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सार्थक दीपावली Meaningful Diwali

 सार्थक दीपावली Meaningful Diwali

                

    - गिरीश जोशी 

दीपावली - दीपों की आवली यानी पंक्ति, हम इस उत्सव की पृष्ठभूमि या ऐतिहासिकता के बारे में इतना ही जानते हैं कि प्रभु श्री राम, रावण पर विजय प्राप्त कर चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके जब अयोध्या पहुंचे तब वहाँ के लोगों ने वंदनवार सजाकर, दीप जलाकर,मिठाइयां बांटकर उनके आगमन का उत्सव हर्षोल्ल्हास के साथ मनाया था। लेकिन दीपावली की परंपरा भगवान राम के समय के पूर्व से रही है, इस बारे में अनेक पौराणिक आख्यान शास्त्रों में मिलते हैं।

भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में जितने भी उत्सवों को शामिल किया गया है उसमे मनुष्य को देवत्व की तरफ ले जाने का भाव रहा है।

हमारी संस्कृति में मनुष्य का अंतिम लक्ष्य मोक्ष को माना गया है। मोक्ष चारों पुरुषार्थ में चौथे स्थान पर है। उसके पहले धर्म, अर्थ, काम को स्थान दिया गया है। जन्म के बाद मनुष्य की चेतना जब खुद के होने का उसे अहसास करवाती है तब उसके मन में कुछ बनने की, कुछ पाने की, कुछ कर गुजरने की चाह जागती है। अपनी मंजिल को पाने के लिए वो कई प्रकार के प्रयास करना शुरू करता है। इन प्रयासों में धर्म की बुनियाद होना जरूरी माना गया है। किसी भी हद तक जाकर रातो रात सब कुछ पाने की महत्वाकांक्षा व्यक्ति को नैतिक पतन की ओर भी ले जा सकती है। मनुष्य धर्म के अनुकूल आचरण करे ये व्यवस्था बनाई गई है। धर्म अनुसार चलना और उसके आधार पर ही अर्थ कमाकर अपनी कामनाओं को भी धर्म के आधार पर ही पूरा करने का मन संस्कारों के माध्यम से तैयार करने के लिए उत्सवों की परंपराएं शुरू की गई है। 


जब धर्म के आधार पर अर्थ यानी धन- संपदा फल के रूप में व्यक्ति के पास आने लगती है तब उसे वैभव की शक्ति का अहसास होता है। इस शक्ति से मद और मत्सर पैदा होने की संभावना भी बनती है जो हमारे जीवन के अंतिम लक्ष्य यानि मोक्ष को पाने में बाधा खड़ी कर सकती है। कड़ी मेहनत के फलस्वरूप पाया हुआ धन और संपदा का यदि पवित्र भाव से पूजन किया जाए तो उस वैभव के कारण हमारे भीतर किसी प्रकार का दोष - दुर्गुण उत्पन्न नहीं होगा और अपार समृद्धि प्राप्त करने के बाद भी अपने अंतिम लक्ष्य से मनुष्य का ध्यान नहीं हटेगा, वो दोषों, दुर्गुणों तथा विकारों का शिकार नहीं बनेगा साथ ही वह अपने लिए निर्धारित कर्म को करने हेतु सदैव निष्काम भाव से लगा रहेगा।

समुद्र मंथन के आख्यान को यदि इस दृष्टि से देखा जाए तो मनुष्य अपने जीवन के महासागर में लगातार अच्छाई और बुराईयों यानि हमारे भीतर की दुष्ट और अच्छी प्रवृत्तियों के बीच चलने वाले मंथन के बीच मेरु पर्वत के समान कभी आगे कभी पीछे घूमता रहता है।

इस मंथन से मनुष्य को अनेक प्रकार की उपलब्धियां,अच्छे - बुरे अनुभव प्राप्त होते है, जिसमें मृत्यु तुल्य कष्ट विष के समान तो अच्छे विचारों और कर्मों की ख्याति अमृत के समान प्राप्त होती है। उसी तरह जीवन काल में धन, संपदा और वैभव, लक्ष्मी के रूप में मिलता है। जिससे विवाह भगवान विष्णु यानी हमारी कर्मशीलता यदि सम्यक भाव करती है तो उसका मोह मन में नहीं जागता।


“असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय” के आधार पर हमारे समाज में प्रकाश को ज्ञान समझा जाता है। अज्ञान को मृत्यु के समान और ज्ञान को अमृत तुल्य माना गया है। लेकिन प्रकाश ज्ञान के अलावा वैभव, संपन्नता, हर्ष,उल्हास को भी प्रकट करता है। हमारी संस्कृति में खुद कमाए धन से मिले अन्न का उपभोग करने से पहले उसे थलचर, नभचर और जलचर को दान करने के बाद स्वयं ग्रहण करने की परंपरा रही है। उसी तरह हमारे पास अपनी आवश्यकता की पूर्ति के बाद बचे अतिरिक्त धन –साधनों को अत्यंत जरूरतमंद को दान देने की परंपरा रही है। संत कबीर दास जी ने इसे बड़े सहज ढंग से कहा–“साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाए मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए।“ इसी कड़ी में दान को बड़ा पुण्य माना गया है। 

हम नौ दिनों की शक्ति साधना के बाद असत पर विजय प्राप्त कर विजय उत्सव मनाते है। हमें इस विजय से जो उपलब्धियां मिलती हैं, दीपावली उन उपलब्धियों के आनंद को समाज के साथ बांटने का पर्व भी है। दीपक की कतारें केवल अपने घर पर ही नही बल्कि अपने घर की पंक्ति में आने वाले और सभी परिचितों के घरों को रोशन करने की भावना का भी उत्सव है। 

माँ लक्ष्मी की उपासना के लिए ऋग्वेद में लिखे श्री सूक्त का पाठ किया जाता है। इस सूक्त का आठवां श्लोक है – “क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठाम लक्ष्मीं नाशयाम्यहम्। अभूतिमसमृद्धि च सर्वां निर्णुद में गृहात् ॥ जिसका अर्थ है - लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी) का जो क्षुधा यानी भूख और पिपासा यानि प्यास से मलिन और क्षीणकाय रहती हैं, का मैं नाश चाहता हूँ। हे देवि मां ! हर घर में बैठे सब प्रकार के दारिद्र्य और अमंगल को दूर करो।


जिस घर में दीपक जलाने के लिए भी तेल उपलब्ध नहीं है, खाने के लिए जरूरी भोजन, कपड़े नहीं है, उनको भी उनके जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की वस्तुएं मिले इसलिए सहयोग करने का भी यह उत्सव है। इसके लिए छोटे-छोटे काम,व्यापार - व्यवसाय, उद्योग करने वाले, कारीगरों, लोक कलाकारों, छोटे दुकानदारों को सहयोग करना आवश्यक है। एक दीप से दूसरा दीप जलाना इसे इस अर्थ में भी देखा जा सकता है। 


ये अभिलाषा मन में रखना कि मेरा घर साफ रहे, रोशन रहे, मेरे घर-परिवार में धन संपत्ति,उल्लास - उमंग का वातावरण बना रहे, अच्छा है। किंतु मेरे परिचय संपर्क में रहने वाले किसी भी घर में यदि इनमें से किसी भी बात के अभाव का अंधेरा है तब तक मेरी उमंग, मेरा उत्साह, मेरी प्रसन्नता का अर्थ नही है, इस भाव को जगाने का भी ये पर्व है।

अपनी प्रसन्नता-आनंद को दाँव पर लगाकर अभावग्रस्त को प्रसन्न करना सही मायने में है जुआं है जो इस दिन खेला जाना चाहिए। इससे जो समाधान मिलेगा वो किसी भी संपदा से अनमोल है।उनके मन में जो उल्हास व उमंग के हिलोरे उठेंगे, उनके बच्चो की प्रसन्न मन से उठने वाली किलकारियों से कीमती आतिशबाज़ी और क्या हो सकती है । 

इसी श्री सूक्त की फलश्रुति का एक श्लोक है- ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः। भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥ जिसका अर्थ है – ऋण, रोग, दरिद्रता, पाप, क्षुधा, अपमृत्यु, भय, शोक तथा मानसिक ताप आदि – ये सभी बाधाएँ सदा के लिये नष्ट हो।

                   

लक्ष्मी के आठ प्रकार बताएं गए है। आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, सन्तानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, भाग्य लक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी। धन लक्ष्मी की पूजा से धन की प्राप्ति हो सकती है। लेकिन यदि हम अभावग्रस्त लोगों, वंचितों के दारिद्र और अमंगल को दूर करते है तो लक्ष्मी जी की बड़ी बहन अलक्ष्मी हमें अष्ट लक्ष्मी की प्रसन्नता का वरदान प्रदान करती है, तभी हमारी दीपावली सार्थक दीपावली हो सकती है।

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