आरक्षण पर सवाल नहीं, जाति पर सवाल उठाने का समय ह
प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी
[संविधान जिंदा है, पर क्या हम जिंदा हैं उसके आदर्शों में?]
चैत्यभूमि पर कदम रखते ही एक अजीब-सी हलचल सी अंदर उठती है—जैसे यह धरती अपनी गूँज में कह रही हो, “यहीं से जन्मी थी इंसान की गरिमा और न्याय की नई कहानी।” समुद्र की हवा भी उस पल में सामान्य नहीं लगती; उसमें एक गंभीरता, एक सम्मान, एक अडिग सन्नाटा घुला होता है। और फिर अचानक आपके सामने खुलता है वह महासागर—नीली किताबों का, नीले झंडों का, उन चेहरों का जिनकी आँखों में आँसू नहीं, सदियों का संघर्ष बोलता है। ‘जय भीम’ की गर्जना कोई नारा नहीं लगती; वह स्मरण है उस क्रांति का, जिसने टूटे हुए मनुष्य को फिर से मनुष्य बनाया। यह एक क्रांति का वार्षिक पुनर्जन्म है। यह उस दिन की स्मृति है जब 6 दिसंबर 1956 को दिल्ली के 26 अलीपुर रोड पर डॉ. बाबासाहब भीमराव अंबेडकर की साँसें थमीं, पर उनके विचार भारतीय संविधान की नसों में अमर होकर दौड़ने लगे।
उन्होंने मरकर भी मरना स्वीकार नहीं किया। वे अंतिम सांस तक लड़ते रहे—जाति की ज़ंजीरों से, छुआछूत की घृणा से, अंधविश्वास की काली सुरंगों से, और सबसे कठिन युद्ध—अज्ञान की दीवारों से। जिस समाज ने उन्हें पानी तक न छूने दिया, उसी समाज को उन्होंने दुनिया का सबसे आधुनिक और मानवतावादी संविधान सौंपकर सिर ऊँचा करने का अवसर दिया। जिस समाज ने मंदिर के दरवाज़े बंद किए, उसी समाज को उन्होंने बुद्ध की शरण में ले जाकर गरिमा, तर्क और समानता का खुला आकाश दे दिया। 14 अक्टूबर 1956—नागपुर की दीक्षाभूमि पर जब उन्होंने 22 प्रतिज्ञाएँ लीं और लाखों लोगों को बौद्ध धर्म ग्रहण कराया, वह केवल धर्म परिवर्तन नहीं था—वह सदियों की दासता, अपमान और अन्याय का महासंस्कार था। और दो महीने बाद जब वे शांत हुए, तब भी एक संदेश छोड़ गए—मैंने बौद्ध धर्म इसलिए चुना क्योंकि यह बराबरी, करुणा और विज्ञान पर आधारित है।
आज जब हम महापरिनिर्वाण दिवस मनाते हैं, प्रश्न यह नहीं कि बाबासाहेब हमारे बीच नहीं हैं—प्रश्न यह है कि क्या हम उनके विचारों के बीच खड़े हैं? जिस संविधान की रक्षा के लिए उन्होंने जीवन खपा दिया, आज उसी पर बार-बार हमले हो रहे हैं। जिस समता की परिकल्पना उन्होंने की, आज वही समता खोखली करने की कोशिशें झेल रही है। आरक्षण पर फैलाया जाने वाला हर झूठ, उनके संघर्ष की नींव पर लूटा गया हमला है। उन्होंने स्पष्ट कहा था—आरक्षण कोई भीख नहीं, यह प्रतिनिधित्व का अधिकार है। फिर भी आज सवाल पूछा जाता है—“आरक्षण कब तक?” जवाब साफ है— जब तक जाति है, जब तक भेदभाव है—तब तक आरक्षण रहेगा। और यदि कोई इसे खत्म करना चाहता है, तो पहले इस देश से जाति को खत्म करे।
बाबासाहेब ने शिक्षा को केवल मार्ग नहीं, मुक्ति का सबसे बड़ा हथियार कहा। “शिक्षित बनो” उनका पहला आदेश था, और आज उनके सपनों के सहारे लाखों–करोड़ों डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफेसर तैयार हो रहे हैं। लेकिन सच यह भी है कि गाँवों में अब भी दलित बच्चियाँ स्कूल जाने से पहले दूसरों के घरों की दहलीज़ पर झाड़ू लगाती दिखती हैं। विश्वविद्यालयों में अब भी दलित छात्रों को अपमान और अलगाव की आग में धकेला जाता है—कभी-कभी इतनी गहरी कि वह जीवन छीन लेती है। यह सिर्फ बाबासाहेब का नहीं, हमारी पूरी सभ्यता का अपमान है। यह हमारी सामूहिक नाकामी है कि हम अभी तक उनके सपनों का भारत नहीं बना पाए।
महापरिनिर्वाण दिवस केवल श्रद्धांजलि का संस्कार नहीं—यह आत्मा को झकझोर देने वाला आत्ममंथन है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि बाबासाहेब की जलायी हुई मशाल अभी बुझी नहीं; वह आग हमारे भीतर जलनी चाहिए। जब तक जाति के नाम पर एक भी इंसान का आत्मसम्मान कुचला जाता है, तब तक बाबासाहेब की आत्मा को चैन नहीं मिलने वाला। उन्होंने कहा था—“मैं ऐसी पार्टी बनाऊँगा जो कमजोरों की होगी।” आज जरूरत है कि हम उस विचार को सिर्फ चुनावी पोस्टर न बनाएँ, बल्कि उसे एक आंदोलन, एक मिशन, एक प्रतिज्ञा बनाएं।
6 दिसंबर को चैत्यभूमि जाना महत्वपूर्ण है, पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है उस नीली किताब को फिर से खोलना। संविधान को पढ़ना—उसकी प्रस्तावना को ऊँची आवाज़ में दोहराना—“हम भारत के लोग…” और यह संकल्प लेना कि इस “हम” से कोई भी बाहर न धकेला जाए—न जाति से, न धर्म से, न लिंग से। बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म अपनाते हुए कहा था—“मैं जन्म से हिंदू पैदा हुआ था, पर मैं हिंदू होकर मरूँगा नहीं।” आज हमें भी यही प्रतिज्ञा लेनी है— कि हम जन्म से जो भी हों, पर अन्याय, भेदभाव, और असमानता के सामने झुककर कभी नहीं मरेंगे।
यह दिन हमें याद दिलाता है कि बाबासाहेब कोई दैवी शक्ति नहीं, बल्कि अपनी दृढ़ इच्छा, बुद्धि और संघर्ष से महान बने हुए एक साधारण जन्मे असाधारण इंसान थे। एक ऐसा इंसान जो दर्द से टूटा, लेकिन उसी दर्द को हथियार बनाकर उठ खड़ा हुआ। एक ऐसा इंसान जिसकी जिद, जिसकी पढ़ाई, जिसकी बेचैनी और जिसकी संघर्ष-भरी रातें—लाखों लोगों की सुबह बन गईं। हम उनकी जयंती पर नारे बहुत लगाते हैं, लेकिन उनकी पुण्यतिथि हमें खामोशी में खुद से सबसे कठिन सवाल पूछने पर मजबूर करती है— हमने उनके लिए क्या किया? क्या हम सच में उनके विचारों के वारिस हैं, या सिर्फ उनके नाम को इस्तेमाल करने वाले सुविधाजनक वारिस?
जब इस देश में एक भी व्यक्ति अपनी जाति की वजह से अपमानित होता है—समझ लीजिए, बाबासाहेब का परिनिर्वाण पूरा नहीं हुआ। उनका वास्तविक महापरिनिर्वाण तभी होगा जब जाति की अंतिम ईंट गिर जाएगी, जब समता सचमुच धरती पर उतरेगी, जब संविधान सिर्फ किताब नहीं, जीती-जागती जिंदगी बन जाएगा। तब तक बाबासाहेब जीवित हैं—हमारी लड़ाई में, हमारी आवाज़ में, हर “जय भीम” की प्रतिध्वनि में। इसलिए इस 6 दिसंबर को सिर्फ फूल चढ़ाने मत जाना— अपने भीतर की जाति को मारने जाना। अपने भीतर के मनुवाद को अग्नि देने जाना। और लौटते समय यह संकल्प लेकर आना— कि अबकी बार, बाबासाहेब का सपना पूरा करके रहेंगे। जय भीम। जय भारत। जय संविधान।

Post a Comment