Top News

दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, अफगान मोर्चे पर भारत की रणनीतिक चाल !The enemy's enemy is a friend, India's strategic move on the Afghan front!

 प्रणव बजाज

अफगानिस्तान एक बार फिर भू-राजनीतिक शक्तियों का अखाड़ा बनने के लिए अभिशप्त है। पाकिस्तान दो स्वामियों-अमेरिका और चीन की सेवा में लगा है। अमेरिका अफगानिस्तान में वापसी की जुगत में है, जहां चीन तेजी से पैर जमा रहा है। भारत के पास पीछे रहने की गुंजाइश नहीं है। 



चाणक्य ने कहा है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। भारत अफगानिस्तान के साथ अपने रिश्ते को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, जिसके रिश्ते पाकिस्तान से तनावपूर्ण बने हुए हैं और सीमा पर संघर्ष छिड़ा हुआ है। भारत 1999 में कश्मीरी उग्रवादियों द्वारा अपने विमान के अपहरण की अपमानजनक घटना से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है, जिसका अंत कंधार में हुआ था। भारत यह नहीं भूला है कि जब वह अफगानिस्तान में विभिन्न परियोजनाओं पर काम कर रहा था, तो उसके कर्मचारियों एवं कार्यालयों पर हमला किया गया था। उस समय तालिबान (जो अब सत्ता में हैं) दो दशकों तक पाकिस्तान के इशारे पर काम कर रहे थे।

अतीत की इन त्रासदियों एवं महिलाओं व जातीय अल्पसंख्यकों के साथ कठोर व्यवहार के बावजूद भारत तालिबान के साथ फिर से बातचीत कर रहा है। भले ही इसे रणनीतिक जरूरत के रूप में देखा जा रहा है, पर यह जोखिमों और विडंबनाओं से भरा है। तालिबानी विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की नई दिल्ली यात्रा के दौरान, भारत सरकार ने दूतावास में (जो तकनीकी रूप से भारतीय जमीन पर अफगान क्षेत्र है) एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की थी, जिससे कथित तौर पर महिला पत्रकारों को बाहर रखा गया। विपक्ष की आलोचना और सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रिया के बाद, मुत्ताकी ने आगरा के ताजमहल का दौरा रद्द कर दिया और मीडिया के साथ एक और बैठक की, जिसमें महिलाओं के प्रवेश पर रोक को एक ‘तकनीकी गड़बड़ी’ बताया। इसके बगैर यह दौरा पूरी तरह से विफल होने का खतरा था। उन्होंने अफगान महिलाओं के साथ व्यवहार के बारे में मीडिया के कठिन सवालों के जवाब तो दिए, लेकिन इस आयोजन का इस्तेमाल अपनी उस सोच को आगे बढ़ाने के लिए किया, जो दुनिया की समझ के बिल्कुल विपरीत है। तालिबान इस्लाम के अतिवादी रूप का पालन करते हैं। वे इस मुद्दे पर किसी भी आलोचना को ‘प्रोपगैंडा’ कहकर खारिज कर देते हैं। उनका स्पष्ट संदेश यह है कि वे अपनी घरेलू नीतियों को जारी रखेंगे और चूंकि वे सत्ता में हैं, तो दुनिया को उनसे निपटना होगा। और दुनिया वाकई ऐसा कर भी रही है। इस वास्तविकता को स्वीकार करने वाले 40 अन्य देशों के साथ भारत ने धीरे-धीरे काबुल के साथ अपने संबंधों को विकसित किया है। वह अफगानिस्तान के विकास में सावधानीपूर्वक और क्रमिक रूप से मदद करना चाहता है।2002-2021 के दौरान, अमेरिका समर्थित काबुल शासन का समर्थन करते हुए भारत ने विकास कार्यों पर लगभग तीन अरब डॉलर का निवेश किया था, जिससे यह सबसे बड़ा क्षेत्रीय दाता बन गया। यह मुश्किल था और भविष्य में भी ऐसा ही होगा। यह विडंबना ही थी कि अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान, मुत्ताकी ने हेरात प्रांत में सलमा बांध का जिक्र किया, 

जिसे भारत ने भारी धन और जान-माल की कीमत पर बनवाया था। हमलावर उन ताकतवर लोगों में से थे, जो आज काबुल में राज कर रहे हैं। तालिबान द्वारा पाकिस्तान को भारत के खिलाफ ‘रणनीतिक तवज्जो’ न दिए जाने से खुश भारत को उम्मीद है कि वह पाकिस्तान के खिलाफ अफगान का राजनयिक समर्थन हासिल कर सकेगा। 

फिलहाल, दोनों ने पाकिस्तान का जिक्र किए बगैर आतंकवादी कृत्यों की निंदा की है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुत्ताकी ने जम्मू-कश्मीर पर भारत की ‘संप्रभुता’ की घोषणा की, जिससे इस्लामाबाद का नाराज होना स्वाभाविक है।अफगानिस्तान और पाकिस्तान का संबंध जटिल और स्वाभाविक रूप से प्रतिकूल हैं, लेकिन यह भी सच है कि अफगानिस्तान चारों ओर से स्थल-रुद्ध (लैंडलॉक्ड) है और उसे समुद्र तक पहुंच तथा दैनिक आपूर्ति के लिए पाकिस्तान की जरूरत है। भारत ने काबुल स्थित अपने दूतावास में अपने ‘तकनीकी मिशन’ को उन्नत किया है और वीजा प्रक्रियाओं को आसान बनाया है। लेकिन उसने विश्व समुदाय के कदम का इंतजार कर रहे ‘अमीरात’ को मान्यता नहीं दी है। तालिबान सरकार और उसके नेता वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों के अधीन हैं। निकट भविष्य में तालिबान और अमेरिका के बीच समझौता हो जाने के बाद यह स्थिति बदल सकती है।  ट्रंप प्रशासन पश्चिम और दक्षिण एशिया के लिए अपनी रणनीति की समीक्षा कर रहा है। तालिबान चतुर सौदेबाज हैं और अब तक अमेरिकी प्रस्तावों को ठुकराते रहे हैं। ट्रंप पाकिस्तान की मदद से फिर से अपनी पकड़ बनाना चाहते हैं, यही वजह है कि वह सेना प्रमुख मुनीर का स्वागत कर रहे हैं। तालिबान के शासन में चार साल से भी अधिक समय से अफगानिस्तान एक अस्थिर मुल्क है, जिसका मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) दुनिया के सबसे निचले स्तर पर है। उनके कठोर शासन ने किसी भी घरेलू बहस या विरोध को जगह नहीं दी है।तालिबान की काबुल में वापसी में मदद करने वाला पाकिस्तान सीमा पर लगातार होने वाली झड़पों और विद्रोही तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) की मौजूदगी के कारण नाराज है, जो पाकिस्तानी सुरक्षा बलों पर हमला करने के लिए दोनों तरफ के जनजातीय क्षेत्रों का उपयोग कर रहा है।

 तालिबान और टीटीपी में वैचारिक भाईचारा है। हालांकि, काबुल इससे इन्कार करता है, जबकि वहां न सिर्फ टीटीपी के 30,000 परिवार रहते हैं, बल्कि वह इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत (आईएसकेपी) समेत वैश्विक आतंकी समूहों से निपटने के लिए भी संघर्ष कर रहा है, जो भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया को निशाना बनाता है। जाहिर है, भारत को सोच-समझकर कदम उठाने होंगे, क्योंकि अमेरिका अफगानिस्तान में वापसी की कोशिश कर रहा है, जहां चीन भी तेजी से आगे बढ़ रहा है। बीजिंग, शिनजियांग प्रांत में अपने विद्रोही मुस्लिम आदिवासियों, उइगरों पर नियंत्रण रखने के लिए अफगानिस्तान का समर्थन चाहता है। उसकी नजर विशाल और अनछुए अफगान खनिजों पर भी है।बीजिंग, अमेरिका के लौटने से पहले अपने अरबों डॉलर के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) को अफगानिस्तान तक बढ़ाने की योजना बना रहा है। 

चीन-पाकिस्तान के मजबूत रिश्ते इसमें मददगार साबित हो सकते हैं। इससे दो स्वामियों की सेवा करने वाले पाकिस्तान को भी वाशिंगटन-बीजिंग प्रतिद्वंद्विता से निपटने में सावधानी बरतनी होगी। साफ है कि कूटनीति में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता। विश्व समुदाय अफगानिस्तान की उन महिलाओं के लिए मगरमच्छ के आंसू भी नहीं बहाएगा, जिन्हें पढ़ाई और काम करने से रोका गया है। अफगानिस्तान एक बार फिर प्रतिस्पर्धी भू-राजनीतिक ताकतों के खेल का मैदान बनने के लिए अभिशप्त है।     

Post a Comment

Previous Post Next Post