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हिंदी में डॉक्टर की पर्ची... शुरुआती चुनौतियों के बावजूद आम मरीजों के लिए लाभDoctor's prescription in Hindi... Benefits for common patients despite initial challenges

प्रणव बजाज

हिंदी समेत भारतीय भाषाओं में डॉक्टर बोल-बतिया सकते हैं, मरीजों की तकलीफ की जानकारी भी ले सकते हैं, लेकिन उनके सामने जब इलाज, टेस्ट और दवा सुझाने की बारी आती है, तो अंदर की अंग्रेजी स्वाभाविक रूप से उभर आती है। अंग्रेजी भी वैसी नहीं, अक्षर घसेटू। कुछ डॉक्टरों की पर्चियां तो ऐसी होती हैं, जिन्हें अनुभवी फार्मासिस्ट और पैथोलॉजिस्ट भी पढ़ पाने में नाकाम रहता है। लेकिन यह स्थिति बदलने जा रही है। 


एम्स ने इस दिशा में कदम उठाया है। उसने डॉक्टरों से हिंदी में भी पर्चा लिखने को कहा है। वह मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में कराने की ओर भी आगे बढ़ रहा है। यह पहल स्वास्थ्य मंत्रालय के एक आदेश का नतीजा है, जिसमें चिकित्सा संस्थानों को धीरे-धीरे हिंदी में कामकाज शुरू करने का निर्देश दिया गया है। आदेश के बाद एम्स के हिंदी अनुभाग ने अपने सभी विभागों के कामकाज में हिंदी के उपयोग की शुरुआत करने को लेकर चिट्ठी लिखी है।

 इसमें डॉक्टरों के हिंदी में पर्चे लिखने के साथ-साथ अंदरूनी फाइलों की नोटिंग, आपसी पत्राचार और दस्तावेजों में भी हिंदी को बढ़ाने की बात कही गई है। अंग्रेजी माध्यम के जरिये औपचारिक पढ़ाई की शुरुआत 1860 में हुई, जिसका मकसद भारत में अंग्रेजी जानने वाले बाबुओं को तैयार करना और देसी ‘मानस’ को अंग्रेजी मानस में परिवर्तित करना था। इसका असर आज भी न्याय, प्रशासन, इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसे क्षेत्रों में दिखता है। नीति-निर्माण में अब भी उसी नौकरशाही का दखल ज्यादा है, जो अंग्रेजी माध्यम में पढ़ी-लिखी है। हालांकि, प्रशासन आदि में धीरे-धीरे ही सही, हिंदी समेत भारतीय भाषाओं का दखल बढ़ रहा है, लेकिन न्यायपालिका, मेडिकल व इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में अब भी इसे लेकर हिचक दिखती है।

 अंग्रेजी के वर्चस्व को देखते हुए अरसे से मांग रही है कि न्याय पाने वाले को पता होना चाहिए कि न्याय हो भी रहा है या नहीं, न्यायिक कार्यवाही सही तरीके से चल रही है या नहीं। इसी तरह चिकित्सा क्षेत्र में भी मरीज को यह जानने का अधिकार है कि उसका किस रोग का इलाज हो रहा है, उसका कौन-सा टेस्ट कराया जा रहा है और उसे कौन-सी दवा दी जा रही है? भले ही उच्च न्यायपालिका में न्याय और न्यायिक कार्यवाही में अब भी भारतीय भाषाओं एवं हिंदी की भूमिका को सहज स्वीकार्यता नहीं मिल पाई हो, लेकिन वह मानने लगी है कि मरीजों को उसके इलाज आदि को जानने का हक संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिला हुआ है। बीते तीस अगस्त को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने सरकारी व निजी अस्पतालों, दोनों के डॉक्टरों द्वारा लिखे पर्चे को साफ और स्पष्ट होने का निर्देश दिया था। 

अदालत ने कहा था कि डॉक्टरी पर्चे कैपिटल अक्षरों में, टाइप या डिजिटल रूप में होने चाहिए। साथ ही, राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग यानी एनएमसी मेडिकल के छात्रों को साफ लिखावट अपनाने के लिए प्रेरित करे। इस आदेश के संदर्भ में कह सकते हैं कि एम्स की यह पहल मरीजों के हक की दिशा में बड़ा कदम है। इससे भारतीय भाषाओं को प्रशासन, न्याय और इलाज का माध्यम बनाने की कोशिशें परवान चढ़ेंगी और उसे मजबूती भी मिलेगी।कई राज्यों में बारहवीं तक पढ़ाई का माध्यम हिंदी या भारतीय भाषाएं ही हैं। मेडिकल की पढ़ाई के लिए चुने जाने के बाद इन माध्यमों के मेधावी छात्रों का पल्ला अचानक अंग्रेजी माध्यम से पड़ जाता है। इस दबाव में कई प्रतिभाएं असमय ही मौत का रास्ता अख्तियार करती रही हैं। चूंकि, मौजूदा केंद्र सरकार और उसकी वैचारिकी भारतीय भाषाओं की पक्षधर है। वैसे समाजवादी आंदोलन और उसके प्रेरणा पुरुष डॉ. राममनोहर लोहिया भी हिंदी के पक्षधर रहे हैं। अतीत में केंद्र और कई राज्यों में समाजवादी सरकारें रहीं, लेकिन उन्होंने कभी इस दिशा में गंभीर प्रयास नहीं किया।  मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में कराने की चर्चा जब से शुरू हुई है, मेडिकल तबका ही उसका सबसे बड़ा विरोधी रहा है। ऐसे में, मध्य प्रदेश सरकार अग्रणी बनकर 16 अक्तूबर, 2022 को मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में शुरू करा दी।

 नई एनईपी भी छात्रों को उनकी मातृभाषा में चिकित्सा शिक्षा दिलाने की वकालत करती है। अब छत्तीसगढ़ व बिहार जैसे कुछ राज्यों ने भी हिंदी में मेडिकल शिक्षा शुरू करने की घोषणा की है। हिंदी माध्यम में इंजीनियरिंग की पढ़ाई सितंबर 2021 में आईआईटी, बीएचयू और नवंबर 2022 में यूपी के एकेटीयू विश्वविद्यालय में भी शुरू हो चुकी है। निश्चित तौर पर यह कदम ग्रामीण पृष्ठभूमि व भारतीय भाषाओं के माध्यम के छात्रों के लिए फायदेमंद होगा। हिंदी में इलाज व टेस्ट के लिए लिखे जाने वाले पर्चे भी आम मरीजों के लिए लाभप्रद होंगे। स्वास्थ्य मंत्रालय के इस आदेश को लागू होने में शुरुआती दिक्कतें तय हैं। इसका कारण करीब साठ वर्षों की अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा से बना मानस है। फिर भी, यह आदेश इस जड़ता को तोड़ेगा। निश्चित रूप से इससे भारतीय भाषाओं का मान तो बढ़ेगा ही, मरीजों के इलाज में पारदर्शिता भी बढ़ेगी । 

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