अजय कुमार बियानी
आज ऐसा समाज है जो बाहर से जितना शांत, सुसंस्कृत और अनुशासित दिखाई देता है, भीतर उतना ही तनावग्रस्त, बिखरा हुआ और दिशाहीन हो चुका है। यह स्थिति किसी एक घटना, किसी एक वर्ग या किसी एक पीढ़ी की देन नहीं है। यह वर्षों से जमा होती संवेदनहीनता, दिखावा, आडंबर, मौन स्वीकृति और आंतरिक विघटन का परिणाम है। बाहर भव्यता है, भीतर खोखलापन। मंच जगमगा रहे हैं, लेकिन आत्मा अंधेरे में डूबी है। सच यह है कि यह समाज आज बारूद के ढेर पर बैठा है—और विडंबना यह कि उसे इसका एहसास तक नहीं।
सबसे गंभीर संकट है समाज का अपने ही कमजोर वर्ग से धीरे-धीरे मुँह मोड़ लेना। आदर्श वाक्य, उपदेश और ग्रंथ आपसी सहयोग और करुणा की बात करते हैं, लेकिन व्यवहार में संघर्ष कर रहा व्यक्ति सबसे अधिक अकेला है। किसी घर में बीमारी हो, विवाह की चिंता हो, रोजगार छिन गया हो या मानसिक दबाव हो—इन सबके लिए समाज के पास न समय है, न संवेदना, न ठोस तंत्र। इसके विपरीत, भव्य आयोजन, सजावट, शोभायात्राएँ और मंचीय प्रदर्शन पूरे जोश से चलते हैं। धर्म सेवा से खिसककर प्रदर्शन बनता जा रहा है। जब संवेदनहीनता किसी समाज की पहचान बनने लगे, तो समझ लेना चाहिए कि विस्फोट केवल समय की प्रतीक्षा कर रहा है।
दूसरा बड़ा संकट है नेतृत्व और मार्गदर्शन का खोखलापन। त्याग, साधना और आत्मसंयम जिन मूल्यों पर आधारित होने चाहिए, वे आज प्रचार, भीड़ और मंचीय प्रतिष्ठा में उलझ गए हैं। पद, उपाधि और लोकप्रियता साधना से अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। समाज भी इसी बहाव में बह रहा है—जहाँ अधिक भीड़ है, वही श्रेष्ठ; जहाँ अधिक प्रचार है, वही महान। इस शोरगुल में सच्ची साधना, मौन तप और आंतरिक परिवर्तन की आवाज दबती जा रही है। धर्म धीरे-धीरे जीवन पद्धति नहीं, बल्कि एक ‘इवेंट’ बनता जा रहा है।
समाज की कुछ आंतरिक समस्याएँ ऐसी हैं जो इसे चुपचाप अंदर से खोखला कर रही हैं।
पहली समस्या है विवाह में अत्यधिक विलंब और तथाकथित ‘परफेक्ट’ चयन की जिद। अवास्तविक अपेक्षाएँ, तुलना, सामाजिक दिखावा और अहंकार के कारण योग्य युवक-युवतियाँ उम्र के महत्वपूर्ण वर्ष तनाव और अनिश्चितता में बिता रहे हैं। परिणामस्वरूप अवसाद, अकेलापन और पारिवारिक असंतुलन बढ़ रहा है।
दूसरी समस्या है जनसंख्या का खतरनाक रूप से गिरना। एक संतान तक सीमित सोच, करियर का अत्यधिक दबाव और जीवन-शैली का डर समाज के भविष्य को कमजोर कर रहा है। आने वाले समय में यह गिरावट सामाजिक और सांस्कृतिक अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा कर सकती है, लेकिन फिलहाल इस खतरे को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा।
तीसरी समस्या है आर्थिक असमानता और आपसी जलन। समृद्धि के बावजूद सहयोग की जगह प्रतिस्पर्धा, सामूहिक उन्नति की जगह व्यक्तिगत अहंकार ने ले ली है। एक-दूसरे को आगे बढ़ाने के बजाय नीचा दिखाने की प्रवृत्ति समाज की सामूहिक शक्ति को नष्ट कर रही है।
चौथी समस्या है धार्मिक और सामाजिक संस्थानों का निजीकरण। सेवा और आस्था के केंद्र अब नियंत्रण और वर्चस्व की लड़ाई का मैदान बनते जा रहे हैं। गुटबाजी, पारदर्शिता की कमी और आंतरिक संघर्ष से आम लोगों का विश्वास टूट रहा है, और मूल उद्देश्य पीछे छूटता जा रहा है।
पाँचवीं समस्या है युवाओं का विमुख होना। युवा जुड़ना चाहते हैं, समझना चाहते हैं, लेकिन उन्हें गहराई नहीं दी जाती—सिर्फ चमक दिखाई जाती है। परिणाम यह कि वे दूरी बना लेते हैं। युवा पीढ़ी का यह अलगाव किसी भी समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा होता है।
छठी समस्या है वृद्धजनों की उपेक्षा। अनुभव और मार्गदर्शन के स्रोत आज अकेलेपन और उपेक्षा का शिकार हैं। सम्मान औपचारिकता बन गया है, संवाद कम होता जा रहा है। यह स्थिति समाज की जड़ों को कमजोर करती है।
सातवीं और सबसे चिंताजनक समस्या है संगठनात्मक बिखराव और सामूहिक दृष्टि का अभाव। हर जगह संस्थाएँ हैं, समितियाँ हैं, लेकिन दिशा नहीं। गुट हैं, लक्ष्य नहीं। राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर आवाज कमजोर होती जा रही है, जो किसी भी समाज को असुरक्षित बना देती है।
इन सबके बीच सबसे दुखद पहलू यह है कि हम अपनी समस्याओं को स्वीकार करने से ही डरते हैं। आत्मालोचना के बजाय आत्मप्रशंसा में उलझे रहना आसान लगता है। बाहरी चमक में डूबकर हम भीतर की सड़ती जड़ों को देखना नहीं चाहते।
सच यह है कि भव्यता किसी समाज को महान नहीं बनाती। महानता आती है संवेदना से, एकता से, त्याग से और सामूहिक चेतना से। इस समाज के पास अभी भी अवसर है। यदि दिखावे से ऊपर उठकर कमजोर को केंद्र में रखा जाए, नेतृत्व से प्रचार नहीं बल्कि साधना की अपेक्षा की जाए, युवाओं को गहराई से जोड़ा जाए और एक साझा दिशा तय की जाए—तो यही बारूद विनाश नहीं, अपार शक्ति बन सकता है।
लेकिन यदि भीतर की आग को समय रहते नहीं बुझाया गया, तो इतिहास गवाह है—बाहर की कोई भी आँधी समाज को बचा नहीं पाएगी।

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