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सावरकर की चेतना और भागवत का समकालीन राष्ट्रबोधSavarkar's ideology and Bhagwat's contemporary understanding of nationhood.

 सम्पादकीय

अंडमान की वह ऐतिहासिक भूमि, जहाँ स्वतंत्रता संग्राम की वेदना आज भी समुद्री हवाओं में मौन होकर गूंजती है, एक बार फिर राष्ट्रचिंतन की साक्षी बनी। काला पानी की सेलुलर जेल केवल ईंट-पत्थरों की संरचना नहीं, बल्कि उन असंख्य तपस्वी आत्माओं का अमिट स्मारक है, जिन्होंने भारतमाता की स्वतंत्रता के लिए अमानवीय यातनाओं को भी व्रत की भाँति स्वीकार किया। इसी पावन पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का उद्घोष गूंजा—“यह भारत के लिए जीने का समय है, मरने का नहीं।” यह कथन बलिदान की गौरवशाली परंपरा को नकारे बिना, राष्ट्रभावना को आत्मविनाश से निकालकर जीवन, निर्माण और पुनर्जागरण की दिशा में मोड़ने वाला स्पष्ट एवं सशक्त संदेश है।


दक्षिण अंडमान के बेओदनाबाद स्थित वीर सावरकर प्रेरणा पार्क में, वीर सावरकर की प्रतिमा के अनावरण अवसर पर दिया गया यह वक्तव्य इतिहास की पीड़ा को भविष्य की प्रेरणा में रूपांतरित करता प्रतीत हुआ। सावरकर का स्वप्न केवल विदेशी शासन से मुक्ति तक सीमित नहीं था, बल्कि एक संगठित, आत्मविश्वासी और जाग्रत राष्ट्र के निर्माण का था। उसी तपोभूमि से भागवत जी ने यह स्पष्ट किया कि सच्चा राष्ट्रप्रेम आत्मोत्सर्ग की एकांगी व्याख्या नहीं, बल्कि सृजनशील, सकारात्मक और दीर्घकालीन जीवन-दृष्टि में निहित है—ऐसा जीवन, जो आने वाली पीढ़ियों को एक सशक्त, समर्थ और आत्मनिर्भर भारत का उत्तराधिकार सौंप सके।

आज का भारत एक अलग मोड़ पर खड़ा है। स्वतंत्रता के लिए प्राण देने का युग इतिहास बन चुका है, परंतु राष्ट्र के लिए जीने की चुनौती अब और अधिक व्यापक हो गई है। भागवत जी का संदेश इसी संदर्भ में सामयिक और प्रासंगिक बन जाता है। उन्होंने यह रेखांकित किया कि सावरकर ने कभी जाति, प्रांत या भाषा की सीमाओं में राष्ट्र को नहीं बांधा। अखंड भारत की उनकी परिकल्पना सांस्कृतिक एकता पर आधारित थी। आज जब छोटे-छोटे मुद्दों पर समाज को बांटने की कोशिशें होती हैं, तब यह स्मरण आवश्यक है कि हमारी पहली पहचान भारतीय होना है।

‘टुकड़े-टुकड़े’ की मानसिकता और विभाजनकारी शब्दावली पर करारा प्रहार करते हुए भागवत जी ने राष्ट्र को सर्वोपरि रखने का आह्वान किया। राष्ट्रभक्ति नारों या आक्रोश तक सीमित नहीं, बल्कि दैनिक आचरण, सहिष्णुता और सहयोग में प्रकट होती है। विविध मतों और परंपराओं के बावजूद एक साझा लक्ष्य की ओर बढ़ना ही भारत की असली शक्ति है। उन्होंने स्पष्ट संकेत दिया कि आंतरिक एकता के बिना बाहरी चुनौतियों का सामना करना असंभव है। इसलिए राष्ट्र को हर प्रकार के संकीर्ण स्वार्थ से ऊपर उठाकर देखना समय की आवश्यकता है।

इस कार्यक्रम में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की उपस्थिति ने संदेश को और व्यापक संदर्भ दिया। मंच से युवाओं को संबोधित करते हुए भागवत जी ने सफलता की नई परिभाषा प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि आज का युवा विश्व की सबसे तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्था का भाग है। आगे बढ़ो, धन अर्जित करो, नवाचार करो, करियर में शिखर तक पहुंचो—लेकिन यह सब राष्ट्र के प्रति दायित्व को भूले बिना हो। साधुता या त्याग का अर्थ समाज से कटना नहीं, बल्कि अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ बनकर समाज को सशक्त करना है।

भागवत जी का यह दृष्टिकोण निराशा और हिंसा की प्रवृत्तियों से अलग राह दिखाता है। उन्होंने युवाओं को यह समझाया कि क्रांति केवल सड़कों पर नहीं होती, बल्कि प्रयोगशालाओं, कक्षाओं, खेतों, कारखानों और कार्यालयों में भी जन्म लेती है। सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक गौरव और पर्यावरण संरक्षण को राष्ट्रसेवा का अभिन्न अंग बताते हुए उन्होंने एक संतुलित विकास मॉडल की ओर संकेत किया। यह ऐसा विकास है, जिसमें प्रगति मानवता से कटकर नहीं, बल्कि उसके साथ कदम मिलाकर चलती है।

भारत की विविधता को अक्सर चुनौती के रूप में देखा जाता है, परंतु भागवत जी ने इसे शक्ति का स्रोत बताया। अनेक भाषाएं, असंख्य परंपराएं और विविध संस्कृतियां मिलकर एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करती हैं, जो विश्व को दिशा दे सकता है। जब दुनिया आर्थिक अनिश्चितताओं और संघर्षों से गुजर रही है, तब भारत के पास आशा का केंद्र बनने का अवसर है। इसके लिए आवश्यक है कि हम सावरकर के दर्द को केवल स्मृति न बनाएं, बल्कि उससे प्रेरणा लेकर स्वार्थ त्यागकर कार्य करें।

यह संदेश केवल विचारधारा का उद्घोष नहीं, बल्कि हर नागरिक के लिए आह्वान है। यदि शिक्षक शिक्षा से समाज को आलोकित करे, उद्यमी ईमानदारी से रोजगार सृजित करे, किसान प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर अन्न उपजाए और युवा तकनीक से देश को आगे बढ़ाए, तो भारत को रोक पाना किसी के लिए संभव नहीं होगा। भावनात्मक भाषण क्षणिक उत्साह देते हैं, किंतु स्थायी परिवर्तन अनुशासित और निरंतर प्रयास से ही आता है—यह बात भागवत जी ने स्पष्ट रूप से रेखांकित की।

अंडमान से उठा यह स्वर आज पूरे देश में प्रतिध्वनित हो रहा है। यह हमें बताता है कि हमारा समय आ चुका है—निर्माण का, सृजन का और विजय का। मोहन भागवत का यह उद्बोधन नई राष्ट्रभक्ति की नींव रखता है, जहां अतीत के बलिदान सम्मानित हैं, पर भविष्य का मार्ग जीवन, एकता और प्रगति से प्रशस्त होता है। भारत आज तैयार है एक सशक्त, समृद्ध और संगठित राष्ट्र बनने के लिए। भारत के लिए जियो, ताकि विश्व हमारे अनुभव से सीख सके—यही इस जीवन-क्रांति का सार है।

 

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