सम्पादकीय
भारतीय न्यायालयों में लंबित मुकदमों की कहानी कोई नई बात नहीं है। अक्सर लोग शिकायत करते हुए कहते हैं, 'न्याय मिलता है, मगर देर से।' लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने जिस मुद्दे पर नाराजगी जताई, उसने इस कहावत को और भी कड़वा बना दिया। अदालत ने सख्त शब्दों में कहा कि निचली अदालतों को आरोप तय करने जैसे शुरुआती काम में तीन-चार साल नहीं लगाने चाहिए। जरा सोचिए, जब शुरुआत ही इतनी सुस्त हो, तो मुकदमे का अंत कब होगा?
मामला अमन कुमार नामक युवक से जुड़ा है। उसे अगस्त, 2024 में डकैती और हत्या के प्रयास के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। पुलिस ने अगले महीने चार्जशीट दाखिल कर दी। सामान्यत: उसके बाद अदालत को आरोप तय करने चाहिए थे, और मुकदमे की कार्यवाही को आगे बढ़ाना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ। अमन कुमार जमानत के लिए निचली अदालत और फिर पटना उच्च न्यायालय पहुंचा, पर दोनों जगह याचिका खारिज होने पर मजबूर होकर वह सुप्रीम कोर्ट की शरण में आया।
उसने कहा कि बिना आरोप तय किए उसे अनिश्चितकाल तक जेल में रखना न्याय के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी साफ झलकी। न्यायालय ने कहा—'आरोप तय करने में तीन-चार साल लग जाते हैं। यह क्या है? जैसे ही चार्जशीट दाखिल होती है, उसी समय आरोप तय हो जाने चाहिए। मुकदमे में देरी नहीं हो सकती।' अदालत ने यहां तक संकेत दिया कि यदि यही हालात रहे, तो वह निचली अदालतों के लिए समय-सीमा तय करने वाले दिशानिर्देश जारी करेगी।दरअसल, आरोप तय करना न्याय की पहली सीढ़ी है
। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता और अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में यह साफ-साफ लिखा है कि सेशन न्यायालय या मजिस्ट्रेट आरोपपत्र मिलने के बाद जल्द से जल्द आरोप तय करे। मगर हकीकत यह है कि यही बुनियादी काम वर्षों तक लटका रहता है। इस देरी का सबसे बड़ा खामियाजा उठाते हैं वे लोग, जिनके अपराध साबित भी नहीं हुए और जो वर्षों तक जेल में 'विचाराधीन कैदी' बने रहते हैं।भारत की जेलों में हर चार कैदियों में से तीन विचाराधीन कैदी हैं, जिनका दोष अभी सिद्ध नहीं हुआ।
भारत न्याय रिपोर्ट 2025 के अनुसार, देश की जेलों में 76 फीसदी कैदी विचाराधीन हैं। जस कॉर्पस लॉ जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया कि विचाराधीन कैदियों की संख्या में वृद्धि का कारण अपर्याप्त कानूनी सहायता और धीमी सुनवाई प्रक्रिया है। सोचिए, एक तरफ अपराध का दोष अभी साबित भी नहीं हुआ और दूसरी तरफ उनकी जिंदगी के कई साल सलाखों के पीछे कट जाते हैं। यह न केवल उनके मौलिक अधिकारों का हनन है, बल्कि पूरे न्याय तंत्र की छवि पर गहरा धब्बा है। संविधान का अनुच्छेद 21 हर नागरिक को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार देता है,
और सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार कहा भी है कि 'त्वरित न्याय' इसी अधिकार का हिस्सा है। फिर भी जमीनी हकीकत अलग कहानी कहती है।आरोप तय होने में देरी का एक दूसरा पहलू यह भी है कि इससे जेलों पर बोझ बढ़ता है। विचाराधीन कैदियों से जेलें भरी रहती हैं। सालों-साल ये विचाराधीन कैदी न्याय का इंतजार करते-करते अपनी जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा गंवा देते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि जेलें 131 फीसदी से अधिक क्षमता से भरी हुई हैं, जिनमें 5.5 लाख से ज्यादा विचाराधीन कैदी हैं। भारत की जेलों में क्षमता से अधिक कैदी के कारण वहांं भी एक तरह से अराजकता का वातावरण रहता है।सुप्रीम कोर्ट देरी से न्याय के संबंध में पहले भी चेतावनी दे चुका है। 1979 के हुसैनआरा खातून बनाम बिहार राज्य मामले में अदालत ने कहा था कि त्वरित न्याय मौलिक अधिकार है। काश्मीर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1977) और सुप्रीम कोर्ट लीगल एड कमेटी बनाम भारत सरकार (1994) मामले में भी अदालत ने साफ कहा था कि अनावश्यक देरी अस्वीकार्य है और ऐसी स्थिति में अभियुक्त स्वतः जमानत पाने का हकदार है। परंतु दशकों बाद भी हालात बदले नहीं हैं।
देरी का असर केवल अभियुक्त पर ही नहीं पड़ता। इससे अदालत के प्रति जनता का विश्वास भी डगमगाता है। जब लोग देखते हैं कि मुकदमा चलने में और न्याय होने में वर्षों लगते हैं, तो वे न्यायपालिका को धीमा और निष्प्रभावी मानने लगते हैं। अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं और पीड़ित पक्ष को लगता है कि न्याय मिलना मुश्किल है। जेलें भीड़ से भर जाती हैं और संसाधन बेकार होते हैं।अब सवाल उठता है कि आखिर इस समस्या का समाधान क्या है। सुप्रीम कोर्ट ने इशारा किया है कि वह समय-सीमा वाले दिशानिर्देश ला सकता है। यह बेहद जरूरी है। आरोप तय करने का काम चार्जशीट दाखिल होने के 60 दिनों के भीतर पूरा हो, ऐसी बाध्यता होनी चाहिए। अदालतें यदि देरी करें, तो उसका कारण लिखित रूप में दर्ज करें। ई-कोर्ट और डिजिटल मॉनिटरिंग से हर केस की प्रगति पर नजर रखी जा सकती है।
गंभीर अपराधों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाएं। और सबसे अहम, यदि आरोप तय करने में अनुचित देरी हो, तो अभियुक्त स्वतः जमानत का हकदार बने। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी हमें आईना दिखाती है। न्यायालयों की कार्यशैली में बदलाव लाना ही होगा। आरोप तय करने जैसी बुनियादी प्रक्रिया में ही वर्षों की देरी हमारे लोकतंत्र के लिए कलंक है। यह केवल अभियुक्तों के अधिकार का सवाल नहीं है, बल्कि न्याय-व्यवस्था पर समाज के विश्वास का भी प्रश्न है।इस देश में न्याय को देवता माना जाता है। यदि वही देवता देर से जागे, तो श्रद्धा कमजोर होती है। इसलिए यह क्षण केवल नाराजगी का नहीं, बल्कि ठोस सुधार का होना चाहिए। अदालतें और सरकार मिलकर समय-सीमा आधारित व्यवस्था लागू करें, ताकि न्याय का पहिया फिर से गतिमान हो सके। हमें यह याद रखना होगा कि न्याय में देरी, दरअसल न्याय से वंचित करना है। और जब न्याय ठहर जाता है, तो लोकतंत्र की आत्मा भी घायल हो जाती है।

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