भूपेन्द्र भारतीय
मंगल के साथ पीछले दिनों बड़ा धोखा हो गया। धोखा क्या कहूँ, मंगल की भाषा में यह एक तरह से सेवा का शिकार होने जैसा है। या कहे;- ये वहीं धोखा था जो एक आम राजनीतिक कार्यकर्ता के साथ चुनाव के बाद जीतने वाला दल करता है। वैसे ही जैसे बड़े बाबू चपरासी व कार्यालय के अन्य छोटे बाबूओं के साथ करते हैं, रिश्वत में आया अधिकांश माल बड़े बाबू निगल लेते है और अन्य के पास सिर्फ पतली तरी बचती है। “सिर्फ दाल का पानी ही पानी, उस तपेली में चम्मच हिलाते रहो।” ऐसा ही पीछले दिनों मंगल के साथ हुआ। वह पीछले दिनों अपनी जाति के प्रतिभा सम्मान आयोजन में गया था। जिसे बड़ी होशियारी से समाजवादी ढंग में सामाजिक आयोजन कहा गया था। पहले आयोजन में सामाजिक नेताओं के द्वारा भाषणबाजी, प्रतिभाओं को जैसे जबरन पकड़कर सम्मानित किया गया हो। उनके उज्जवल भविष्य के लिए जातिगत नेताओं द्वारा दो शब्द कहे गए। वे दो शब्द स्वयं की प्रशंसा में ज्यादा थे।
मंगल इस आयोजन में कार्यकर्ता की भूमिका में था। उसे किसी ने बोला नहीं था। ना ही चुनावी उम्मीदवारों की सूची जैसी किसी सूची में उसका नाम था और ना ही इसके लिए उसने कोई याचिका लगाई थी। वह भावुकता में चला गया। उसे सेवा करने का भी कुछ मन हुआ था। जैसे आजकल सब तरफ सेवा के लिए लोग जाते हैं। नेतागण देश की सेवा के लिए पागल हो रहे हैं। युवा अलग तरह से सेवा करना चाहता है। जैसे राष्ट्रीय स्तर पर इस देश का युवा देश सेवा के लिए गलाकाट प्रतियोगी परीक्षा पास करता है और फिर कुछ ही वर्षों में सेवा के नाम पर भ्रष्टाचार के मामलों से देश के अखबारों में बड़ी बड़ी हेडलाइन बनाता है। कभी कभी इन प्रतियोगिताओं के दबाव में आकर आत्महत्या करके देश सेवा करता है। वहीं संसदीय व विधायी समितियों में जनप्रतिनिधि देश सेवा व नवाचार के नाम पर चार पांच देशों की यात्रा करते है और जनप्रतिनिधि होने का कर्त्तव्य निभाते हैं। वैसे ही मंगल भी उस आयोजन में सेवा के लिए चला गया। जैसे युवा शुरू शुरू में राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों में जाता है और भीड़ का शिकार हो या तो भावुकता में प्राण गंवा देता है या फिर पुलिस थाने के रजिस्टर में अपना नाम दर्ज कराकर राजनीति का स्थाई खिलाड़ी बन जाता है।
मंगल को भी लगा कि बड़े आयोजन में उसके हाथ कुछ तो आऐगा। उसके जीवन में भी कुछ मंगल हो जाऐगा। जैसे कर्मठ कार्यकर्ताओं की सेवा से मंत्रीजी जनसेवा करते हैं। उसे भी नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में आने का रोग चढ़ा । उसे भी लगा समाज सेवा करने पर गाढ़ी तरी व साग दोनों का आनंद मिलेगा। वह भी अब नया कुर्ता-पयजामा पहनकर समाज सेवा की तपेली में अपनी सेवा रूपी चम्मच हिलाने गया था। उसने पढ़ा था इस सेवा के लिए आजादी से पूर्व व उसके बाद बड़े बड़े लोगों ने अपनी जमी जमाई वकालत, व्यापार, जागीरदारी आदि छोड़कर इस सेवा में कूद पड़े थे। तो भला मंगल अपने समाज के आयोजन में टाटपट्टी बिछाना से लेकर भोजन परोसगारी क्यों नहीं कर सकता ? आगे मंच व माईक भी मिलेगा। पूर्व में तो उसके जैसे कार्यकर्ताओं द्वारा समाजसेवा के लिए प्राण तक न्यौछावर कर दिये। क्या उन्होंने कम तरी व साग का आनंद उठाया। कैसे मालामाल हो गए। जैसे वह इस सेवा के लिए ही बना हो।
मंगल की माने तो उस आयोजन में वह समाज सेवा के भाव से गया था। लेकिन उसका भाव वहीं था जो अधिकांश सामाजिक संगठनों का रहता है। समाज में दबे कुचले लोगों की सेवा के नाम पर सरकार से अनुदान की तरी व साग दोनों का आनंद उठाते हैं। मंगल सबको साग व तरी परोसता है। उसे लगा यह सब मुझे भी मिलेगा। उसे भी दूसरे कार्यकर्ता तरी वाली साग परोसने आऐंगे। ‛जैसे मतदाता पांच साल में एक बार मतदान करने जाता है तो उसे लगता है कि देश अब उसके मत से चलेगा। लेकिन चुनाव होते ही परिणाम देखकर कुछ दिनों में उसका मत बदल जाता है। ओर देश की राजनीति अपने मद में चलने लगती है। सत्ता के हाथी की चाल में उसकी आवाज दब जाती है। कहाँ तो वह दबे-कुचलों की आवाज उठाने आया था और चुनाव बाद वह स्वयं दब-कुचला सा हो जाता है।’
धीरे धीरे वह तरी व साग की सच्चाई जानने लगता है। कौन तरी खा रहा है और किसके हिस्से साग आती हैं और अंत में बढ़ी संख्या को सिर्फ साग के पतले पानी ही से संतुष्ट होना पड़ता है। जैसे उस दिन मंगल ने बहुत मेहनत की थी। भाग भाग कर सबको भोजन कराया। आयोजन को सफल बनाने में निस्वार्थ भाव से सेवा की। जैसे चुनावों के समय कुछ कार्यकर्ता निस्वार्थ भाव से दल की सेवा करते हैं और चुनाव जीतने के बाद मेवा किसी ओर के हाथ लगता है। उसी तरह आखिर में मंगल जैसों की थाली में सिर्फ पतली तरी नुमा पानी रह जाती है।

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