परीक्षित गुप्ता मुंबई
सिनेमाघरों की चमकती स्क्रीन पर हर हफ़्ते कोई नया नायक जन्म लेता है — कोई तानाशाहों से लड़ता है, कोई दुनिया बचाता है, कोई अन्याय को मिटा देता है। पर जब परदा गिरता है और रोशनी बुझ जाती है, तो ये नायक वहीं ठहर जाते हैं, वहीं मर जाते हैं — फिल्म की कहानी के साथ। असली ज़िंदगी की गलियों, चौकों, और गलियारों में जब भूख, हिंसा और बेबसी नाचती है, तो वहाँ कोई नहीं उतरता। जहाँ इंसानियत की ज़रूरत होती है, वहाँ बस भीड़ होती है — जो देखती सब है, पर करती कुछ नहीं। यही हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है — नायक अब पर्दे पर हैं, जबकि उनकी ज़रूरत सड़कों पर है।
हमने नायकत्व को अभिनय, संवाद और ताली की आवाज़ों में बाँध दिया है। साहस अब बॉक्स ऑफिस की कमाई से मापा जाता है, और करुणा अब पॉपकॉर्न के साथ बिकती है। हमने “साहस” को मनोरंजन बना दिया है। पर समाज फिल्मों से नहीं बदलता, वह उन लोगों से बदलता है जो ज़मीन पर उतरकर कुछ करते हैं। किसी गिरे हुए को उठाना, किसी के हक़ में बोलना, किसी की भूख मिटाने की कोशिश करना — यही असली नायकत्व है। और आज के युग में यह सबसे दुर्लभ गुण है — “करुणा के साथ कर्म।”
हर दिन कोई हादसा होता है, कोई बच्चा बिना रोटी के सो जाता है, कोई बुज़ुर्ग अकेलेपन में डूब जाता है, कोई महिला चुपचाप अपमान सहती है — और हम? हम अगले शो के टिकट बुक करते हैं। हमने संवेदना को आउटसोर्स कर दिया है, उन काल्पनिक नायकों को जो सिर्फ परदे पर जीते हैं। हमें लगता है कि कोई आएगा, जैसे फिल्मों में होता है, और सब ठीक कर देगा। पर ज़िन्दगी कोई फिल्म नहीं है, यहाँ कोई “हैप्पी एंडिंग” नहीं होती। जब तक कोई असली इंसान आगे नहीं बढ़ता, तब तक हर अंत अधूरा ही रहता है।
नायक बनना कठिन है, क्योंकि इसमें चमक नहीं, संघर्ष है; इसमें शोहरत नहीं, जिम्मेदारी है; इसमें तालियाँ नहीं, बस थकान है। असली नायक वो नहीं जो खलनायक को हराए, बल्कि वो है जो अपने भीतर के डर, संदेह और उदासीनता से जीत जाए। जो सच बोलने की हिम्मत रखे, भले अकेला ही क्यों न हो। जो भीड़ में खड़ा होकर भी सच्चाई की ओर झुके, वही समाज का सच्चा नायक है।
समाज को आज पर्दे के पीछे नहीं, ज़मीन पर काम करने वाले नायकों की ज़रूरत है। वो शिक्षक जो गांव के बच्चों में सपनों की लौ जलाता है, वो सफाईकर्मी जो बदबू में भी इज़्ज़त से काम करता है, वो डॉक्टर जो छुट्टी के दिन भी मरीज देखता है, वो लड़की जो डर के बावजूद अपनी आवाज़ उठाती है — यही वो लोग हैं जिनसे समाज सांस लेता है। लेकिन अफ़सोस, इनकी कहानी पर कैमरे नहीं घूमते, इनकी मेहनत पर ताली नहीं बजती। ये वो नायक हैं जो बिना दर्शकों के, बिना इनाम के, बस अपने कर्तव्य से प्रेरित होकर आगे बढ़ते हैं।
आज हमें फिल्मों में नहीं, अपने जीवन में “एक और नायक” चाहिए — जो कह सके “मैं करूंगा,” चाहे कोई साथ दे या नहीं। हमें ऐसे युवाओं की ज़रूरत है जो सेल्फ़ी में नहीं, सच्चाई में दिलचस्पी रखें; जो फॉलोअर्स नहीं, बल्कि मिसाल बनने का साहस रखें। समाज तब बदलता है जब कोई व्यक्ति भीड़ से अलग होकर खड़ा होता है और कहता है — “अब बहुत हुआ।” यही वो क्षण होता है जहाँ परिवर्तन की शुरुआत होती है।
इतिहास ने हमेशा उन्हीं नायकों को याद रखा है जिन्होंने पसीने से बदलाव लिखा — भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, सुभाष चंद्र बोस, सी.वी. रमन, कल्पना चावला, बाबा आमटे, सुधा मूर्ति आदि। इनकी कहानियों में कोई फ़िल्मी सीन नहीं था, कोई ताली नहीं बजी थी, लेकिन इनका असर पीढ़ियों तक रहेगा। ये नायक प्रसिद्धि से नहीं, नीयत से पैदा हुए थे। इन्होंने दिखाया कि नायकत्व पद, प्रसिद्धि या परिधान में नहीं, बल्कि दृष्टि, नीयत और कर्म में बसता है।
आज वक्त है खुद से एक सख्त सवाल पूछने का — क्या हम सिर्फ दर्शक बनकर रह जाएंगे? क्या हम सिर्फ परदे पर ताली बजाने तक सीमित रहेंगे, या फिर उन गलियों में उतरेंगे जहाँ किसी की उम्मीद टूटी है? दुनिया को फिल्मों के सुपरहीरो की नहीं, इंसानों के साहस की ज़रूरत है। हमें हर दिन, हर मोड़ पर थोड़ा-थोड़ा नायक बनना होगा — किसी के हक़ में बोलकर, किसी की मदद कर के, किसी का मनोबल बढ़ाकर।
जब हममें से हर कोई अपनी सीमाओं से ऊपर उठकर इंसानियत का हाथ थामेगा, तब समाज का चेहरा सच में बदलेगा। तब कोई हादसा अनदेखा नहीं रहेगा, कोई बेबसी अनसुनी नहीं रहेगी। तब हमें यह कहने में संकोच नहीं होगा — नायक अब पर्दे पर नहीं, सड़कों पर हैं। और वही दिन होगा जब इंसानियत अपनी सबसे बड़ी भूमिका निभाएगी — बिना स्क्रिप्ट, बिना स्पॉटलाइट, पर सच्चाई और साहस के साथ।
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