विवेक तिवारी
भारत ही नहीं पूरी दुनिया में तेजी से शहरों का विकास हो रहा है। लोग गांवों से निकल कर विकास में हिस्सेदारी के लिए शहरों का रुख कर रहे हैं। लेकिन इन अंधाधुंध दौड़ में शहरों पर बोझ बढ़ रहा है। शहरों में रहने के लिए घर और आवश्यक इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत का बोझ मिट्टी पर भी पड़ रहा है। शहरों में तेजी से कंक्रीट के जंगल बढ़ रहे हैं। ऐसे में मिट्टी और पानी दोनों पर ही दबाव बढ़ रहा है। कई शहरों में अब इसके भयावह परिणाम सामने भी आने लगे हैं। शहरीकरण और पर्यावरण के बीच बढ़ते असंतुलन के चलते ही इस साल संयुक्त राष्ट्र ने विश्व मृदा दिवस 2025 की थीम “स्वस्थ शहरों के लिए स्वस्थ मृदा” रखी है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2050 तक दुनिया के शहरों में 2.5 अरब और लोग बस सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक विभाग की यह चेतावनी बताती है कि तेजी से बढ़ते शहरीकरण ने मिट्टी पर असाधारण दबाव डाला है। रिपोर्ट के मुताबिक इस बढ़ते दबाव के चलते शहरों में कंक्रीट के नीचे दब चुकी मिट्टी न बारिश का पानी सोख पा रही है और न ही तापमान नियंत्रित कर पा रही है। शहरों में बढ़ते कंक्रीट और सतह के ढकने से मिट्टी न ही कार्बन संग्रहण कर पा रही है और न ही वायु शुद्धिकरण जैसे अपने प्राकृतिक कार्य कर पा रही है।भारत तेजी से विकास कर रहा है। यहां भी पिछले एक दशक में शहरीकरण की रफ्तार काफी तेज हुई है। इस अनियंत्रित विकास के दुष्परिणाम भी दिखने लगे हैं। हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर से किए गए एक अध्ययन में सामने आया कि राजधानी ने तीन दशकों में अपनी लगभग 8.2 फीसदी आर्द्रभूमि खो दी है। दक्षिणी दिल्ली में यह क्षति 97 फीसदी तक पहुँच गई है। इसी अवधि में शहर में ऐसी भूमि जिसपर इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास हुआ उसकी हिस्सेदारी 70 फीसदी से ज्यादा बढ़ गई। वहीं दूसरी तरफ पेड़ पौधों के या वनस्पति क्षेत्र में लगभग 37 फीसदी की गिरावट देखी गई। शोधकर्ताओं ने उपग्रह इमेजरी और AWEI सूचकांक से किए गए अध्ययन में पाया कि शहरी विस्तार वॉटर बॉडीज को खत्म करता जा रहा है। इससे भूजल रिचार्ज में बाधा पहुंच रही है। वहीं शहरों में अचानक बाढ़ का खतरा बढ़ा है।गौतमबुद्ध विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग के डीन प्रो. चंदर सिंह का कहना है कि शहरों में कंक्रीट का तेजी से फैलाव भूजल रिचार्ज रोक देता है और मिट्टी में नमी खत्म होने से सूक्ष्मजीव मरने लगते हैं, जिससे मिट्टी की उपजाऊ क्षमता घटती है। उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि प्लास्टिक और माइक्रोप्लास्टिक का प्रभाव अभी तक कम आंका गया है और इस पर और शोध की आवश्यकता है।शहरों में बढ़ती कंक्रीट की सहत से एक तरफ जहां जमीन में पानी का रिचार्ज बाधित हो रहा है वहीं मिट्टी में नमी कम होने के चलते वो अपनी प्राकृतिक खूबियों को भी खो रही है। ऐसे में मिट्टी की पकड़ भी ढीली पड़ रही है। नेचर सस्टेनिबिलटी में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय के एक अध्ययन मुताबिक भारत के पाँच महानगरों में 878 वर्ग किमी क्षेत्र तेजी से धंस रहा है। वहीं लगभग 1.9 मिलियन लोग ऐसे इलाकों में रहते हैं जहाँ जमीन 4 मिलीमीटर प्रतिवर्ष या उससे ज्यादा स्पीड से धंस रही है। रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली, मुंबई और चेन्नई में लगभग 2,406 इमारतें पहले से ही बेहद खतरनाक स्थिति में हैं। शोधकर्ताओं का दावा है कि अगर हालात पर नियंत्रण नहीं किया गया तो अगले 50 वर्षों में इन पाँच महानगरों में लगभग 23,529 इमारतों को संरचनात्मक तौर पर गंभीर नुकसान पहुंच सकता है। शोध के मुख्य वैज्ञानिक डॉ.मनूचेहर शिरजाई ने कहा कि भूमि धंसाव धीरे-धीरे शुरू होता है, लेकिन चरम मौसम घटनाओं के साथ मिलकर शहरों के लिए खतरा कई गुना बढ़ा देता है। ऐसे में हमें अभी से कदम उठाने होंगे। अगर हालात ऐसे ही रहे तो आने वाले समय में शहरों में इमारतों को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचते देखा जा सकता है।पर्यावरणविद फयाद खुदसर कहते हैं कि धरती पर मौजूद 95 फीसदी जीवन का आधार मिट्टी है। आज मिट्टी मुश्किल में है। खासतौर पर शहरों की अगर बात करें तो यहां अनियंत्रित और बिना पर्यावरण को ध्यान में रखे हो रहा निर्माण जिसे विकास का नाम दिया जाता है वो विनाश कर रहा है। शहरों के आसपास बहुत सी वेटलैंड जिसमें बहुत से जीव जंतु और माइक्रो ऑर्गन रहते हैं वो खत्म होते जा रहे हैं। ये वेटलैंड जमीन में भूजल के रीचार्ज में भी अहम भूमिका निभाते हैं। आज अगर हम दिल्ली की बात करें तो दिल्ली के पर्यावरण के लिए यमुना और और अरावली पर्वत श्रृंखला सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आज ये दोनों मुश्किल में है। हमें दिल्ली और आसपास के इलाकों में स्थानीय प्रजातियों को प्रोत्साहित करना होगा।पूरी दुनिया में आज जो भी अर्बन सेंटर हैं वहां सभी जगह माइक्रोप्लास्टिक का प्रदूषण एक बड़ी समस्या बन चुका है। माइक्रोप्लास्टिक मिट्टी की संरचना को बिगाड़ रहा है। ये मिट्टी के जीवन को खत्म कर रहा है। माइक्रोप्लास्टिक मिट्टी की नमी को रोकने और माइक्रोऑर्गेनिजम के विकास को बाधित करता है।
जलवायु परिवर्तन और भूमि के अंधाधुंध दोहन से मिट्टी की उपजाऊ शक्ति कमजोर पड़ रही है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) की हालिया रिपोर्ट “द स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर 2025” चेतावनी देती है कि करीब 1.7 अरब लोग ऐसे क्षेत्रों में रह रहे हैं जहाँ मिट्टी की उपजाऊ परत खत्म होती जा रही है। गौरतलब है कि पूरी दुनिया में उपलब्ध खेती योग्य भूमि में लगभग 29 फीसदी हिस्सेदारी भारत की और लगभग 26 फीसदी हिस्सेदारी चीन की है। मानवजनित भूमि क्षरण के कारण दुनिया के कई हिस्सों में फसलों की पैदावार 10 फीसदी तक घट गई है। मरुस्थलीकरण के विश्व एटलस के अनुसार, अब तक 75 फीसदी उपजाऊ मिट्टी का क्षरण हो चुका है। मिट्टी के क्षरण की यदि यही रफ्तार रही तो 2050 तक धरती की हरियाली का चेहरा ही बदल सकता है। भारत में उपजाऊ मिट्टी के क्षरण पर आईआईटी दिल्ली की ओर से 2024 में हुए अध्ययन में सामने आया कि देश के लगभग 30 फीसदी भूभाग में मिट्टी की उपजाऊ शक्ति घट रही है, जबकि 3 फीसदी क्षेत्र विनाशकारी स्तर पर पहुंच चुका है। वैज्ञानिक मानते हैं कि यह सिर्फ पर्यावरण का नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बड़ा संकट है। भूमि क्षरण के पीछे कोई एक कारण नहीं होता बल्कि कई कारण होते हैं। इनमें प्राकृतिक कारक, जैसे मृदा अपरदन और लवणीकरण, और मानव-जनित दबाव शामिल हैं, जो लगातार प्रबल होते जा रहे हैं। वनों की कटाई, असंतुलित फसल और सिंचाई पद्धतियाँ इसके प्रमुख कारणों में से हैं। लेकिन ये रिपोर्ट मुख्य रूप से मानव गतिविधियों के कारण होने वाले मिट्टी के क्षरण पर आधारित है।खेती योग्य कुल भूमि में से लगभग आधे से ज्यादा खेत भारत और चीन में ही हैं। वहीं पूर्वी और दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य देशों को भी जोड़ लिया जाए तो लगभग 10 फीसदी और खेती योग्य भूमि इन देशों में है। ऐसे में पूरी दुनिया की खाद्यान की जरूरत को पूरा करने में एशिया की महत्वपूर्ण भूमिका है। पूसा में स्वॉयल साइंस एंड एग्रीकल्चर केमिस्ट्री विभाग के प्रमुख डॉ. देबाशीष मंडल कहते हैं कि पूरी धरती पर जितना भी खाद्य है उसका 99 फीसदी मिट्टी से आता है। सिर्फ एक फीसदी है जलीय जीवन से आता है। हमने पिछले कई दशकों से अपनी खाद्यान सुरक्षा के लिए मिट्टी से पोषक तत्व का शोषण किया है। इसका संतुलन बिगड़ गया है। पराली जलाए जाने जैसी घटनाओं से भी मिट्टी की बायोडाइवर्सिटी पर असर पड़ता है। बड़ी संख्या में जीवाणु और कीड़े मर जाते हैं। ऐसे में मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर असर पड़ता है। किसानों को इस बात को समझना होगा। मिट्टी के जीवन को बनाए रखने के लिए हमें इसमें जैविक खाद का इस्तेमाल बढ़ाना होगा। वहीं समय समय पर मिट्टी की जांच करा कर जो भी पोषक तत्व कम हो उसकी भरपाई करनी होगी तभी हमें बेहतर उत्पादन मिल सकेगा।
भारत सरकार के 'बंजर भूमि एटलस' (2019) के मुताबिक देश में कुल 55.76 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि है। ये कुल कुल भौगोलिक क्षेत्र का 16.96% है। सरकार की ओर से संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक सरकार कृषि क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के अनुमानित प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए कई तरह से तैयारी कर रही है। प्रतिकूल मौसम परिस्थितियों एवं संवेदनशील जिलों एवं क्षेत्रों के लिए उपयुक्त जलवायु अनुकूल कृषि प्रौद्योगिकी विकसित की जा रही है। इसके तहत स्थान के आधार पर मिट्टी के पोषक तत्वों के प्रबंधन पर काम किया जा रहा है। वहीं अनुपूरक सिंचाई, सूक्ष्म सिंचाई, पानी की बेहतर निकासी मृदा में सुधार आदि को बढ़ाना का भी प्रयास किया जा रहा है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल प्रोटोकॉल के मुताबिक कृषि में जोखिम और संवेदनशीलता का मूल्यांकन भी किया है। कुल 109 जिलों को अति उच्च और 201 जिलों को अत्यधिक संवेदनशील के तौर पर चिन्हित किया गया है। कुल 151 जिलों में कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से अनुकूल उपाय अपनाए जा रहे हैं। मौसम की अनियमित स्थिति से मुकाबला करने के लिए कुल 651 जिलों के लिए जिला कृषि आकस्मिकता योजना भी विकसित की गई है।

Post a Comment