, बशर्ते ध्वज की गरिमा और नियमों का पालन किया जाए।
इस निर्णय के बाद स्थिति पूरी तरह बदल गई। देशभर में नागरिकों को अपने घरों, संस्थानों और संगठनों में तिरंगा फहराने का अधिकार मिला। इसी के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रत्येक शाखा में भी तिरंगा फहराया जाने लगा, जो आज तक निरंतर जारी है।
इस पूरे घटनाक्रम को समझे बिना केवल यह कहना कि संघ ने 52 वर्षों तक तिरंगा नहीं फहराया, सत्य का अधूरा चित्र प्रस्तुत करना है। सच यह है कि 1950 से पहले तिरंगा फहराया गया, 1950 से 2002 तक कानून की बाध्यता रही और 2002 के बाद फिर से नागरिक अधिकार के रूप में तिरंगा हर स्थान पर फहराने लगा।
आज प्रश्न यह नहीं होना चाहिए कि किसने तिरंगा कब फहराया या नहीं फहराया। असली प्रश्न यह है कि स्वतंत्र भारत में ऐसी व्यवस्था क्यों बनाई गई, जिसने नागरिकों से उनके अपने राष्ट्रीय ध्वज को फहराने का अधिकार छीन लिया। राष्ट्रध्वज किसी राजनीतिक दल, किसी परिवार या किसी विचारधारा की संपत्ति नहीं है। वह प्रत्येक भारतीय की पहचान और सम्मान का प्रतीक है।
इतिहास को आधे सत्य और भावनात्मक नारों के आधार पर नहीं, बल्कि पूरे तथ्यों और संदर्भों के साथ समझने की आवश्यकता है। तभी तिरंगे का सम्मान भी सुरक्षित रहेगा और राष्ट्र की एकता भी।

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