दीपावली दीपों का त्योहार है। दीपों से त्योहार मनाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है, जिसका निर्वहन हम करते हैं। तेरस से अमावस्या और बाद में देवउठनी एकादशी तक दीये लगाने का रिवाज है। कार्तिक माह में वैसे भी दीपदान का विशेष महत्व है। दीपावली पर मिट्टी के दीये प्रज्ज्वलित किए जाते हैं। गांव या नगर में मिट्टी के कार्य करने करने वाले वर्षा ऋतु के बाद से इन्हें बनाने का कार्य कर देते हैं। आजकल दीये भी मशीनों से बनाने के बाद सुखा लिए जाते हैं। मिट्टी के दीये जो एक निश्चित आकार के निर्मित होते हैं और बाजार में सरलता से उपलब्ध हो जाते हैं। वर्तमान में मिट्टी के आधुनिक, सुन्दर, छोटे और बड़े आकार के और नये कलेवर के दीये सबका ध्यान आकर्षित कर रहे हैं।
क्यों कम हुए परंपरागत दीयेपूर्व में बनने वाले मिट्टी के परंपरागत दीयों के लिए कच्चे सामान की सरलता से उपलब्धता नहीं है। वहीं मशीनों से निर्मित दीयों की फिनिशिंग अधिक अच्छी होने के कारण ग्राहकों की पहली पसंद हो गए हैं। ग्राहक भी सुंदर, फिनिश और स्टाइल के दीये पसंद करने लगे हैं, इसलिए इन दीयों की बाजार में मांग अधिक है। एक अनुमान के अनुसार नगर में करीब अस्सी लाख से एक करोड़ दीयों की खपत होती है। आधुनिक दीये गुजरात और दक्षिण के राज्यों से बुलवाए जा रहे हैं। सजावट की दुकानों पर स्टाइलिश दीये भी उपलब्ध हैं, जो करीब 25 रुपये से 80 रुपये तक के नॉवेल्टी मार्केट में मिल रहे हैं।
रुचि का अभावप्रजापत समाज में आज के युवा परंपरागत कार्य को करने में रुचि नहीं रखते हैं। समाज में समय के साथ बदलाव आया और आज की पीढ़ी शिक्षित होने से वह उच्च स्थानों पर कार्य करने लगी। परिवार के वृद्ध और कुछ लोग मिट्टी के बर्तन और सामग्री बनाने का कार्य करते हैं। जूनी इंदौर में शनि गली में रहने वाले रामकिशन प्रजापत का कहना है कि पहले की अपेक्षा परंपरागत मिट्टी के दीये कम बनाए जाने लगे हैं।
आज की पीढ़ी का पुश्तैनी कार्य में झुकाव भी कम है।मूल्य में अधिक अंतर नहींमिट्टी के दीये जो स्थानीय स्तर पर बन रहे हैं वे 20 रुपये में 10, नए स्टाइल के आधुनिक मिट्टी के दीये महूनाका, बंगाली चौराहा, बिचौली, विजय नगर के अलावा नगर में कई स्थानों पर सड़क किनारे बिकते दिख जाते हैं। वे भी 20 रुपये में 8 बिक रहे हैं। ये दीये ग्राहकों की पहली पसंद हैं। इन दीयों के भाव में अधिक अंतर भी नहीं है। परदेशीपुरा क्षेत्र के प्रजापत समाज के बुजुर्ग का कहना है समाज का पुरातन कार्य करने से आज युवा परहेज करते हैं। चाक चलाना, मिट्टी लाना और उसे गूंथना ये सब उन्हें पसंद नहीं है, इसलिए गांवों और बाजार में मशीनों से निर्मित दीये लाकर हम बेच रहे हैं। फैशन और आधुनकिता के दौर में पर्वों को भी आधुनिक बना दिया है। अब हर सामग्री नई और फैशनेबल हो यह सभी की मांग रहती है।

Post a Comment