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चोरों के हाथ नहीं काँपते — और प्रधानमंत्री के काँपते हाथों का अर्थThieves' hands don't tremble—and the meaning of the Prime Minister's trembling hands

 

अजय कुमार बियानी

देश के इतिहास में हाथ हमेशा चर्चा का विषय रहे हैं। कुछ हाथ इतिहास बनाते हैं, कुछ हाथ इतिहास बिगाड़ते हैं, और कुछ हाथ इतिहास को बार-बार उसी मोड़ पर ले जाकर छोड़ देते हैं जहाँ से जनता को फिर से अपनी यात्रा शुरू करनी पड़ती है।


लेकिन हाथों की इस पूरी कथा में एक विशेष प्रकार के हाथ हैं—जो कभी काँपते नहीं।

चोरों के हाथ नहीं काँपते।

यह अजीब है कि जब वे आधी रात को किसी के घर की खिड़की तोड़कर भीतर घुसते हैं, उन्हें न कम्पन होता है, न अपराधबोध। उनका साहस जितना अंधेरा होता है, उनके हाथ उतने ही स्थिर रहते हैं।

डकैतों के हाथ नहीं काँपते।

जंगलों में बैठकर आतंक बरसाने वाले इन हाथों में न संवेदना होती है, न पश्चाताप। वे जितने खुरदरे होते हैं, उतने ही अडिग।

बलात्कारियों के हाथ नहीं काँपते।

समाज का यह सबसे घृणित वर्ग—जिसे देख देश शर्म से सिर झुका ले—उनके हाथों में कम्पन नाम की कोई चीज़ नहीं रहती। शायद इसलिए कि संवेदनाएँ पहले ही मर चुकी होती हैं।

धन-पशुओं के हाथ नहीं काँपते।

जो धन को मानवता से बड़ा मान लेते हैं, जो नोटों की गिनती में अपने विवेक की कीमत भूल जाते हैं—उनके हाथ भी कभी काँपते नहीं। वे इतने अभ्यासरत हो चुके होते हैं कि रिश्वत की गड्डी पकड़ते समय भी उँगलियाँ बिल्कुल स्थिर रहती हैं।

पर इसी देश में एक जोड़ी हाथ ऐसे भी हैं, जिन्हें काँपते हुए देखकर मेरे भीतर आश्वस्ति और सम्मान दोनों की लहर उठी—मेरे प्रधानमंत्री के हाथ।

वैसे तो राजनीति में कोई दृश्य स्थायी नहीं होता, पर कुछ क्षण इतिहास में उत्कीर्ण हो जाते हैं। प्रधानमंत्री के काँपते हाथ मुझे इसलिए अच्छे लगे क्योंकि वे हाथ हमारे जनमत, हमारी आशाओं और हमारे भरोसे का लौह-भार उठाए हैं। जिन्हें जनता ने अपने भविष्य की चाबी सौंप रखी हो, उनके हाथों में थोड़ा काँपना स्वाभाविक भी है और सुन्दर भी।

काँपना कमजोरी नहीं—काँपना संवेदनशीलता है।

काँपना यह प्रमाण है कि हाथ सत्ता से पहले जनता को महसूस कर रहे हैं।

काश, यह काँपना पहले भी होता।

काश, नेहरू जी के हाथ काँपते जब उन्होंने चीन से मित्रता का हाथ मिलाया था—वह हाथ स्थिर था, और इतिहास अस्थिर हो गया।

इंदिरा जी ने तिरानबे हज़ार पाकिस्तानी सैनिक लौटा दिए, पर अपने छप्पन शूरवीरों को न बचा सकीं—तब भी हाथ नहीं काँपे।

राजीव जी ने लंका के जंगलों में भारतीय जवान उतार दिए, तब भी हाथों में न कम्पन था, न हिचक।t

वाजपेयी जी के हाथ अवश्य काँपे—जब पोखरण की धरती थरथराई थी, जब कारगिल के शहीद लौटे थे—उन हाथों में कम्पन था, और वही कम्पन राष्ट्र की संवेदना बन गया।

मनमोहन जी… उनके हाथ काँपे या नहीं, यह पता ही न चला। दस साल वे हाथ ढूँढ़ते ही बीते।

और आज—मोदी जी के काँपते हाथ।

उन काँपते हाथों में जैसे एक पिता अपने बालक को पहला निवाला खिलाता है, वैसी अपनत्व की झलक मिली। लगा जैसे भारत नाम का युवा देश अपने अनुभवी अभिभावक के सहारे खड़ा हो रहा हो।

किसी प्रधानमंत्री का हाथ काँपे, इसका अर्थ यह नहीं कि वह कमजोर है। इसका अर्थ यह है कि वह इंसान है।

जिस दिन राजनीतिक व्यक्तित्व संवेदना खो देता है, उसी दिन सत्ता का रास्ता क्रूरता की तरफ मुड़ जाता है।

भगवान करे—जो भी प्रधानमंत्री बने—उसके हाथ काँपते रहें।

क्योंकि काँपते हाथों में ही छिपी होती है वह जिम्मेदारी, जो बिना बोले भी करोड़ों नागरिकों की नब्ज़ सुन लेती है।

कवियों के हाथ काँपें—तभी वे जनता के दर्द की लकीरें काग़ज़ पर उतार पाते हैं।

चित्रकारों के हाथ काँपें—तभी रंगों में जीवन का कंपन दिखाई देता है।

वाद्यकारों के हाथ काँपें—तभी सुरों में आत्मा उतरती है।

और प्रधानमंत्री के हाथ काँपें—तभी नीतियों में मनुष्य की गर्माहट बनी रहती है।

काँपते हाथ बीमारी नहीं, ताक़त हैं।

वे बताते हैं कि भीतर अभी धड़कन बाकी है, चेतना बाकी है, संवेदना बाकी है।

आज जब मोदी जी के हाथ काँपते दिखे, तो लगा हमारे एक-एक वोट की कीमत वसूल हो गई। यह वही दृश्य था जिसने कई बरसों से दबा हुआ विश्वास फिर जगा दिया। लगा कि इन काँपते हाथों में भारत का भविष्य अब भी सुरक्षित है।

और यदि कभी ऐसा दिन आए कि प्रधानमंत्री के हाथ न काँपे—तो हे ईश्वर, हमें फिर एक कविता लिखने का साहस देना।

और हमारी आवाज़ में भी वही अटूट जनशक्ति भर देना, जिसके साथ दिनकर लिख गए थे—

“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।”

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