विभीषण का संताप ......Vibhishana's anger...
∆ रवि उपाध्याय
प्रति वर्ष की तरह आज फिर विभीषण गहरे संताप में था। आज दशहरा था और आज ही के दिन भगवान श्रीराम ने उसके ज्येष्ठ भ्राता एवं लंकाधिपति दशानन का वध किया था। विभीषण इस बात को लेकर आत्मग्लानि से दुःखी था क्योंकि अपने ज्येष्ठ भ्राता की मृत्यु में उसका भी सहयोग दिया था। उसी ने अयोध्या के भावी नरेश को बताया कि वह दशानन से तभी जीत सकेंगे और उनका तभी वध कर सकेंगे जब वह श्रीराम अपने बाण से दशानन की नाभि पर तीव्र प्रहार करेंगे। हुआ भी वही। श्रीराम ने अपने धनुष पर बाण रख कर धनुष की प्रत्यंचा को अपने दाहिने कान तक खींच कर लक्ष्य साधा और प्रत्यंचा को छोड़ दिया। बाण, ध्वनि से भी तेज पवन गति से वायु को चीरते हुए दशानन की नाभि में जा समाया और वह पलक झपकते हुए धराशाई हो गए।
विभीषण की आंखों में सदियों के बाद भी वह दृश्य सजीव हो उठता है। जब ज्येष्ठ भ्राता धरती पर गिरे तो धरती कांप उठी थी। आकाश में बिजली सी कौंध गईं थी। तभी विभीषण की आंखों से आंसू की असंख्य बूंदें धरती पर टपक गईं थीं। पीड़ा से उसका हृदय चीत्कार उठा था। सीना फटा जा रहा था । हे प्रभु मैने यह क्या कर दिया ? मैने क्यों कर राम को अपने भाई की मृत्यु का रहस्य बताया। वह आत्मग्लानि से जार जार हो कर व्यथित हृदय से स्वयं को घनघोर पाप का भागी मान रहा था । विभीषण चिंतन कर रहा था कि क्या कोई अनुज भ्राता अपने ज्येष्ठ भ्राता द्वारा उसके साथ किए अपमान का प्रतिशोध ऐसे उसकी मौत से ले सकता है।
आत्मग्लानि में डूबा विभीषण अपने भ्राता की निष्चेष्ट देह से लिपट कर फूट पड़ा और बोला,भैया मुझे क्षमा करना में प्रतिशोध में अंधा हो गया था। मैं अत्यंत पातक और नाराधाम हूं। भैया मुझे माफ कर देना। तभी दशानन विभीषण के सिर पर हाथ फेरते हुए बोला अरे पगले चुप हो जा। यह तो होना ही था। तुझे भ्रम था मैने पदाघात कर तेरा अपमान किया और रामजी को यह भ्रम था की मैने सीता माता का अपमान किया। हनुमान को भी यही भ्रम रहा कि मैने सीता माता को प्रताड़ित किया। जबकि मैंने अपनी पुत्री ताड़का के नायकत्व में मेरे महल की श्रेष्ठतम महिला प्रहरियों की सुरक्षा में मेरी प्रियअशोक वाटिका के सुरम्य वातावरण में रखा हुआ था, जहां मैं भी नहीं जाता था, पर विभीषण होनी को कौन टाल सका है। होनी तो हो कर रहे अनहोनी न होए।
विभीषण एक बात मन में रख लेना की भ्रम पालने से सदैव अनर्थ ही होते हैं। प्रत्येक परिस्थित में सोच विचार कर धैर्य से निर्णय लेना चाहिए। पगले तू क्यों संताप करता है। तूने तो दशानन को स्वयं प्रभु श्री राम के हाथों मोक्ष दिलाने में सहायता की है। पुत्र, तूने तो मेरी नाभि में छुपी मृत्यु के राज को बता कर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की महिमा और उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा की है। यदि तुम मेरी मौत का यह रहस्य उन्हें नहीं बताते तो क्या वह अपयश के भागी नहीं होते। विभीषण पुत्र संताप न कर। तुम मेरे पुत्र मेघनाद के समान है। जा तुझे क्षमा करता हूं। परंतु इस दोष के लिए तुझे श्राप देता हूं कि तू अजर अमर रहेगा। कभी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकेगा और द्रोह को तेरे नाम से जाना पहचाना जाएगा। तू हर युग में होगा, परंतु कोई भी व्यक्ति अपनी संतान का नाम विभीषण नहीं रखेगा। तुझे घर का भेदी कहा जाएगा। तेरा यह कृत्य बिना किसी जाति, धर्म, पंथ और मजहबी भेदभाव के सभी में विद्यमान होगा। यही कारण हैं कि यह दुर्गुण मीर जाफर में भी था और जयचंद में भी।
यही कारण है कि आज सदियों बाद भी प्रत्येक अश्विन माह कृष्ण पक्ष की दसवीं तिथि को दशानन का श्री राम द्वारा हरेक वर्ष रावण, मेघनाद और कुंभ कर्ण के पुतलों का वध और दहन किया जाता है। यह दर्शकों द्वारा मनोरंजन का विषय बन गया है। वह रावण दहन की घटना को एक सबक के रुप में लें तो इस दुनिया से अवगुण दूर हो जाएं। स्थिति तो यह अवगुण यत्र तत्र सर्वत्र मौजूद है। यह अवगुण अधर्मियों के लिए मनोरंजन हो गया है। ऐसे लोगों को समाज भी गले लगाता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार विभीषण को भी श्री हनुमानजी और अश्वस्थामा की तरह अमरता का वरदान मिला हुआ है। इसलिए हम अपने देश में यदा कदा द्रोहियों, भेदियों के पकड़े जाने के मामले सामने आते जाते हैं। किस किस में रावण और विभीषण की आत्मा समायी है यह जानना मुश्किल है। इसी के चलते हमारे सामने देशद्रोहियों,समाज द्रोहियों गृह द्रोहियों की घटनाएं सामने आतीं रहतीं हैं।
आज फिर से दशहरा है, और विभीषण आज फिर अपने उस कृत्य के लिए आत्म ग्लानि से सिर झुकाए बैठ कर सिसक रहा है। उस पल को कोस रहा है जब उसने अपने ज्येष्ठ भ्राता के खिलाफ द्रोह किया था। भाभी मंदोदरी से वह उनके जीवन भर आंख नहीं मिला सका। यद्यपि मां समान भाभी मंदोदरी ने इस घटना को भाग्य रेखा मान विभीषण को क्षमा कर दिया। परंतु विभीषण सदैव अपराध बोध ग्रसित रहा।
इस बार का दशहरा भी विशेष रहा जब कई स्थानों में रावण के पुतलों ने तय कर लिया कि इस बार उसी व्यक्ति के हाथों से वध स्वीकार करेंगे जिसमे रामत्व होगा। मर्यादा पुरुषोत्तम राम से गुण होंगे। इसी के चलते उन्होंने अपात्रों के हाथों दहन होने के पहले ही वर्षों में स्वयं को गलाने का निर्णय लिया।
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