सम्पादकीय
हर सुबह 7:15 की फास्ट लोकल जब चर्चगेट की ओर दौड़ती है, तो एक अजीब-सी तस्वीर उभरती है। प्लेटफॉर्म पर पुरुषों की भीड़ लहर बनकर सामान्य डिब्बों पर टूटती है—कंधे चिपकते हुए, एक-दूसरे की गर्दन पर टकराती हुईं। ठीक उसी क्षण, लेडीज कोच के दरवाज़े पर कुछ महिलाएँ सहज खड़ी रहती हैं। भीड़ कम, धक्का कम, छेड़खानी का साया लगभग नदारद। कोई बैग टिका कर ठहरी है, कोई फोन पर खोई, कोई किताब में डूबी। बाहर का पुरुष डिब्बा नरक है, अंदर का लेडीज कोच स्वर्ग। और यही दृश्य हर फ़ेमिनिस्ट तर्क को एक साथ सही और गलत साबित कर देता है।
यह सुविधा है या तिरस्कार? सुरक्षा है या सीमाबंदी? हम 2025 की दहलीज़ पर खड़े होकर भी तय नहीं कर पा रहे कि औरत को “सुरक्षित” रखने के नाम पर उसे अलग कर देना न्याय है या अन्याय। एक ओर लिबरल बुद्धिजीवी गरजते हैं—“यह जेंडर-सेग्रिगेशन है, मध्ययुगीन मानसिकता है, औरत को मुख्यधारा से काट देना है!” दूसरी ओर लाखों कामकाजी महिलाएँ हैं, जो हर सुबह यही दुआ करती हैं कि लेडीज कोच में सीट मिल जाए, वरना पूरा दिन बिगड़ जाएगा। मुद्दा यह नहीं कि कौन सही है—मुद्दा यह है कि समाज इतना असुरक्षित कैसे हो गया कि औरत के लिए अलग कोच अनिवार्य बन गया?
सबसे पहले तथ्य देखिए। मुंबई की लोकल ट्रेनें रोज 70-75 लाख यात्रियों को ढोती हैं। इसमें करीब 35-40 प्रतिशत यात्री महिलाएँ हैं। रेलवे के अपने आंकड़े कहते हैं कि 2015-2023 के बीच लेडीज कोच में छेड़छाड़ की शिकायतें सामान्य डिब्बों की तुलना में 92-93% प्रतिशत कम रही हैं। यानी यह व्यवस्था काम कर रही है। लेकिन क्या काम करना ही काफी है? क्या जो व्यवस्था औरत को सुरक्षित रखने के लिए उसे अलग कर दे, वह वाकई उसे सशक्त बना रही है या बस यह स्वीकार कर रही है कि समाज पुरुषों को सुधारने में निर्णायक तौर पर विफल हो चुका है?
जो लोग इसे जेंडर सेग्रिगेशन कहकर कोसते हैं, उनका तर्क साफ है—अलग कोच का मतलब है औरत को “दूसरी श्रेणी” का नागरिक मानना। यानी समाज मान चुका है कि पुरुषों को काबू में नहीं किया जा सकता, इसलिए औरतों को ही किनारे कर दो। यही सोच कभी परदा प्रथा को सही ठहराती थी, और आज भी कई देशों में महिलाओं को अलग बस में बिठाती है। अगर बराबरी सच में चाहिए, तो पुरुषों को सीख देनी होगी कि भीड़ में भी हाथ काबू में रखें—न कि औरतों को अलग डिब्बे में धकेल दें। अलग कोच समाधान नहीं, समाज की हार है।
लेकिन यह तर्क जितना सुंदर लगता है, उतना ही किताबों वाला भी है। असली जिंदगी में 22 साल की वह लड़की, जो सुबह 6 बजे विरार से चर्चगेट जाती है, उसे अभी भाषण नहीं, सुरक्षित सफर चाहिए। उसे यह सुनने की जरूरत नहीं कि “तुम अलग क्यों बैठती हो, पुरुष डिब्बे में जाओ और अपनी जगह बनाओ।” क्योंकि वह जानती है कि वहाँ जगह बनाते-बनाते उसका हाथ मुड़ सकता है, कपड़े फट सकते हैं, और बदन पर हाथ फेरने वालों की गिनती ही नहीं होगी। जब अलग कोच मौजूद है, तो वह रोज यह जोखिम क्यों उठाए? उसका यह चुनाव “पितृसत्ता की गुलामी” नहीं, साफ-सुथरी व्यावहारिक समझदारी है।
कड़वी हकीकत यह है कि लेडीज कोच न तो पूर्ण न्याय है, न पूर्ण अन्याय। यह एक समझौता है। कड़वा, शर्मनाक, लेकिन इस दौर के लिए जरूरी समझौता। जिस समाज में हर तीसरे दिन कोई न कोई रेप केस सुर्खियों में आता हो, जहाँ निर्भया के बाद भी बसों, ट्रेनों, सड़कों पर औरत सुरक्षित न हो, वहाँ अभी ऐसे अस्थायी बैंडेज ही लगाए जा सकते हैं। असली इलाज तो पुरुषों की सोच बदलना है, स्कूलों में जेंडर सेंसिटाइजेशन लाना है, कानून को सख्ती से लागू करना है, दोषियों को फाँसी तक पहुँचाना है। पर यह सब होने में सालों लगेंगे। तब तक क्या औरतें हर दिन अपना सम्मान दाँव पर लगाएँ?
सच यह है कि दुनिया ने अलग रास्ता चुना है। जापान में महिलाओं के लिए कोच हैं, लेकिन वहां छेड़खानी की घटनाएँ भारत से कहीं कम हैं। जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देश ऐसे अलग डिब्बे तक की ज़रूरत महसूस नहीं करते, क्योंकि वहां समाज ने खुद को सुरक्षित बनाया है। बात साफ है—अलग कोच समाज की बीमारी नहीं है, यह उस बीमारी का लक्षण है। और जब तक बीमारी का इलाज नहीं होगा, लक्षण दबाने के लिए यह ज़रूरी दवा लेना ही पड़ेगा।
बड़ा सवाल यह है— क्या हम लेडीज कोच को हमेशा के लिए स्वीकार कर लें? बिलकुल नहीं। लेकिन क्या इसे अभी खत्म कर दें? उससे भी बड़ा नहीं। सही राह यही है कि इसे एक संक्रमणकालीन व्यवस्था समझा जाए। अगले दस–पंद्रह साल में अगर हम पुरुषों को सभ्य बना पाए, छेड़खानी करने वाले को तुरंत जेल भेज पाए, और रात दस बजे भी कोई लड़की अकेली लोकल में बिना डर सफर कर सके—तो पहला कोच जो हटेगा, वही लेडीज कोच ही होगा। उसी दिन हम सच में जेंडर जस्टिस कह पाएँगे।
सबसे पहले एक हकीकत सामने रखिए— अगर भीड़ भरे डिब्बों में हर दिन आपकी अपनी बहन, आपकी बेटी, या आपके घर की किसी महिला को धक्के, फब्तियाँ और अनचाहे हाथों का सामना करना पड़े, तो क्या आप उसे बेझिझक उसी भीड़ में भेज देंगे? अगर जवाब ना है, तो ज़रा ठहरिए और सोचिए। जो लोग गरज रहे हैं—“लेडीज कोच खत्म करो, यह तो सेग्रिगेशन है”—उनसे बस इतना ही कहना है: कभी-कभी सुरक्षा अलग करने से नहीं, स्वीकार करने से शुरू होती है कि हालात अभी बराबरी लायक नहीं हैं। लेडीज कोच कोई विशेषाधिकार नहीं, मजबूरी का इंतज़ाम है। कड़वा है, पर सच है। और सच का सामना करना ही असली बदलाव की पहली सीढ़ी है।

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