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बचपन की ऑनलाइन बंदी: सुधा मूर्ति जी की चेतावनी Online captivity of childhood: Sudha Murthy's warning

 

प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी

[जब बचपन बन गया ब्रांड: भारत में बच्चों की डिजिटल सुरक्षा]

[किडफ्लुएंसर बनाम बचपन: क्या हम अपने बच्चों को बेच रहे हैं?]

 

कभी-कभी समाज को झकझोरने के लिए सिर्फ एक आवाज़ काफी होती है, और इस बार वह आवाज़ राज्यसभा में गूंजी, जब सुधा मूर्ति जी ने बच्चों के डिजिटल शोषण पर सवाल उठाया। उनका वक्तव्य सिर्फ टिप्पणी नहीं था, बल्कि चेतावनी की तरह था जो हमें आईने के सामने खड़ा कर देती है। ऐसे समय में, जब सोशल मीडिया हमारे विचारों और आदतों पर हावी है, यह प्रश्न जरूरी हो गया था कि क्या हम अपने बच्चों को ‘कंटेंट’ बनाकर उनकी मासूमियत, स्वतंत्रता और बचपन कुर्बान कर रहे हैं? यह मुद्दा अब केवल संसद तक सीमित नहीं, बल्कि हर घर, हर परिवार और हर अभिभावक की दहलीज़ पर दस्तक दे रहा है।

आज की डिजिटल दुनिया में ‘किडफ्लुएंसर’ का उभार जितना आकर्षक लगता है, उतना ही भीतर से चुनौतीपूर्ण और चिंताजनक है। माता-पिता अपने बच्चों को सजाकर, नचाकर, नृत्य कराकर और उत्पादों का प्रचार कराकर लाखों फॉलोअर्स और आर्थिक लाभ जुटाने में लगे रहते हैं। कैमरे के सामने मुस्कुराते ये बच्चे जितने प्यारे दिखते हैं, उतनी ही गहरी चिंता उनके मानसिक और भावनात्मक विकास को लेकर होती है। यह दृश्य भले ही चमकदार और खुशहाल लगे, लेकिन असल में यह शोषण का नया रूप है—जहां बचपन अब ‘लाइक’ और ‘व्यूज़’ की आर्थिक कीमत से मापा जाने लगा है।

इस चमक-दमक की दुनिया का सबसे गहरा और खतरनाक असर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। लगातार परफॉर्म करने का दबाव, माता-पिता की उम्मीदें, ट्रोलिंग और तुलना—ये सब मिलकर बच्चों को तनाव, चिंता और आत्म-पहचान के संकट की ओर धकेलते हैं। जब किसी बच्चे को यह समझ नहीं होता कि उसे क्यों फिल्माया जा रहा है या उसके वीडियो क्यों वायरल हो रहे हैं, तब भी वह अनजाने में एक ऐसे वातावरण का हिस्सा बन जाता है, जहां उसकी मासूमियत, भावनाएँ और निजता उत्पाद की तरह इस्तेमाल होने लगती हैं।

स्थिति और भी गंभीर हो जाती है, जब बच्चों के खेलने, सीखने और सामाजिक कौशल विकसित करने का समय कैमरे और शूटिंग द्वारा घिर जाता है। वह उम्र, जो खुली हवा में दौड़ने, दोस्तों के साथ खेलने और अपनी कल्पनाओं को उड़ान देने के लिए होती है, अब कंटेंट कैलेंडर और शूट शेड्यूल में उलझती जा रही है। कई बच्चे यह मानने लगते हैं कि उनकी असली पहचान वही है जो सोशल मीडिया पर दिखाई देती है—और यह संकेत है कि वास्तविकता और डिजिटल छवि के बीच खाई बढ़ने लगी है।

दूसरे देशों की तरह भारत में बच्चों की डिजिटल सुरक्षा को लेकर अभी तक कोई व्यापक और ठोस कानून मौजूद नहीं है। फ्रांस जैसे देशों में बच्चों के ऑनलाइन काम के घंटे नियोजित हैं, उनकी कमाई पर सख्त निगरानी है, और 15–16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए विशेष सुरक्षा नियम लागू हैं। ये मॉडल स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि विकसित समाज बच्चों को ‘डिजिटल श्रम’ और शोषण से बचाने को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है। इसके विपरीत, भारत में लाखों परिवारों के बच्चे सोशल मीडिया पर एक ‘ब्रांड’ की तरह प्रस्तुत किए जा रहे हैं, लेकिन उनकी सुरक्षा और अधिकारों की रक्षा का कोई ठोस ढांचा नहीं है।

यह समस्या केवल बच्चों तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे समाज की नींव को प्रभावित करती है। जब माता-पिता अपने बच्चों को व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर रखते हैं, तो अनजाने में सामाजिक असमानता भी बढ़ती है। संपन्न परिवारों के बच्चे स्टार बन जाते हैं, जबकि अन्य केवल दर्शक बने रहते हैं। इससे बच्चों में ईर्ष्या, अवसाद और असंतोष की भावनाएँ पैदा होती हैं, और सफलता की गलत परिभाषा स्थापित होती है—जहां पढ़ाई, खेल या रचनात्मक कौशल नहीं, बल्कि ‘फ़ॉलोअर्स’ और ‘लाइक’ को उपलब्धि माना जाने लगता है।

साथ ही, बच्चों की निजता पर भी गंभीर खतरा मंडरा रहा है। इंटरनेट पर डाली गई एक तस्वीर या वीडियो हमेशा के लिए वहां बनी रहती है, और भविष्य में साइबर बुलिंग, पहचान चोरी या अन्य अनुचित उपयोग की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। यह खतरा लड़कियों के लिए और भी गहरा है, क्योंकि डिजिटल दुनिया में उनका मार्ग तेजी से जटिल होता जा रहा है। सोचकर ही सिहरन होती है कि एक मासूम बच्ची की ऑनलाइन उपस्थिति का नियंत्रण उसके अपने हाथों में नहीं, बल्कि किसी और के आर्थिक हितों में बंधा है।

सुधा मूर्ति जी का तर्क बिल्कुल स्पष्ट और गंभीर है कि बच्चे अनुमति नहीं दे सकते, वे व्यावसायिक परिणाम को समझने में सक्षम नहीं हैं और अपने अधिकारों की रक्षा खुद नहीं कर सकते। यही कारण है कि यह जिम्मेदारी सिर्फ माता-पिता की नहीं, बल्कि पूरे समाज और सरकार की है कि वे बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य, सुरक्षित विकास और भविष्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दें। भारत जैसे देश में, जहां बच्चे परिवार की अमूल्य धरोहर माने जाते हैं, उनका व्यावसायिक इस्तेमाल न केवल व्यक्तिगत हानि है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और नैतिक जड़ों को भी कमजोर करता है।

आज की जरूरत है कि भारत एक व्यापक राष्ट्रीय नीति बनाए, जो बच्चों की सोशल मीडिया उपस्थिति को स्पष्ट और प्रभावी रूप से नियंत्रित करे। इसमें उम्र सीमा, अभिभावकीय सहमति, बच्चों की कमाई और काम के घंटों पर कड़ाई, डिजिटल गोपनीयता और व्यावसायिक मुद्रीकरण पर सख्त प्रतिबंध जैसे कदम शामिल होने चाहिए। जैसे विज्ञापनों में बच्चों के उपयोग को लेकर नियम बनाए गए हैं, उसी तरह सोशल मीडिया पर भी कानूनी ढांचा तैयार करना अब अपरिहार्य हो गया है।

यह बहस अब संसद तक सीमित नहीं रह सकती। विशेषज्ञों, मनोवैज्ञानिकों, शिक्षकों, तकनीक कंपनियों और अभिभावकों को मिलकर बच्चों के लिए एक सुरक्षित और संतुलित डिजिटल भविष्य की दिशा तय करनी होगी। हमें स्पष्ट करना होगा कि बच्चे केवल ‘कंटेंट’ नहीं हैं—वे संवेदनशील, जिज्ञासु और भावनात्मक प्राणी हैं, जिनके सपने, अधिकार और भावनाएँ किसी भी डिजिटल मंच से कहीं अधिक मूल्यवान हैं।

यदि हम अभी कदम नहीं उठाए, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमसे पूछेंगी कि हमने उनके बचपन को क्यों बाजार के हवाले कर दिया। सुधा मूर्ति की आवाज़ दरअसल हमारी चेतना को जगाने का अवसर है—हमें याद दिलाने का कि तकनीक तभी प्रगति है जब वह मानवीय मूल्यों और नैतिकता के साथ संतुलित हो। बच्चों को इस डिजिटल चमक-दमक से मुक्त कर हम न केवल उन्हें सुरक्षित और संपूर्ण विकास का अवसर दे सकते हैं, बल्कि एक मजबूत, संवेदनशील और मूल्यवान समाज का निर्माण भी कर सकते हैं। अब समय आ गया है कि यह बदलाव संसद से सड़क तक, और सड़क से हर घर तक पहुंचे—क्योंकि बच्चों की सुरक्षा और उनका बचपन ही किसी सभ्यता की असली पहचान और उसकी प्रगति की असली कसौटी है।

 

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