प्रणव बजाज
आज से करीब 113 साल पहले रवींद्रनाथ टैगोर पहले और अब तक के एकमात्र भारतीय थे, जिन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। वे न केवल प्रथम भारतीय, प्रथम एशियाई थे, वरन प्रथम गैर श्वेत व्यक्ति भी थे। उन्हें अपनी ‘गीतांजलि’ की कविताओं हेतु 1913 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। वे कविगुरु कहे जाते हैं।
उन्होंने गीत लिखे, संगीत बनाया। रवींद्र गीत-संगीत बंगाल की पहचान है। अपने समय से बहुत आगे चलने वाले इस महान रचनाकार ने काव्य के साथ-साथ कहानियां, नाटक लिखे, बच्चों के लिए लिखे। दर्जन से ऊपर उपन्यास लिखे, जिसमें से लगभग सब पर बार-बार फिल्म बनीं।
किसी ने कहा है, टैगोर को पढ़ने के बाद कुछ अर्थपूर्ण पढ़ने को नहीं रह जाता है।उनके एक विदेशी प्रशंसक-पाठक ने उनके एक उपन्यास के विषय में कहा है, पश्चिम के जो लोग भारतीय/बंगाली संस्कृति को जानना-समझना चाहते हैं, उनके लिए एक उपन्यास पूरे मन से मैं अनुशंसा कर सकता हूं। यह उपन्यास है, ‘गोरा’। ध्यातव्य है, यह उपन्यास उन्होंने नोबेल पुरस्कार मिलने के कुछ साल पहले लिखा था।
इसकी कथावस्तु आज के समय-समाज में भी मानीखेज है। इसका कई लोगों ने इंग्लिश में अनुवाद किया है। मेरे पास पेंगुइन से प्रकाशित राधा चक्रवर्ती द्वारा आधिकारिक अनुवाद है। इसका हिन्दी अनुवाद अज्ञेय ने किया था। लेकिन मेरे पास इलाहाबाद, आदर्श हिन्दी पुस्तकालय द्वारा प्रकाशित सूर्यदेव त्रिपाठी का अनुवाद उपलब्ध (मूल्य मात्र 5 रुपए) है।उपन्यास पहले ‘प्रबासी’ पत्रिका में अगस्त 1907 से फरवरी 1910 तक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुआ था, फिर उसी साल यानि 1910 में संपूर्ण उपन्यास के रूप में एक जिल्द में मुद्रित हुआ।‘गोरा’ एक अद्वितीय रचनाआप सोच रहे होंगे, 1910 में लिखी कहानी आज के दौर में क्या कर रही है। आप ‘गोरा’ पढ़ेंगे, तब पता चलेगा, एक सौ साल से ऊपर होने के बावजूद यह विश्वास, निष्ठा, पहचान एवं संबद्धता का गहन अन्वेषण है। रवींद्रनाथ टैगोर का यह पांचवां उपन्यास उनका एक सर्वोत्तम कार्य है। पिछली सदी के प्रारंभ में लिखा, उस समय हो रहे सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों को चित्रित करते हुए कालातीत बन जाता है।यह प्रेम तथा साहस की कहानी मात्र चार प्रमुख पात्रों (गोरा, सुचित्रा, बिनय एवं आनंदमयी) को लेकर चलती है। उपन्यास रचनाकार की फिलॉसफी को उजागर करता है। पूरी बौद्धिक कहानी बहुत ही रोचक तरीके से आगे बढ़ती है और पाठक अंत तक बंधा रहता है।कहानी में जब रहस्योद्घाटन होता है, तो सब उथल-पुथल हो जाता है, लेकिन टैगोर पूरी गुत्थी एक नए अन्वेषण, आत्म-अन्वेषण द्वारा सुलझाते हैं। व्यक्ति की वास्तविक पहचान स्थापित करते हैं। आश्चर्य होता है कोई समय से पहले, आज की बात कैसे जान-समझ और लिख पाता है! टैगोर का भारत-प्रेम, भारतीयता की उनकी गहन समझ, राष्ट्रवाद, प्राचीन आध्यात्मिक मूल्यों का निर्धारण, पश्चिमी विचारों से परिचय, सब चकित करता है।‘गोरा’ का विशाल फलक, समृद्ध सोच, आत्म-अन्वेषण की विलक्षण कहानी, आत्म-संघर्ष, उसका समाधान मिल कर इसे महान गद्य गाथा बनाते हैं। टैगोर ने आज की तरह यह उपन्यास पश्चिमी पाठकों को लुभाने केलिए नहीं रचा था, वे अपने लोगों केलिए लिख रहे थे, अपने समाज की कहानी लिख रहे थे, समाज को आईना दिखा रहे थे।इस आईने पर आज भी धूल नहीं जमी है, आज भी हम अपना चेहरा इसमें देख सकते हैं। क्योंकि मनुष्य होने के नाते आत्म-अन्वेषण, आत्म-मंथन, अस्मिता की तलाश आज भी जारी है।नायक गोरा की कहानीनायक गोरा एक बहुत गोरा युवक है, इतना गोरा कि देख कर विदेशी होने का भ्रम हो जाए। गोरा धार्मिक विचारों से जकड़ा हुआ है, वह ब्राह्म समाज के विचारों का विरोधी है। मगर उसका पूरा अस्तित्व भहरा जाता है, जब उसे पता चलता है, वह वास्तव में कौन है। लेकिन वह हताश-निराश नहीं होता है। यहीं से उसके आत्म-मंथन एवं आत्म-अन्वेषण की नई यात्रा प्रारंभ होती है। सच्चाई का पता चलना उपन्यास का भी टर्निंग पॉइंट है।टैगोर ने भले ही इसे बंगाली समाज को ध्यान में रख कर लिखा, लेकिन उनका कथानक, उनके चरित्र और उनकी मनुष्यता की गहन समझ, उन्हें शब्द देने की प्रतिभा इसे वैश्विक उपन्यास बनाती है। उस समय तो नारीवाद शब्द प्रचलन में न था, परंतु रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने उपन्यास ‘गोरा’ में कई मजबूत नारी चरित्र खड़े किए हैं।नायक गोरा की मां आनंदमयी क्रांतिकारी महिला है। समाज की आलोचना की परवाह न करते हुए वह अनाथ बालक का पालन-पोषण करती है। कुछ पाठक उसे भारतमाता का प्रतीक मानते हैं। उसका व्यवहार दिखाता है, प्रेम संबंध से अधिक मजबूत होता है, रक्त संबंध। गोरा के आकर्षण का केंद्र युवती सुचित्रा समाज की जकड़न से स्वयं को मुक्त करती है, स्वतंत्रचेता स्त्री आज की स्त्री की प्रेरणा बन सकती है। लेखक सुचित्रा को क्रमश: विकसित होते दिखाता है। ब्राह्मो युवती ललिता ऐसी स्त्री है, जो अपनी बात कहने से जरा भी नहीं झिझकती है। उसकी मां वरदासुंदरी भी चित्रित है, एक भिन्न मिजाज की स्त्री है। एक सदी पहले ऐसी स्त्रियां गढ़ना भारत की नई दृष्टि का परिचायक है, नए समाज के बनने की आहट है।‘
गोरा’ का अध्ययन-शोध इसके विभिन्न आयामों के लिए किया जाता है, लेकिन उपनिवेशवाद तथा राष्ट्रीयतावाद इसके दो प्रमुख आयाम हैं। टैगोर इसमें भारतवर्ष की अवधारणा को दोहराते हैं। जिसकी समावेशी प्रवृति विभिन्न जाति, रंग, धर्म के लोगों को अपनाने की रही है। धर्म से उनका तात्पर्य रूढ़ धर्म नहीं बल्कि आध्यात्मिक तथा वैश्विक धर्म था।साल 1938 की फिल्म 'गोरा'‘गोरा’ उपन्यास के आधार पर नरेश मित्र ने ‘गोरा’ नाम से ही 1938 में एक फिल्म बनाई थी, इसमें जीबन गांगुली, प्रतिमा दासगुप्ता एवं स्वयं निर्देशक ने अभिनय किया था।
उन्होंने टैगोर के ही काम पर एक अन्य फिल्म भी बनाई। अन्य कई भाषाओं में भी इससे प्रेरणा लेकर फिल्म बनी हैं।उपन्यास ‘गोरा’ में रवीद्रनाथ टैगोर महज परम्परा एवं आधुनिकता की बात नहीं करते हैं, वे एक प्रवहमान, बदलते जटिल समाज का चित्र उकेरते हैं। वे उसके विभिन्न विश्वास एवं रीति-रिवाज, विभिन्न मतों के भीतरी संघर्ष को भी दिखाते हैं। यह एक तरह से भारतीयता के विचार पर चिंतन-मनन है। इसके पात्र सामान्य व्यक्ति हैं, कोई आदर्श व्यक्ति नहीं। ऐसे लोग जिनके भीतर विरोधाभास एवं संघर्ष हैं।ये वास्तविक लगते हैं, क्योंकि इनके भीतर वही प्रश्न हैं, जो हम सबके भीतर हैं, मसलन मैं कौन हूं? मेरा किसमें विश्वास है? हम कहां और किसको बिलॉन्ग करते हैं? अपने साथ-साथ दूसरों को जानने-समझने का प्रयास करता यह कालजयी, आशा और तदनुभूति से भरपूर उपन्यास ‘गोरा’ अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।

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