प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी
[जब शिक्षा लोन में बदली और सपने ईएमआई में क़ैद हुए]
[बिना नींव की ऊँचाई: भारतीय स्टार्टअप इकोसिस्टम के लिए सबक]
भारत के सबसे चमकते एडटेक सितारे की दास्तान अब अपनी अंतिम साँसें गिन रही है। बायजूज़—जिसकी वैल्यूएशन कभी 22 अरब डॉलर की चकाचौंध में दमकती थी—आज दिवालिया प्रक्रियाओं के हवाले हो चुका है। नवंबर 2025 तक कंपनी पर कई हजार करोड़ रुपये का नुकसान और देनदारी का बोझ लद चुका है, कई हजार कर्मचारी बेरोज़गारी की खाई में धकेल दिए गए हैं। मीडिया रिपोर्टों और उपभोक्ता शिकायतों के अनुसार, लाखों अभिभावकों की मेहनत की कमाई अनिश्चितता के जाल में फँसी हुई है। यह केवल एक स्टार्टअप का ढहना नहीं; यह पूरे एडटेक उद्योग के भीतर गूँजती चेतावनी है—अति-आत्मविश्वास की अंधी दौड़, आक्रामक बिक्री की खतरनाक संस्कृति और कॉर्पोरेट गवर्नेंस की असहनीय लापरवाही, जो अंततः एक सामूहिक विफलता का महाभारत रच बैठी।
सब कुछ 2015 में एक बेहद सरल-सा विचार बनकर उभरा था। बायजू रविंद्रन ने बच्चों को वीडियो लेक्चर के माध्यम से पढ़ाने का बीज बोया, और कोविड-19 के अंधकारमय दिनों में यह बीज देखते ही देखते एक वृक्ष की तरह फैल गया। 2020–21 में जब स्कूलों के गेट बंद थे, अभिभावक अपनी संतानों की पढ़ाई बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे। ठीक इसी नाजुक घड़ी में बायजूज़ ने सबसे आक्रामक और नैतिकता-तोड़ सेल्स रणनीतियाँ अपनाईं—टेलीमार्केटिंग कॉलों में दबाव का पहाड़, “अभी नहीं लिया तो बच्चे का साल डूब जाएगा” जैसे डरावने वाक्यों की बौछार, और कई परिवारों के लिए तो बिना स्पष्ट जानकारी दिए शुरू कर दी गई ईएमआई जैसी अदृश्य जंजीरें। सर्वे दर्शाते हैं कि 2021–22 में कंपनी ने कोर रेवेन्यू ₹3,550 करोड़ और कंसोलिडेटेड ऑपरेटिंग रेवेन्यू ₹5,000 करोड़ के आँकड़े पेश किए—पर इन चमकदार संख्याओं के पीछे छिपा सच कहीं अधिक काला था। इस राजस्व का बड़ा हिस्सा उन लोन से उपजा था, जो बाद में लगभग पूरी तरह अशोधित साबित हुए—ऐसे लोन, जिन्होंने हज़ारों परिवारों को आर्थिक अस्थिरता, टूटते भरोसे और गहरे भावनात्मक तनाव की अँधेरी खाई में धकेल दिया।
वैल्यूएशन की चकाचौंध भरी दौड़ में बायजूज़ ने 2021–22 में एक के बाद एक दर्जन से अधिक कंपनियाँ निगल लीं—व्हाइटहैट जूनियर हो, टॉपर, ग्रेट लर्निंग आदि—हर अधिग्रहण कई गुना तक की अविश्वसनीय वैल्यूएशन पर। प्रॉसस, चान-ज़करबर्ग इनिशिएटिव और ब्लैकरॉक जैसे दिग्गज निवेशक मानो आँख बंद करके धन उलीचते रहे, जबकि अंदर ही अंदर कंपनी दीमक की तरह खोखली होती जा रही थी। 2021–22 के ऑडिटेड वित्तीय दस्तावेज़ पूरे 22 महीने की देरी से सामने आए—और जैसे ही आए, निवेशकों के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। पता चला कि राजस्व का विशाल हिस्सा “अक्रुअल बेसिस” पर दिखाया गया था—यानी जो पैसा कभी आया ही नहीं, उसे भी कमाई मानकर बैलेंस शीट चमकाई गई। 2023–24 में जब प्रॉसस ने क्रमिक रूप से वैल्यूएशन को शून्य घोषित किया, तभी यह बुलबुला जोरदार धमाके के साथ फूट पड़ा।
लेकिन इस पतन की सबसे मार्मिक कीमत कर्मचारियों और शिक्षकों ने चुकाई। 2022 से अब तक पाँच बार बड़े पैमाने पर छँटनी हुई, सैकड़ों नहीं—हज़ारों लोग एक झटके में सड़क पर आ गए। बहुतों को तीन-तीन महीने तक वेतन तक नहीं मिला। जिन शिक्षकों ने वर्षों तक अपनी ऊर्जा, अपनी पहचान इस संस्था में समर्पित की, उन्हें एक सूचना भर में बेरोजगार कर दिया गया। अभिभावकों की त्रासदी इससे भी भयावह है। लाखों परिवारों ने 1–2 लाख रुपये तक खर्च कर कोर्स खरीदे—पर अब अधिकांश के लिए प्लेटफ़ॉर्म तक पहुँचना भी संभव नहीं। कई बच्चों ने तो कोर्स शुरू भी नहीं किया, फिर भी बैंक लगातार ईएमआई काट रहा है। उपभोक्ता मंचों पर शिकायतें हजारों नहीं, बल्कि लाखों में दर्ज हैं—हर शिकायत एक टूटे हुए भरोसे की, एक ठगे गए सपने की और एक असहाय परिवार की गवाही बनकर खड़ी है।
इस पूरे संकट की मूल में तीन बड़े कारण हैं। पहला – कॉर्पोरेट गवर्नेंस का पूर्ण अभाव। प्रमोटर दंपति, बायजू और दिव्या गोकुलदास, कंपनी को मानो अपनी निजी चेकबुक और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का विस्तार मानकर चलाते रहे। दूसरा—निवेशकों का अनियंत्रित लालच, जिसने उचित जाँच-पड़ताल को हाशिये पर धकेल दिया। और तीसरा—नियामक तंत्र की चुप्पी, जिसकी कीमत आज लाखों परिवार चुका रहे हैं। न सेबी ने समय रहते आवाज उठाई, न आरबीआई ने लोन स्ट्रक्चर पर रोक लगाई, और न शिक्षा मंत्रालय ने उस क्षेत्र में दखल दिया जो सीधे बच्चों की ज़िंदगी को प्रभावित करता था।
इस त्रासदी से कुछ कड़े सबक सीखने होंगे। पहला, एडटेक कंपनियों के लिए एक स्वतंत्र और मजबूत नियामक ढाँचा तुरंत विकसित होना चाहिए, जिसमें रिफंड नीतियों से लेकर सेल्स रणनीतियों और विज्ञापनों तक हर चीज़ पर कठोर नियम लागू हों। दूसरा—स्कूल शिक्षा को एक ‘उत्पाद’ की तरह बेचने की सोच बदलनी होगी; शिक्षा सेवा है, सौदा नहीं। तीसरा—निवेशकों को यह समझना होगा कि 200 गुना वैल्यूएशन पर पैसा फेंकना इनोवेशन नहीं, मूर्खता है; निवेश से पहले बुनियादी सवाल पूछना ही बुद्धिमानी है। चौथा—अभिभावकों को यह भी स्वीकारना होगा कि किसी भी चमकदार ऐप से अधिक कद बच्चे की मेहनत और शिक्षक के समर्पण का होता है।
बायजूज़ का पतन भारतीय स्टार्टअप परिदृश्य के लिए एक तीखा स्मरण है: ऊँचाई पर पहुँचना आसान है, पर बिना मजबूत नींव के टिक पाना असंभव। यह उम्मीद की जानी चाहिए कि एनसीएलटी प्रक्रिया (नेशनल कम्पनी लॉ ट्राइब्यूनल) कम से कम अभिभावकों और कर्मचारियों के लिए कुछ राहत लेकर आएगी। लेकिन इस कहानी का असली महत्व उस सीख में है, जिसे अगले दशक तक देश को याद रखना होगा कि चमकदार विज्ञापन, गगनचुंबी वैल्यूएशन और आक्रामक वादों के पीछे छिपी सच्चाई को परखना हर निवेशक, हर अभिभावक और हर नियामक का नैतिक कर्तव्य है। बायजूज़ का अध्याय शायद समाप्त हो जाए, पर उसकी गलतियों से उपजा अनुभव भारतीय एडटेक के लिए एक नए, अधिक ज़िम्मेदार और अधिक मानवीय भविष्य की नींव बन सकता है।

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