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बिहार चुनाव और चार निर्णायक पहलू: सबसे जटिल और उलझन भरे आयोजन के कई कारक, नतीजों पर भी दिखेगा इनका असर Bihar elections and four decisive aspects: Many factors in the most complex and confusing event, their impact will also be visible on the results

 

प्रणव बजाज

बिहार जातिगत समीकरणों में जकड़ा हुआ है, जिसे जनता दल (यूनाइटेड) के मुखिया नीतीश कुमार ने बड़ी चालाकी से गढ़ा है, ताकि वह किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन करके निर्बाध मुख्यमंत्री बने रहें। हालांकि, जमीनी हलचल से लगता है कि इस बार उनका समीकरण बिखर रहा है। बिहार के चुनाव को हाल के समय का सबसे जटिल और उलझन भरा चुनाव बनाने के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं, जिनमें से चार बेहद महत्वपूर्ण हैं। एक है, नीतीश कुमार के स्वास्थ्य की स्थिति को लेकर अनिश्चितता। इसने राजग की जीत की स्थिति में भी चुनाव बाद उनके मुख्यमंत्री बने रहने पर सवाल खड़े कर दिए हैं। दूसरा, सत्ता की होड़ में लगे दोनों बड़े गठबंधनों में बिखराव, जो उन्हें छोटी जाति-केंद्रित पार्टियों के गठबंधन में बदल रहा है।



 राजग में अब पांच पार्टियां हैं: भाजपा, जदयू, चिराग पासवान की लोजपा, उपेंद्र कुशवाहा का राष्ट्रीय लोक मोर्चा और जीतन राम मांझी की हम। महागठबंधन में छह पार्टियां हैं: राजद, कांग्रेस, वामपंथी दल, मुकेश साहनी की वीआईपी, झारखंड मुक्ति मोर्चा और पशुपति पारस के नेतृत्व वाला लोजपा का एक गुट।तीसरा कारक है युवाओं का वोट। सभी सर्वेक्षणों से पता चलता है कि बिहार में बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा है। ऐसे में देखना होगा कि युवा एक समूह के रूप में वोट करते हैं या जाति और लिंग के आधार पर, जैसा कि पहले से होता आया है। चौथा है, सियासी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी (जेएसपी) का उदय। जेएसपी चाहे सीटें जीते या वोटकटवा बनकर खेल बिगाड़े, लेकिन यह चुनाव के नतीजों को जरूर प्रभावित करेगी।नीतीश कुमार का स्वास्थ्य बिहार में अटकलों का विषय बन गया है। याददाश्त में कमी और अजीब व्यवहार के कारण उनकी कार्यक्षमता पर संदेह पैदा होता है। भाजपा ने राजग के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उन्हें पूरी तरह से समर्थन देने से इन्कार करके उनके भविष्य पर संदेह और गहरा कर दिया है, जबकि गठबंधन उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ रहा है। ऐसे में नीतीश कुमार के अति पिछड़ा वर्ग के वोटों के बिखरने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। अनुमान है कि बिहार की आबादी में अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) की हिस्सेदारी 36 फीसदी है, जो उन्हें महत्वपूर्ण और प्रभावशाली बनाती है। नीतीश कुमार ने कई लक्षित कल्याणकारी योजनाओं के जरिये उन्हें अपना मजबूत वोट बैंक बनाया। इसी समर्थन ने उनके प्रभुत्व को पुख्ता किया।राजग का प्रदर्शन इस बात पर निर्भर करता है कि जदयू कितने ईबीसी वोट हासिल कर पाता है। ईबीसी वोट का संभावित बिखराव छोटे दलों के उदय में दिखाई देता है, जो इस श्रेणी के छोटे समूहों के कुछ हिस्सों का समर्थन पाने का दावा करते हैं, जैसे मुसहर (हम), निषाद (वीआईपी), कुर्मी-कोइरी (आरएलएम) इत्यादि। कुछ राजग के साथ हैं और कुछ महागठबंधन के साथ। हालांकि, इन छोटे दलों ने अपनी मांगों से दोनों गठबंधनों में मौजूदा संतुलन को बिगाड़ दिया है। नतीजतन, सीटों का बंटवारा एक दुःस्वप्न साबित हुआ, क्योंकि पार्टी नेता एक-दूसरे को साधने की बार-बार कोशिश करते रहे। धमकियां, लगभग पार्टी छोड़ने और इस्तीफों का नाटक 17 अक्तूबर को नामांकन दाखिल करने की अंतिम तिथि तक जारी रहा, जिससे दोनों गठबंधनों को भारी नुकसान हुआ। यहां तक कि समझौते के बाद भी दोनों पक्षों के बीच संदेह का माहौल बना हुआ है, जिससे एकजुट होकर लड़ने तथा गठबंधनों के भीतर वोटों का निर्बाध हस्तांतरण सुनिश्चित करने की उनकी क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं।इस चुनाव में तीसरा महत्वपूर्ण कारक मतदाताओं की जनसांख्यिकी है। महिलाएं और युवा बड़े प्रभावशाली बनकर उभरे हैं, जो वोटों को निर्णायक रूप से प्रभावित करने के लिए तैयार हैं। इसलिए हैरानी नहीं है कि जिन दो प्रस्तावों ने जनता का ध्यान खींचा है, वे विशेष रूप से इन्हीं समूहों को लुभाने के लिए तैयार किए गए हैं। नीतीश कुमार द्वारा चुनाव से पहले 21 लाख महिलाओं को 10,000 रुपये की एकमुश्त राशि वितरित करना महिलाओं का समर्थन बनाए रखने की कोशिश है, जिन्होंने पिछले चुनावों में भी उन्हें वोट दिया था।दूसरी ओर, तेजस्वी यादव हर परिवार को एक सरकारी नौकरी देने के चुनावी वादे के साथ युवा वोटों को अपनी ओर खींचने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। जाहिर है, यह मुकाबला दिलचस्प साबित हो सकता है। हालांकि, महिलाओं की आबादी पुरुषों से चार फीसदी कम है, फिर भी वे ज्यादा संख्या में मतदान करती हैं। पिछले चुनाव में, उनका मतदान प्रतिशत पुरुषों से पांच फीसदी अधिक था, जिससे राजग के पक्ष में फैसला आया। तेजस्वी यादव इस चुनौती से पार पाने की उम्मीद कर रहे हैं और इसके लिए लैंगिक जनसांख्यिकी के दायरे से बाहर निकलकर युवाओं को एकजुट करना चाहते हैं, जिनके लिए रोजगार आज शायद सबसे बड़ा मुद्दा है, चाहे वे पुरुष हों या महिला। कागजों पर जनसांख्यिकी लाभांश बहुत बड़ा है। बिहार में करीब एक-चौथाई आबादी 18 से 29 वर्ष की आयु के लोगों की है। 30 से 35 वर्ष की आयु के लोगों को इसमें शामिल करें, तो यह संख्या बढ़कर 35 फीसदी हो जाती है। इस बार राजद को पारंपरिक मतदान पैटर्न को तोड़ने और रोजी-रोटी के मुद्दों को प्रमुखता से उठाने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी।चौथे कारक के रूप में जब प्रशांत किशोर ने पहली बार अपनी पार्टी शुरू की और बिहार के गांवों में पैदल यात्रा पर निकले, तो उन्हें बड़े सपने देखने वाले महत्वाकांक्षी व्यक्ति के रूप में खारिज कर दिया गया। 

लेकिन लगता है कि उनकी दो साल की मेहनत रंग लाई है। वह न सिर्फ उत्साही भीड़ को आकर्षित कर रहे हैं, बल्कि उनकी जेएसपी बिहार चुनाव की कहानी का हिस्सा बन गई है। हालांकि, उनके पास भाजपा-जदयू गठबंधन और राजद जैसे संगठनात्मक संसाधनों का अभाव है। हाल ही में उन्होंने घोषणा की थी कि उनकी पार्टी या तो 15 से कम या 150 से अधिक सीटें जीतेगी। खैर, यह तो 14 नवंबर को ही पता चलेगा, लेकिन सभी इस बात पर सहमत हैं कि और कुछ नहीं, तो प्रशांत किशोर ने बदलाव को हवा दी है। सवाल यह है कि बिहार में जेएसपी के उदय से किसे फायदा होगा। क्या इससे राजग की नई इच्छा पूरी होगी या बदलाव आएगा? या बदलाव का मतलब युवा तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन की जीत है? या फिर प्रशांत किशोर त्रिशंकु विधानसभा में किंगमेकर साबित होंगे? इसका जवाब 14 नवंबर को मिलेगा।

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