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ग्रीन हाइड्रोजन: उम्मीद की किरण या महंगा भ्रम? Green hydrogen: a ray of hope or a costly illusion?


विभास क्षिरसागर

दुनिया जिस तीव्रता से जलवायु संकट की ओर बढ़ रही है, उसके बीच 'ग्रीन हाइड्रोजन' को एक ऐसे ईंधन के रूप में देखा गया, जो भविष्य की ऊर्जा-व्यवस्था को नया स्वरूप दे सकता है—जो न तो प्रदूषण फैलाता है, न ही सीमित भंडारों पर निर्भर है। लेकिन जैसे-जैसे योजनाएं धरातल पर आईं, यह सपना कठिन और महंगा साबित होने लगा। जो हाइड्रोजन पर्यावरण बचाने का प्रतीक मानी जा रही थी, वही अब तकनीकी जटिलताओं, भारी लागत और अनिश्चित नीतियों के बोझ तले हांफती दिख रही है। ग्रीन हाइड्रोजन को लेकर उत्साह की लहर अब थोड़ी ठंडी पड़ गई है। कई दिग्गज कंपनियां अपनी प्रस्तावित परियोजनाओं से पीछे हटने लगी हैं

रायटर्स की ताजा रिपोर्ट बताती है कि ब्रिटिश पेट्रोलियम ने ऑस्ट्रेलिया की 55 अरब डॉलर की विशाल परियोजना को रोक दिया, फोर्टेस्क्यू मेटल्स ग्रुप ने अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में अपने प्रयोग स्थगित कर दिए, और शेल जैसी ऊर्जा कंपनियां निवेश घटाने लगीं। इसका सबसे बड़ा कारण यही बताया गया कि उत्पादन लागत अब भी बाजार के अनुकूल नहीं है। इससे न केवल 2030 के वैश्विक उत्सर्जन लक्ष्यों पर असर पड़ेगा, बल्कि ऊर्जा संक्रमण की गति भी धीमी पड़ जाएगी। ग्रीन हाइड्रोजन का सबसे बड़ा अवरोध इसकी लागत है। एक किलो ग्रीन हाइड्रोजन तैयार करने की कीमत 3.5 से छह डॉलर के बीच आती है।ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन की प्रक्रिया बेहद जटिल है। इसमें पानी को इलेक्ट्रोलाइसिस द्वारा हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विभाजित किया जाता है, और इसके लिए भारी मात्रा में बिजली चाहिए। यदि यह बिजली सौर या पवन ऊर्जा स्रोतों से न मिले, तो उद्देश्य ही अधूरा रह जाता है। फिर प्रत्येक किलो हाइड्रोजन के उत्पादन के लिए लगभग दस से तीस लीटर तक स्वच्छ जल चाहिए, जो एक नई चुनौती है। तैयार हाइड्रोजन का भंडारण और परिवहन भी आसान नहीं है, क्योंकि यह अत्यंत हल्की और ज्वलनशील गैस है, जिसे ऊंचे दबाव या अत्यधिक ठंडे तापमान पर रखना पड़ता है। इन सबके बावजूद ग्रीन हाइड्रोजन का भविष्य पूरी तरह अंधकारमय नहीं है। कई देश अब भी इसे ऊर्जा-क्रांति की दिशा में पहला ठोस कदम मान रहे हैं। ग्लोबल न्यूज वायर की रिपोर्ट बताती है कि 2030 तक उत्पादन लागत में 60–80 फीसदी तक की कमी संभव है। यदि यह घटकर 1–2 डॉलर प्रति किलोग्राम तक पहुंचती है, तो यह जीवाश्म ईंधनों से प्रतिस्पर्धा कर सकेगी।चुनौतियों के बावजूद भारत के लिए यह अवसर भी है। देश अपनी कुल ऊर्जा जरूरत का लगभग एक-चौथाई हिस्सा आयातित पेट्रोलियम उत्पादों से पूरा करता है। यदि ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन बढ़े, तो इससे न केवल ऊर्जा-आयात पर निर्भरता घटेगी, बल्कि औद्योगिक क्षेत्र को भी नई गति मिलेगी। इसलिए केंद्र सरकार ने 2023 में ‘राष्ट्रीय ग्रीन हाइड्रोजन मिशन’ की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य 2030 तक पचास लाख टन वार्षिक उत्पादन हासिल करना और भारत को इस क्षेत्र का वैश्विक केंद्र बनाना है।इस दिशा में देश में शुरुआती प्रयोग पहले ही शुरू हो चुके हैं। लेह में एनटीपीसी ने विश्व की सबसे ऊंचाई पर हाइड्रोजन बसें चलाकर इतिहास रचा है। दिल्ली और फरीदाबाद में हाइड्रोजन बसों का ट्रायल सफल रहा है। चेन्नई की इंटीग्रल कोच फैक्ट्री में बनी हाइड्रोजन ट्रेन ने अपनी पहली परीक्षण यात्रा पूरी की है। इंडियन ऑयल और टोयोटा की ‘मिराई’ कार सड़कों पर उतर चुकी है। ये पहलें भले सीमित स्तर पर हों, पर ये भारत की ऊर्जा नीति में बदलाव का संकेत देती हैं। निजी क्षेत्र की कंपनियों ने अरबों रुपये के निवेश की घोषणा की है। आंध्र प्रदेश की 35 हजार करोड़ रुपये की परियोजना देश की सबसे बड़ी ग्रीन हाइड्रोजन इकाई होगी, जहां पूरी प्रक्रिया सौर और पवन ऊर्जा से संचालित होगी।

 इसका उद्देश्य केवल घरेलू मांग पूरी करना नहीं, बल्कि वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा के लिए भारत को तैयार करना है।एक ओर जहां विकसित देश निवेश घटा रहे हैं, दूसरी ओर विकासशील देश (विशेषकर भारत) इसे अवसर के रूप में देख रहे हैं। फिर भी, कुछ बुनियादी सावधानियां बरतना अनिवार्य है। जल उपयोग पर सख्त निगरानी होनी चाहिए, ताकि हाइड्रोजन उत्पादन नए पर्यावरण संकट का कारण न बने। सुरक्षा मानकों का पालन सर्वोपरि हो, क्योंकि दुर्घटना इसकी विश्वसनीयता को प्रभावित कर सकती है। साथ ही, इलेक्ट्रोलाइजर जैसे उपकरणों का स्वदेशी निर्माण बढ़ाया जाए, ताकि तकनीकी निर्भरता कम हो और लागत नियंत्रित रहे।ग्रीन हाइड्रोजन का भविष्य केवल आर्थिक गणनाओं पर नहीं, बल्कि पर्यावरणीय विवेक और तकनीकी नवाचार पर निर्भर करता है। यह दुनिया को जीवाश्म ईंधनों से दूर ले जाने की वह संभावना है, जो समय के साथ साकार हो सकती है। यह सिर्फ एक तकनीकी या औद्योगिक विकल्प नहीं, बल्कि मानवता के स्वच्छ भविष्य की अनिवार्यता है।

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