[धरती आबा बिरसा मुंडा: जनजातीय अस्मिता के अमर प्रहरी]
[जब धरती ने जन्म लिया इंसान बनकर — धरती आबा बिरसा मुंडा]
कभी-कभी धरती खुद एक मनुष्य के रूप में जन्म लेती है — अपने जंगलों, नदियों और जनजातियों के अधिकार की रक्षा करने के लिए। बिरसा मुंडा ऐसे ही धरती के पुत्र थे, जिन्हें लोग स्नेह से धरती आबा कहते हैं। जब आदिवासियों की मिट्टी छीनी जा रही थी, जब जंगलों की सांसें सरकारी आदेशों में कैद हो रही थीं, जब जनजातीय अस्मिता को “असभ्यता” कहकर कुचला जा रहा था — तभी धरती ने अपने आँचल से बिरसा को जन्म दिया, ताकि वह अपनी संतानों को जगाकर कह सके — “यह धरती तुम्हारी है, किसी शासक की नहीं।”
15 नवम्बर 1875 को झारखंड के उलीहातू गाँव में जन्मे बिरसा मुंडा वास्तव में असाधारण व्यक्तित्व थे। बचपन की गरीबी, अन्याय और शोषण ने उनके भीतर ऐसी अग्नि प्रज्वलित की, जो आगे चलकर ‘उलगुलान’ अर्थात् महाविद्रोह में बदल गई। यह विद्रोह केवल शासन के विरुद्ध नहीं था, बल्कि आत्मा की स्वतंत्रता का उद्घोष था। बिरसा ने अपने लोगों को जगाया और सिखाया कि वे केवल जंगलों के वासी नहीं, बल्कि उसके रक्षक हैं। उनकी गर्जना गूँजी — “हम अपनी जमीन, अपने जंगल और अपनी पहचान की रक्षा करेंगे, चाहे इसके लिए प्राण ही क्यों न देने पड़ें।”
बिरसा मुंडा का आंदोलन केवल अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नहीं था, बल्कि उस मानसिकता के विरुद्ध था जो सदियों से आदिवासियों को हीन समझती आई थी। उन्होंने धर्म के नाम पर फैले अंधविश्वासों को तोड़ा, भय की जंजीरों को तोड़ा और अपने समाज में आत्मविश्वास का संचार किया। उनका उद्घोष — “अबुआ दिसुम, अबुआ राज” (हमारा देश, हमारा राज) — आज भी जनजातीय स्वाभिमान और गौरव की गूंज बनकर पूरे भारत में प्रतिध्वनित होता है।
उनका जीवन भले ही छोटा था — मात्र 25 वर्षों का, परंतु जिनकी सोच युगों को दिशा देती है, उनके लिए उम्र नहीं, विचारों की गहराई मायने रखती है। शरीर को कैद किया जा सकता है, किंतु विचारों की उड़ान को नहीं। 1900 में रांची जेल की दीवारों के भीतर बिरसा का देहांत हुआ, पर उनकी आत्मा आज भी जंगलों की सरसराहट में, पहाड़ियों की गूँज में जीवित है। जब-जब कोई जनजाति अपनी पहचान के लिए उठ खड़ी होती है, जब-जब कोई अन्याय के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करता है — तब धरती की गोद में कहीं न कहीं धरती आबा मुस्कराते हैं, जैसे कह रहे हों — “मैं अब भी यहीं हूँ, तुम्हारे संग, तुम्हारे भीतर।”
2021 में भारत सरकार ने 15 नवम्बर को जनजातीय गौरव दिवस घोषित किया। 2025 में उनकी 150वीं जयंती मना रहे हैं। लेकिन यह सिर्फ सरकारी आयोजन नहीं है, यह उस आग की याद है जो बिरसा ने प्रज्वलित की थी। आज जब हम “स्मार्ट सिटी” और ऊँची इमारतों की बात करते हैं, तो भूल जाते हैं कि उन नींवों में किसी आदिवासी मज़दूर का पसीना मिला है। असली बुद्धिमत्ता तो उन्हीं की थी, जिन्होंने बिना मशीनों के जंगलों को जीवित रखा।
असली गौरव तब होगा जब हर आदिवासी गाँव में शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली की सुविधा होगी — और सबसे बढ़कर, उसकी भूमि उसी की रहेगी। बिरसा मुंडा को सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब हम उनके सपनों को जीएँगे, न कि केवल उनकी मूर्ति बनाकर, उनकी मूर्ति के आगे दीप जलाएँगे।
बिरसा ने हमें सिखाया कि विकास का अर्थ केवल सड़कें और बिजली नहीं है। विकास का अर्थ है — हर बच्चे को अपनी भाषा में शिक्षा का अधिकार हो, हर स्त्री को अपने जंगल से लकड़ी लाने की स्वतंत्रता हो, हर किसान को अपनी मिट्टी पर स्वामित्व का हक़ हो। उनका संदेश स्पष्ट था — “यदि तुम प्रकृति को लूटोगे, तो प्रकृति तुम्हें लूटेगी।” उन्होंने साबित कर दिया कि सच के साथ खड़ा एक अकेला इंसान भी सत्ता की नींव हिला सकता है।
आज का भारत जब “विकास” की परिभाषा को ऊँची इमारतों और चमकती सड़कों में खोज रहा है, तब बिरसा मुंडा की विरासत हमें यह स्मरण कराती है कि सच्ची प्रगति वही है, जो प्रकृति के साथ कदम मिलाकर चले, उसके विरुद्ध नहीं। उन्होंने सिखाया कि धरती माता हमारी संपत्ति नहीं, हमारी जिम्मेदारी है। उन्होंने दिखाया कि शिक्षा, एकता और आत्मसम्मान किसी भी तलवार से अधिक शक्तिशाली हैं।
बिरसा मुंडा का जीवन एक प्रश्न की तरह आज भी हमारे सामने है — क्या हम उस समाज के लिए खड़े हैं, जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन न्योछावर किया? क्या हम उस धरती की रक्षा कर रहे हैं, जो उनके नाम से पहचानी जाती है? उनकी 150वीं जयंती केवल दीप जलाने या भाषण देने का अवसर नहीं, बल्कि एक संकल्प का क्षण है — उस भारत के निर्माण का, जहाँ हर जनजाति, हर समुदाय, हर व्यक्ति को अपनी पहचान पर गर्व हो।
धरती आबा ने कहा था — “मिट्टी का कर्ज चुकाना है, तो उसकी इज़्ज़त करना सीखो।” यही वह अमर संदेश है जो हमें नई दिशा देता है। आज जब देशभर में जनजातीय गौरव वर्ष मनाया जा रहा है, यह केवल सम्मान नहीं, बल्कि पुनर्जागरण का समय है — जब हम धरती आबा के उस स्वप्न को साकार कर सकते हैं जिसमें विकास और संस्कृति, आधुनिकता और परंपरा, मनुष्य और प्रकृति — एक साथ आगे बढ़ते हैं।
धरती आबा का नाम अब इतिहास की सीमाओं में नहीं, बल्कि हर उस हृदय में धड़कता है जो समानता, स्वतंत्रता और प्रकृति से प्रेम करता है। वह आज भी जीवित हैं — हर जंगल की हरियाली में, हर पहाड़ी की ठंडी हवा में, और हर उस बच्चे की मुस्कान में जो अपनी मिट्टी पर गर्व करता है।बिरसा मुंडा केवल एक व्यक्ति नहीं — वे भारत की आत्मा हैं। धरती आबा अमर रहें।
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