सम्पादकीय
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 (वक्फ अधिनियम) के प्रावधानों पर रोक लगाने की याचिकाओं पर बहुप्रतीक्षित अंतरिम आदेश सुनाया। इस आदेश का मूल सार संसद द्वारा पारित कानून की वैधता की मजबूत धारणा और राज्य सरकारों द्वारा बनाए जाने वाले नियमों के माध्यम से कुछ सुरक्षा उपाय लागू करने की आवश्यकता के बीच संतुलन साधने में निहित है।
राजनीतिक खींचतान और ध्रुवीकृत मतों से इतर, एक सकारात्मक बात यह रही है कि वक्फ में सुधार की आवश्यकता पर किसी ने प्रत्यक्ष रूप से सवाल नहीं उठाया। सुधारों के सबसे मुखर आलोचक भी यह स्वीकार करते हैं कि वक्फ के प्रशासन और प्रबंधन में खामियों को दूर करने की आवश्यकता है। दरअसल, वक्फ में, जो मुस्लिम पर्सनल लॉ की एक इकाई है, स्वतंत्रता के बाद सबसे अधिक बार, अर्थात 1954, 1959, 1964, 1969, 1984, 1995 और 2013 में अधिनियम और संशोधनों के माध्यम से बदलाव किए गए हैं। यहां तक कि सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006) ने भी वक्फ प्रबंधन की अक्षमताओं को रेखांकित किया था और सुधारों की सिफारिश की।इतिहास बताता है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार का क्षेत्र हमेशा से चुनौतीपूर्ण रहा है। वक्फ में सुधारों को लेकर उठे विवाद, मुस्लिम पर्सनल लॉ सुधारों के इतिहास की निरंतरता को दर्शाते हैं, और यह अतीत से कोई विचलन नहीं है। वास्तव में, भावनात्मक रूप से, वक्फ का मुद्दा शाहबानो केस में महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार या तीन तलाक जैसे मुद्दों से भी शायद अधिक संवेदनशील है, क्योंकि यह केवल किसी उप-समूह नहीं, बल्कि पूरे समुदाय से संबंधित है।इसके अतिरिक्त, राज्य द्वारा पर्सनल लॉ में कानूनी सुधार का ऐसा चुनौतीपूर्ण कार्य बेहद कम ही किया गया है, जहां भी ऐसे प्रयास सफल हुए हैं, वहां मांग स्वयं समुदाय के भीतर से उठी है, न कि बाहर से थोपी गई। वास्तव में, सांविधानिक अदालतों में भरण-पोषण और तीन तलाक से जुड़े मामलों में मुकदमेबाजी यह दर्शाती है कि मुस्लिम समुदाय के आंतरिक विवाद निवारण तंत्र अक्सर निरुत्साहपूर्ण रहे हैं। इन मामलों में प्रगतिशील उदारवादियों द्वारा समर्थित महिलाओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मांग और रूढ़िवादी धार्मिक समूह के बीच एक संघर्ष की स्थिति दिखाई देती है, जो मुस्लिम समुदाय का अभिरक्षक होने की दावेदारी करता है। इन अदालती फैसलों से यह प्रमाणित होता है कि समुदाय के अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा, हमेशा उस समुदाय के भीतर के व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करती।एक प्रमुख कारण जिसकी वजह से भारतीय मुसलमान, सुधारों को अपनाने में अनिच्छुक रहे हैं, यह है कि मुस्लिम कानूनों के सुधारात्मक पहलू को सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहार में पर्याप्त रूप से महत्व नहीं दिया गया। इस्लामी न्यायशास्त्र की शक्ति इसके ठोस सिद्धांतों में निहित है, और उनमें से एक है ‘इज्तेहाद’, जिसका अर्थ है क्रमिक विकास और तर्क। उदाहरण के लिए, कई किस्म की चोरी में इस्लामी दंड हाथ काटना है, लेकिन आज दुनिया के किसी भी मुस्लिम देश में ऐसा दंड नहीं दिया जाता। क्या इसका मतलब यह है कि इन देशों ने कुरान को त्याग दिया है? नहीं, उन्होंने ‘इज्तेहाद’ का प्रयोग किया, ताकि यदि चोरी जैसे अपराध को अन्य तरीके की सजा या दंड से रोका जा सकता है, तो वही तरीके अपनाए जाएं।मुस्लिम पर्सनल लॉ सुधारों की इसी जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट को इस सांविधानिक चुनौती की समीक्षा करनी चाहिए।
आशा की जानी चाहिए कि अंतिम निर्णय विवेक, वस्तुनिष्ठता और अनुभवात्मक ज्ञान पर आधारित होगा। वक्फ के प्रशासन में राज्य की भागीदारी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। कई मुस्लिम देशों-सऊदी अरब, मिस्र, कुवैत, ओमान, बांग्लादेश और तुर्किये में वक्फ संपत्तियों का नियंत्रण आम तौर पर सरकार द्वारा गठित संस्थाओं के अधीन होता है। साथ ही राज्य और प्रशासनिक प्राधिकरणों की यह जिम्मेदारी भी है कि वे सुधारों को इस तरह लागू करें कि आम मुसलमानों की आशंकाएं दूर हो सकें।प्रस्तावित सुधारों में वंचित और कम प्रतिनिधित्व वाले मुस्लिम समूहों, जैसे कि महिलाओं और पसमांदा लोगों को भागीदारी का अवसर देने की बात भी शामिल है। विधेयक पारित होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि यह हमारी सामाजिक-आर्थिक न्याय, पारदर्शिता और समावेशी विकास की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। उन्होंने कहा कि इससे विशेष रूप से वे लोग लाभान्वित होंगे, जो लंबे समय से हाशिये पर रहे और जिनकी आवाज व अवसर, दोनों ही दबे रहे। इस बात पर विशेष रूप से नजर रखी जाएगी कि यह वक्फ सुधार क्या मुस्लिम समाज के भीतर सामाजिक और लैंगिक पुनर्संरचना को प्रोत्साहित कर पाएंगे, और क्या ये सुधार इन मुस्लिम समूहों की भारतीय जनता पार्टी के साथ राजनीतिक संपर्क को भी नया रूप देंगे।

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