अभी हाल ही में इटली, चीन और भारत के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक संयुक्त अध्ययन में यह पाया गया है कि गाजर, पालक, सलाद और टमाटर जैसी सब्जियों के ऊतकों में माइक्रोप्लास्टिक के अंश मौजूद हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, ये कण पानी, फॉस्फेट आधारित उर्वरकों और प्रदूषित मिट्टी के जरिये पौधों में प्रवेश कर रहे हैं। गांव और देहातों में हर कहीं प्लास्टिक कचरा मिट्टी में मिल रहा है। अशिक्षा, अज्ञानता और जागरूकता की कमी के कारण पौधों की जड़ों तक पहुंच रहे प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण जड़ों द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं और जाइलम व फ्लोएम के माध्यम से पत्तियों और फलों तक पहुंच जाते हैं।
मानव जीवन की पोषण शृंखला में सब्जियां सबसे बुनियादी और शुद्ध समझी जाती रही हैं, परंतु हालिया अध्ययन इस धारणा को खंडित करता है। अब सब्जियों के ऊतकों में भी माइक्रोप्लास्टिक के कण पाए गए हैं। इससे पहले ये कण मां के दूध, रक्त और समुद्री भोजन में मिल चुके थे। साफ है कि प्रदूषण ने पृथ्वी के हर स्तर पर अपनी जगह बना ली है—हवा, पानी, मिट्टी और अब अन्न तक। माइक्रोप्लास्टिक इतने सूक्ष्म होते हैं कि मिट्टी, भूजल, वर्षा और पौधों की जड़ों तक पहुंच जाते हैं।यह स्थिति इसलिए भी गंभीर है, क्योंकि पहले माइक्रोप्लास्टिक केवल समुद्र और जलचर जीवों तक सीमित समझे जाते थे। वर्ष 2021 में ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिकों ने मानव रक्त में इनकी उपस्थिति सिद्ध की, 2022 में मां के दूध में ये पाए गए और 2023 में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ने बताया कि एक औसत व्यक्ति प्रति सप्ताह लगभग पांच ग्राम प्लास्टिक निगल रहा है, यानी एक क्रेडिट कार्ड जितना। अब जब ये सब्जियों में मिलने लगे हैं, तो स्पष्ट है कि प्रदूषण हमारी पूरी खाद्य शृंखला में व्याप्त है।भारत के संदर्भ में यह समस्या और भी गहरी है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, भारत में हर साल लगभग 41 लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जिसमें से लगभग 60 प्रतिशत पुनर्चक्रित नहीं होता। यह कचरा मिट्टी और जल स्रोतों में चला जाता है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और वाराणसी के आसपास के कृषि क्षेत्रों की मिट्टी में किए गए अध्ययन बताते हैं कि लगभग 70 प्रतिशत खेतों की मिट्टी में माइक्रोप्लास्टिक मौजूद हैं। भारत के कई नगर निगम सीवेज से निकले कीचड़ को खाद की तरह खेतों में डालते हैं, जबकि यह कीचड़ प्लास्टिक फाइबरों से भरा होता है। यही फाइबर पौधों के जरिये हमारे भोजन में पहुंच जाते हैं।माइक्रोप्लास्टिक के कण शरीर में जाकर ऑक्सीडेटिव तनाव, हार्मोन असंतुलन और कोशिकीय क्षति उत्पन्न करते हैं। इससे कैंसर, हृदय रोग, प्रजनन क्षमता में कमी और तंत्रिका तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका बढ़ जाती है। कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि नैनोप्लास्टिक कण मस्तिष्क और भ्रूण तक पहुंच सकते हैं, जिससे गर्भवती महिलाओं और बच्चों पर गंभीर असर हो सकता है। माइक्रोप्लास्टिक मिट्टी की संरचना को भी बदल देते हंै, उसकी जलधारण क्षमता घटती है और सूक्ष्मजीवों की संख्या कम होती है। ये फसलों की गुणवत्ता और उत्पादकता को प्रभावित कर खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालते हैं।इस संकट से निपटने के लिए नीतिगत, कृषि और व्यक्तिगत स्तर पर कदम उठाने आवश्यक हैं। सरकार को सिंगल-यूज प्लास्टिक पर सख्त प्रतिबंध लागू करना चाहिए। प्लास्टिक मिश्रित खाद या सीवेज कीचड़ को खेतों में डालने पर रोक लगनी चाहिए। इसके अलावा, मिट्टी तथा जल में माइक्रोप्लास्टिक की नियमित जांच होनी चाहिए।
किसानों को स्वच्छ जल से सिंचाई करने और प्राकृतिक खाद, जैसे वर्मी-कंपोस्ट के उपयोग के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। 'प्लास्टिक-मुक्त खेती' को सरकारी योजनाओं से जोड़ा जाना समय की मांग है।व्यक्तिगत स्तर पर भी बदलाव जरूरी है। हमें बोतलबंद पानी और प्लास्टिक पैकिंग वाले खाद्य पदार्थों का प्रयोग कम करना चाहिए। सिंथेटिक कपड़ों की धुलाई में माइक्रोफाइबर फिल्टर का प्रयोग उपयोगी हो सकता है। सब्जियों को बहते पानी में अच्छी तरह धोना और स्थानीय जैविक उत्पादों को प्राथमिकता देना अधिक सुरक्षित है।माइक्रोप्लास्टिक अब केवल प्रदूषण का विषय नहीं रहा, यह जीवन और स्वास्थ्य का प्रश्न बन गया है। जब हमारे खेतों में उगने वाले अन्न में प्लास्टिक घुलने लगे, तो यह संकेत है कि हमें अपने विकास की दिशा और जीवनशैली पर पुनर्विचार करना होगा। पर्यावरण को बचाना अस्तित्व की अनिवार्यता है। यदि अब भी हमने सचेत कदम नहीं उठाए, तो आने वाली पीढ़ियां शायद शुद्ध भोजन और स्वच्छ मिट्टी के बारे में केवल किताबों में पढ़ंेगी।

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