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03 दिसम्बर: अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस][03 December: International Day of Persons with Disabilities]

दिव्यांगता नहीं, विकलांग सोच—समाज की असली बाधा

[रास्ता सभी के लिए: दया नहीं, अधिकार चाहिए]

[रैम्प से परे: समाज के असली बदलाव की ज़रूरत]

अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस, तीन दिसंबर— वह दिन है जब दुनिया एक क्षण को ऐसा व्यवहार करती है मानो उसकी अंतरात्मा अचानक जाग उठी हो। मानो सामूहिक नींद से उठकर उसे एक पूरे समुदाय का खयाल अचानक याद आ गया हो। सुबह होते ही सोशल मीडिया नीले-पीले रिबन और चमकदार हैशटैग से पट जाता है। सेलिब्रिटी अपनी सतही संवेदनाएँ उछालते हैं—“दिव्यांग नहीं, दिव्य-अंग!”—जैसे यह जुमला उनके भीतर किसी गहरी समझ का आलोक जगाता हो। सरकारी दफ्तरों में घिसी-पिटी भाषण-पुस्तिकाएँ खुलती हैं, स्कूलों में औपचारिक प्रतियोगिताएँ होती हैं, और शाम तक संवेदना का रंग उतनी ही जल्दी फीका पड़ जाता है जितनी जल्दी चढ़ा था। अगले दिन फिर वही पुराना अँधेरा, वही घिसी अनदेखी। यह दिन अब अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस कम, अंतर्राष्ट्रीय पाखंड दिवस ज्यादा है—जहाँ एक दिन की मिठी भावुकता पूरे साल की बेरहम उदासीनता को ढकने की नाकाम कोशिश करती है।


समाज जिस समूह को “कमज़ोर” मानता है, उस समूह की कहानियाँ असल में किसी भी क्रांति से कम नहीं। जिन्हें डॉक्टरों ने जन्म के साथ ही सीमाओं की सजा सुना दी थी—“चल नहीं पाएगा, कर नहीं पाएगा”—वे अपनी व्हीलचेयर को संघर्ष नहीं, बल्कि गति, जिजीविषा और आज़ादी का प्रतीक बना देते हैं। जिनसे स्कूलों ने कहा—“रैम्प नहीं है, पढ़ाई मुश्किल होगी”—वे सीढ़ियों पर नहीं, सोच की अड़चनों पर चढ़कर दिखाते हैं कि असली सीमा इमारत की है, इंसान की नहीं। जिन पर यह ठप्पा लगाया गया—“तुम किसी को खुश नहीं रख सकते”—वे प्रेम को इतनी गहराई से जीते हैं कि शरीर की सभी सीमाएँ उसमें विलीन हो जाती हैं।

इस दुनिया की सबसे बड़ी समस्या विकलांगता नहीं, बल्कि वह विकलांग सोच है जो इंसान को उसकी आत्मा के उजाले के बजाय शरीर की सीमाओं से तोलने लगती है। वही सोच, जो करुणा के नाम पर सहानुभूति को मोहरा बना लेती है—नौकरी देने के वक्त हिचकिचाती है, पर दिखावे की तारीफ़ करने में सबसे आगे रहती है। जो सामने मुस्कुराकर कहती है, “आप सच में प्रेरणा हैं”, लेकिन अवसर देने की ज़िम्मेदारी आते ही अपनी आँखें, अपने दरवाज़े और अपना मन तीनों बंद कर लेती है और उसके बहाने आसमान छूने लगते हैं। समाज शाबाशी देने में उदार है, लेकिन बराबरी देने में कंजूस; मुस्कान बाँटने में उदार है, पर जिम्मेदारी सौंपने में डरपोक। ऐसी सोच न सिर्फ़ विकास रोकती है, बल्कि उस समाज की असली पहचान खोल देती है जहाँ इंसानों को नहीं, उनकी सीमाओं को देखा जाता है।

दया एक मीठा-सा ज़हर है—ऊपर से मीठा, भीतर उतरते ही काटने वाला। वही लोग जो व्हीलचेयर धकेलने में सौजन्य दिखाते हैं, वही लोग ऑफिस में वही व्यक्ति अपनी कुर्सी पर बैठा देखकर असहज हो जाते हैं। मंचों पर ताली बजाकर उन्हें “हीरो” कहा जाता है, लेकिन रोज़मर्रा की ज़िंदगी में वही लोग उन्हें एक आम इंसान की तरह स्वीकार करने में काँपने लगते हैं। “विशेष” कहना दरअसल समाज का बचाव- कवच है—एक सुविधाजनक बहाना। “विशेष” को पूजना आसान पड़ता है, क्योंकि उससे कोई बदलाव नहीं माँगता। कठिनाई तब आती है जब बात रैम्प बनाने, बसों को सुलभ करने, दफ़्तरों और वेबसाइटों को सचमुच उपयोगी बनाने की हो—क्योंकि इसमें मेहनत चाहिए, नज़र का बदलाव चाहिए, और सबसे बढ़कर, बराबरी की वह ईमानदारी चाहिए जिससे समाज अक्सर बच निकलता है।

सच यह है कि असली अपराध किसी व्यक्ति में नहीं, उस व्यवस्था में छिपा है जो उसे रोकती है। अपराध वे सीढ़ियाँ हैं जो एक इंसान की गति को नहीं, उसके अधिकार को रोकती हैं। अपराध वे बसें हैं जिनके दरवाज़े इतने संकरे हैं कि मानो गरिमा को ही बाहर छोड़ कर चढ़ना पड़े। अपराध वे वेबसाइट्स हैं जो तकनीक की प्रगति का ढोल तो पीटती हैं, पर स्क्रीन रीडर की मौजूदगी तक को अनदेखा कर देती हैं। अपराध वे नौकरी फॉर्म हैं, जो “क्या आप दिव्यांग हैं?” पूछते ही जवाब दिए बिना ही किसी का भविष्य सीमाओं में बाँध देते हैं। अपराध दरअसल वह मानसिकता है जो “विशेष” कहकर अलगाने को सुविधा मानती है, जबकि ज़रूरत सुविधा की नहीं—खरी, बराबर अवसरों वाली समानता की है।

इन सबके बावजूद, यह समुदाय टूटता नहीं। टूटना उसकी नियति ही नहीं, उसकी परिभाषा में नहीं। इनकी ज़िंदगी प्रेरक कहानी नहीं—एक अनवरत विद्रोह है। हर दिन का संघर्ष, हर कदम की जद्दोजहद, हर साँस की दृढ़ता—सब विद्रोह है। वे आग हैं जो हवा के खिलाफ भी जलना जानती हैं। वे नदियाँ हैं जो पत्थरों को चीरकर अपना रास्ता बनाती हैं। वे पंखों से नहीं, हिम्मत से उड़ते हैं—इसलिए उड़ना भूलते नहीं। यही बात समाज को सबसे ज़्यादा चुभती है कि जिनसे दया की उम्मीद थी, वे दया की कतार में खड़े होने नहीं आए। वे आए हैं बराबरी की माँग लेकर और बराबरी किसी की कृपा से नहीं, हक़ से मिलती है।

तीन दिसंबर को न भाषणों की जरूरत है, न सेलिब्रिटी के औपचारिक ट्वीटों की, न सरकारी मंचों पर संवेदना के चमकते तमाशे की। इस दिन किसी उत्सव की नहीं—असल बदलाव की मांग है। बदलाव यह कि चौदह दिसंबर को बस स्टॉप पर सचमुच एक रैम्प दिखे। फरवरी में बैंक जाते समय काउंटर तक पहुँचना किसी युद्ध जैसा न लगे। मई में नौकरी के इंटरव्यू में किसी की काबिलियत को उसका शरीर पीछे न धकेले। अगस्त में प्रेम का इज़हार करते हुए किसी को यह कटु वाक्य न सुनना पड़े—“तुम नहीं समझ पाओगे।” साल के 365 दिनों में न कोई “विशेष” दिन चाहिए, न “विशेष” नज़र। बस वही नज़र चाहिए जो हर इंसान को देखने के काबिल होती है—सीधी, स्पष्ट और सम्मान से भरी हुई।

तीन दिसंबर का असली संकल्प यही होना चाहिए—समाज खुद से वादा करे कि वह अब किसी की राह में दीवार नहीं बनेगा। दया को मुद्रा की तरह खर्च करना बंद करेगा। “विशेष” कहकर दूरी बनाने का ढोंग छोड़ देगा। एक सुगम दुनिया में रास्ते किसी एक के लिए नहीं बनते—रास्ते सभी के लिए बनते हैं। और जब रास्ता सभी के लिए बनता है, तब ही कोई समाज अपनी सभ्यता साबित करता है। शायद आने वाले वर्षों में तीन दिसंबर की जरूरत ही खत्म हो जाए। शायद वह दिन आए जब किसी को यह याद दिलाने की जरूरत न पड़े कि एक पूरा समुदाय इस देश, इस समाज, इस दुनिया का बराबर हिस्सा है। जब स्कूलों, दफ्तरों, बाजारों और हर सपना में हर व्यक्ति समान रूप से मौजूद हो—न किसी विशेष उपाधि के साथ, न किसी लेबल के साथ, न किसी अलग पहचान के साथ। बस इंसान। पूरा। स्वतंत्र। अजेय।

प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

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