Top News

तीसरी परंपरा की खोज और मौलिकता के विनम्र विद्रोही !The third tradition explored and the humble rebel of originality

सम्पादकी

दीपावली के बाद भी मुंबई की एक नम रात। मोबाइल पर इंस्टाग्राम पर हरकत हुई, रील यानी फिरकी उभरी। जुबीन गर्ग के स्वरों ने भीतर समा लिया। आंखें स्वत: मुंद गईं। लेकिन कुछ मिनटों के सांगीतिक ध्यान लोक को तोड़ दिया एक दूसरी रील ने, दहाड़ते हुए ऋषभ शेट्टी। दैवीय आस्थाओं के आभिजात्य से दूर कांतारा एक दूसरे ही लोक में खींच ले गया। तीन मिनट की कांतारा यात्रा के बाद उभरी तीसरी रील! रोते, खिलखिलाते, सहज भक्ति में भीगते-भिगोते, डांटते-पुचकारते, ललकारते स्वामी प्रेमानंद गोविंद शरण। नौ मिनट खत्म होते ही लगा कि मैट्रिक्स (मूवी) टूट रहा है, दरक रहा है वह मायालोक, जो डिजिटल कंट्रोल के साथ कल्चरल कंट्रोल पर भी बुना है। ऐसा कृत्रिम जगत लोगों को एक जैसे वीडियो दिखाता है, एक जैसे गाने सुनाता है, एक जैसे सपने बेचता है, एक जैसे ट्रेंड पर नचाता है... और धीरे-धीरे हम कल्चरल एल्गोरिदम के स्लेव बन जाते हैं।



फिर आता है मॉर्फियस, मगर लाल-नीली गोली लेकर नहीं। वह इसी एल्गोरिदम पर बिठाकर तीन अजनबी लोगों को भेज देता है। ये तीनों मैट्रिक्स से लड़ते नहीं, बल्कि इसके भीतर बैठ जाते हैं। वे सोशल-मीडिया का इस्तेमाल करते हैं अपने गीतों को बांटने के लिए, वे बॉक्स-ऑफिस की सफलता का प्रयोग करते हैं लोककथाओं को स्वीकार्य ठहराने के लिए, वे इंस्टाग्राम के एल्गोरिदम पर बिठाकर विशुद्ध भक्ति को लाखों आंखों-कानों तक बांट देते हैं। वे नियो की तरह मैट्रिक्स को नष्ट नहीं करते, बल्कि उसमें शुद्ध, सच्चा, जमीन से जुड़ा इतना अधिक संवाद उतार देते हैं कि धीरे-धीरे, मशीन मूल्यों को पहचानने लगती है, और प्रामाणिकता एल्गोरिदम का नया धर्म बनने लगता है।जुबीन, ऋषभ और स्वामी प्रेमानंद मौलिकता के विनम्र विद्रोह हैं, जहां पॉपुलर कल्चर, प्रामाणिक संस्कृति के सामने झुक जाती है। यह कुछ ऐसी शक्ति है, जहां सच्ची, देशज और आत्मीय अभिव्यक्तियां लोकप्रिय मंचों पर फैलकर एक सांस्कृतिक प्रतिरोध बन जाती हैं। यह तीसरी परंपरा की खोज है! तीनों ही कल्चरल जैमिंग या रचनात्मक सांस्कृतिक अवरोध के नायक हैं। संगीत, मीडिया और आध्यात्मिक असहमति को मिलाकर, उनका रचना संसार अद्वितीयता के मारक, एल्गोरिदमिक प्रभुत्व को चुनौती देता है। यह ऐसी कल्चरल जैमिंग है, जो संदेशों को अपना कर उन्हें उनके ही माध्यम से उलट देती है, जैसे किसी विज्ञापन के बीच में एक सच्चा संदेश आ जाए, जो उपभोक्ता को ग्राहक नहीं, बल्कि सचेतन नागरिक में बदल दे।मौलिकता का पूर्वोत्तरइस मैट्रिक्स में विचरते हुए अनुभव होता है कि जुबीन गर्ग की धुनों में छिपा है संस्कृति के मूल स्वरों का कोड, जो सोई हुई सांस्कृतिक स्मृतियों को जगाता है। हर गीत के साथ लोगों के भीतर छिपी 'अपनी मिट्टी' की खुशबू लौट आती है। 2006 में अपार लोकप्रियता पाने के बाद जुबीन मुंबई छोड़कर अपनी जड़ों की ओर लौट गए। जब उसका देहावसान हुआ, पूरा असम थम गया। वह संसार की चौथी सबसे बड़ी अंतिम यात्रा थी। लाखों लोग सड़कों पर उमड़ पड़े, मानो उनकी आत्मा का कोई हिस्सा जा रहा हो। वह लोगों के आंसू, कंटेंट के अंधाधुंध शोर के बीच मौलिकता की शक्ति का अभिषेक थे। कला जब अपनी मिट्टी की खुशबू नहीं खोती, तो वह लोक की धरोहर बन जाती है।अरण्य का सिनेमाइसी मैट्रिक्स में शहरों से दूर किसी घने वन में अपनी आधुनिक लैब के भीतर ऋषभ शेट्टी सिनेमा के लिए नया लैंग्वेज मॉडल बना रहे हैं। वह कैमरे को शंख की तरह फूंकते हैं। उनका सिनेमाई संसार किसी विराट कथा यज्ञ की तरह चलता है, जहां हर फ्रेम में छिपा है एक रचनात्मक विद्रोह। ऋषभ ने पहले लोक को महसूस किया, फिर उससे कथा निकाली। इसलिए, कांतारा का जन्म शहर के स्टूडियो में नहीं, बल्कि तटीय कर्नाटक के जंगलों और मंदिरों में हुआ। जैसे प्राचीन यूनान के रंगमंच में सोफोक्लीज और एस्किलस ने देवताओं की कथाओं के भीतर छिपाकर राजसत्ता पर प्रश्न उठाए, वैसे ही ऋषभ शेट्टी ने भूतकोला के अनुष्ठानों के माध्यम से समाज की आत्मा को झिंझोड़ा। कांतारा सांस्कृतिक प्रामाणिकता का इनोवेशन है। सिनेमा का नवाचार है।प्रामाणिक आस्था का विद्रोह यह निर्मल भक्ति का नया क्वांटम यूनिवर्स है। स्वामी प्रेमानंद गोविंद शरण लोगों को याद दिलाते हैं कि ईश्वर को डाउनलोड नहीं किया जा सकता। उसे अनुष्ठानों से नहीं उतारा जा सकता, उसे केवल जपा जा सकता है, जिया जा सकता है। प्रेमानंद चमत्कार नहीं करते। मौलिक भक्ति की प्राचीन सोई स्मृति जगाते हैं। वह किसी नए धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। वह केवल यह याद दिलाते हैं कि प्रामाणिक आध्यात्मिकता भीतर की लौ है, जिसे किसी मंदिर, मठ या एप में कैद नहीं किया जा सकता। कॉरपोरेट अध्यात्म और गहरी भक्ति के संघर्ष पुराने हैं। ब्रदर्स कारमाजोव में दोस्तोयेव्स्की के पात्र अल्योशा और इवान सच्ची आस्था बनाम संस्थागत धर्म से जूझते हैं। अन्ना कारेनिना से लेकर रेसरेक्शन तक टॉल्स्टॉय के नायक उसी प्रामाणिक नैतिकता की खोज में हैं, जो समाज की पाखंडी परंपराओं से परे है। कबीर, तुलसी, नामदेव और सूर बता गए हैं कि संस्थागत धर्म उस साधक से हमेशा डरता है, जो आत्मा की स्वतंत्रता की पुकार लगाता है। बार-बार अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा की घोषणा करते, गुरुओं के समक्ष फूट-फूट कर रोते प्रेमानंद, भक्ति आंदोलन का 2.0 हैं, जहां आरती लाइवस्ट्रीम नहीं, अंतर्यात्रा है। जहां गुरु नहीं सिखाता, बस स्मरण कराता है।

आभा का पुनर्जन्मवॉल्टर बेंजामिन ने अपने प्रसिद्ध निबंध द वर्क ऑफ इन द ऐज ऑफ मैकेनिकल रिप्रोडक्शन (1935) में  'आभा' (औरा) की विवेचना की है। आभा अर्थात वह अदृश्य प्रतिष्ठा, वह आत्मिक उपस्थिति, जो किसी कलाकृति की मौलिकता और समय-सापेक्ष अस्तित्व से जन्म लेती है। बेंजामिन ने चेताया था कि यांत्रिक रिप्रोडक्शन की सहायता से कोई मौलिक रचना असंख्य प्रतियों में फैल जाती है, तो जो नष्ट होता है, वह कला की आभा है, क्योंकि कला अपनी अद्वितीयता खो देती है। परंतु मौलिकता के विनम्र विद्रोह की इस तीसरी परंपरा ने बेंजामिन के सिद्धांत को उलट दिया है-जुबीन, ऋषभ, स्वामी प्रेमानंद ने मशीनों की मदद से संस्कृति की मौलिक आभा वापस जगाई है। यह वही क्षण है, जहां उपसंस्कृति मुख्यधारा बन जाती है। जब कलाकार, संत और साहसी कथाकार लोकप्रियता के औजारों को इतनी निपुणता से साध लेते हैं कि जनमानस सतहीपन की जगह गंभीरता को, ट्रेंड की जगह परंपरा को और एल्गोरिदम के पुश की जगह मौलिकता को वरीयता देने लगता है। और तब वह प्रणाली, जो सबको एक जैसा सोचने और देखने पर मजबूर कर रही थी, भीतर से हिलने लगती है।हमारे युग के इन तीन स्वरों ने मशीन को इतना सच्चा, इतना मौलिक और इतना जीवंत डाटा खिला दिया कि स्वयं सिस्टम को ही प्रामाणिकता प्रिय लगने लगी। मौलिक संस्कृति ने कोड को हैक कर लिया है, भले ही कुछ समय के लिए सही, मगर मैट्रिक्स टूटा तो है।

Post a Comment

Previous Post Next Post