कुछ साल पहले एक समझदार ब्रिटिश लेखक ने कहा था कि उनका देश 'कहीं के लोग'और 'किसी भी जगह के लोग' के बीच बंटा हुआ है। कुछ ऐसा ही हाल भारत में भी देखने को मिला, जहां एक तरफ वे लोग थे जो भारत की अपनी पहचान से जुड़े थे, और दूसरी तरफ वे लोग थे जिनकी आधुनिकता की सोच बहुसंस्कृतिवाद और राष्ट्रवाद से आगेतक फैली हुई थी। यह टकराव पिछले हफ्ते संसद में 'वंदे मातरम' की 150वीं वर्षगांठ मनाने के दौरान साफ दिखाई दिया।
मोदी सरकार के राष्ट्रवाद को लेकर असहज थे, उन्हें समझ नहीं आया कि 'राष्ट्रीय गीत' घोषित किए गए 'वंदे मातरम' की सालगिरह मनाने के लिए संसद का कीमती समय क्यों बर्बाद किया गया। उनकी नाराजगी के पीछे यह भाव था कि दिल्ली के किसी बड़े सरकारी हॉल में एक कार्यक्रम का आयोजन ही काफी था।
कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी के कुछ हद तक उपेक्षा भरे बयान से ऐसा लगा कि यह बहस प्रधानमंत्री के अपने शासन में घटते आत्मविश्वास और भारत की गंभीर समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए की गई थी। शायद, नेहरूवादी सोच वाले लोग राष्ट्रवादी आंदोलन की दिलचस्प गलियों को खंगालने को उतना महत्व नहीं देते, जितना कि भारत की सबसे बड़ी एयरलाइन के कुप्रबंधन से परेशान यात्रियों की दुर्दशा बयां करने को देते।
1970 के दशक में वामपंथियों के शिक्षा पर कब्जा करने के बाद से भारतीयों की नई पीढ़ी को जो इतिहास पढ़ाया गया है, उसमें 'वंदे मातरम' को स्वतंत्रता संग्राम का सबसे प्रेरणादायक मंत्र तो माना गया है, लेकिन साथ ही बंकिम चंद्र चटर्जी की कुछ विवादास्पद बातें भी जोड़ी गईं। यह पूरा गीत, मुश्किल भाषा में होने के अलावा, बहुत ज्यादा हिंदू प्रतीकों से भरा हुआ माना गया, जो मुस्लिम और धर्मनिरपेक्ष भावनाओं के लिए स्वीकार्य नहीं था। जवाहरलाल नेहरू के लिए यह बात मायने रखती थी, जो नीरद चौधरी के शब्दों में 'आम तौर पर किसी भी स्पष्ट रूप से हिंदू चीज से दूर रहते थे।'
विवादास्पद छंदों को कांग्रेस ने 1937 में हटाया
हालांकि, पवित्र मातृभूमि की देवी दुर्गा से तुलना करने वाले विवादास्पद छंदों को कांग्रेस ने 1937 में ही हटा दिया था। इस बदलाव को रवींद्रनाथ टैगोर का भी समर्थन था।फिर भी धर्मनिरपेक्ष लोग संविधान सभा के अध्यक्ष के 24 जनवरी 1950 के फैसले से इसे 'राष्ट्रीय गीत' का दर्जा मिलने से हमेशा असहज रहे। संविधान के उन शर्मनाक निर्देशक सिद्धांतों की तरह, जिनमें गौ रक्षा, शराब बंदी और समान नागरिक संहिता की बात थी, एक खामोश उम्मीद थी कि समय के साथ 'वंदे मातरम' धीरे-धीरे सिर्फ एक सजावटी चीज बनकर रह जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, जैसा कि झंडा फहराने के मौकों पर इसकी लगातार लोकप्रियता से पता चलता है।

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