प्रणव बजाज
उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू कश्मीर में आई भीषण आपदा ने हिमालय और उसकी नदियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है, जिसके कारण प्राकृतिक और मानवीय आपदा, दोनों चर्चा के विषय बन गए हैं। उत्तराखंड में धराली, थराली, ऋषि गंगा, छेना गाड़, नंद नगर, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग और कुमाऊं मंडल में 2023 से लगातार आ रही आपदाओं ने भविष्य में सचेत रहने की चेतावनी दी है। इसके बावजूद हिमालयी नदियों के किनारे और ग्लेशियरों, झीलों के मुहाने पर लोग बड़ी मात्रा में जमा हो रहे हैं।
वहां पर बन रही बहुमंजिली इमारतें, पर्यटन, चौड़ी सड़कें और उसके निर्माण के लिए वनों का कटान आदि कभी भी भीषण तबाही के कारण बन सकते हैं। हिमालय क्षेत्र में अधिकांश आपदा का कारण चौड़ी सड़कें हैं। यहां के ऊंचे, सीधे खड़े पहाड़ों से गुजरने वाली सड़क अधिकतम 5.5-6 मीटर से अधिक नहीं हो सकती है। जहां इतनी कम चौड़ाई की सड़कें हैं, वहां भूस्खलन का खतरा न्यूनतम हुआ है।वनों में आग के कारण वनस्पतियां जलने के बाद मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और वहां वनों का कटान भी होता है, जिसके कारण हिमाचल में बाढ़ के दौरान बड़ी मात्रा में नदियों में लकड़ी बहकर आई। यही स्थिति उत्तराखंड की भागीरथी, अलकनंदा और अन्य सहायक नदियों में भी देखी गई है। देहरादून और हरिद्वार जैसे मैदानी क्षेत्र की नदियों में आए जल प्रलय से जो भारी नुकसान हुआ है, वह नदियों के किनारे बड़ी मात्रा में अतिक्रमण व खनन का परिणाम है।इस भीषण आपदा के बाद बीते महीने देहरादून में हिमालयी आपदा: 'गंगा और यमुना का विकास या विनाश' विषय पर एक राष्ट्रीय संवाद का आयोजन किया गया, जिसमें मांग की गई कि आपदा से सबक लेने के बाद यमुनोत्री और गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर भविष्य में सड़क सुधारीकरण से निकलने वाले मलबे को यमुना और भागीरथी में न डाला जाए। डंपिंग जोन बनाकर मलबा का निस्तारण हो और इसके ऊपर पौधे लगाए जाएं। सड़क की चौड़ाई 5.5 मीटर से अधिकतम छह मीटर तक रखी जाए।गंगोत्री राजमार्ग पर झाला से भैरों घाटी तक देवदार के हरे पेड़ों का कटान रोका जाए।
भागीरथी इको सेंसेटिव जोन-2012 की शर्तें लागू हों। नदियों के उद्गम से 150 किलोमीटर आगे तक बड़े निर्माण कार्य इसलिए नहीं होने चाहिए कि यहां पर बाढ़, भूकंप और भूस्खलन की संभावनाएं बहुत तेजी से बढ़ रही हैं। अंधाधुंध पर्यटन के नाम पर बहुमंजली इमारतें, निर्माण कार्यों में प्रयोग की गई जेसीबी और पोकलैंड मशीनों ने हिमालय की मिट्टी, जंगल जैसे बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाया है। हिमालय की धरती जो भूकंप से कांप रही है, उसे और अधिक संवेदनशील बनाया है।हिमालय में विकास कार्य के लिए पृथक मॉडल की आवश्यकता है यानी ‘एक हिमालय नीति’ बननी चाहिए। तीर्थ यात्री व्यक्तिगत वाहन की जगह सरकारी वाहन का उपयोग करें। हवाई उड़ानों को नियंत्रित किया जाए। इससे बढ़ते ब्लैक कार्बन के खतरे को कम किया जा सकता है। नदियों, गाड़-गदेरों के मुहाने पर बन रही बस्तियों के निर्माण पर रोक लगे। सुरंग आधारित परियोजनाओं को बहुत सीमित किया जाए, क्योंकि सुरंग के ऊपर के गांवों के मकानों पर दरारें पड़ रही हैं।
जल स्रोत सूख रहे हैं। ऋषिकेश-कर्ण प्रयाग रेल लाइन की सुरंग के ऊपर बसे हुए लगभग 30 गांव के मकानों पर दरारें पड़ी हुई हैं, क्योंकि वहां भारी विस्फोटों करके सुरंग का निर्माण किया जा रहा है। इसने हिमालय क्षेत्र में एक कृत्रिम भूकंप जैसी स्थिति बना रखी है।उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थित बुग्यालों में मानवीय आवाजाही को नियंत्रित किया जाए। अगस्त 2025 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आपदा प्रभावित हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर के बारे में दिए गए आदेशों का शब्दशः पालन हो, ताकि हिमालय के लोगों को सुरक्षा मिल सके। जरूरी है कि नदियों, ग्लेशियर के बारे में किए गए अध्ययन रिपोर्ट पर अमल हो। आपदा प्रभावित क्षेत्र में तकनीकी एवं वैज्ञानिक संस्थानों से अध्ययन करवाया जाए और उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक हो।आपदा में क्षतिग्रस्त भवन और मृतकों के आश्रितों के लिए मुआवजा राशि बहुत ही कम है, जिसे 10-10 लाख रुपये तक बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही कृषि योग्य जमीन को होने वाले नुकसान के मुआवजे का भुगतान उत्तराखंड जैसे राज्य में, जहां छोटे और सीमांत किसान हैं, हेक्टेयर के रूप में किया जाता है, जो मात्र 200 से 5000 रुपये तक ही मिल पाता है। इसलिए आपदा के कारण लोगों के जीविका के साधन नष्ट होने पर उन्हें प्रति नाली भूमि दर निर्धारित करके पर्याप्त राशि मिलनी चाहिए।

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