सम्पादकीय
उम्र बढ़ना दरवाजों के बंद होने की नहीं, बल्कि नए दरवाजे खोलने की प्रक्रिया है। जिंदगी में किसी चीज का अंत नहीं होता, सिर्फ बदलाव होता है और उसी में जीवन की सबसे चमकदार रोशनी छिपी होती है।
जब हम जवान होते हैं, तब हमें हमेशा लगता है कि असली जिंदगी अभी शुरू ही नहीं हुई है। हम सोचते रहते हैं कि असली जिंदगी अगले हफ्ते, अगले महीने, अगले साल, या फिर किसी लंबी छुट्टी के बाद शुरू होगी। और इसी इंतजार में आधी से ज्यादा उम्र निकल जाती है। फिर एक दिन अचानक महसूस होता है कि हम तो ताउम्र यही सोचते रह गए, लेकिन वह ‘सही वाली जिंदगी’ तो कभी आई ही नहीं। तब मन पूछता है, जो समय बीत गया, वह बेचैनी, वह सपनों के पीछे दौड़ना, वह भागमभाग, आखिर था क्या?
बचपन से बताया जाता है कि हमें जिंदगी में कई कॅरिअर बदलने पड़ेंगे, लेकिन कोई यह नहीं बताता कि उनके साथ हम नए इन्सान भी बनेंगे। हम हर मोड़ पर बदलेंगे, टूटेंगे, और फिर नए रूप में तैयार होंगे। बीस की उम्र में लगता है कि हम कुछ नहीं बन पाएंगे, पच्चीस में लगता है कि कुछ बड़ा करना हमारे बस की बात नहीं, और तीस आते-आते एहसास होने लगता है कि सफलता तो छोड़ो, क्या असली संतोष भी मिल पाएगा? पैंतीस के पड़ाव पर हम सोचते हैं कि अब सब तय हो चुका है, और यही हमारी किस्मत है, और हम परिस्थितियों से समझौता कर लेते हैं।
पर सच तो यह है कि इन्सान को लंबी उम्र इसलिए मिलती है कि वह हरदम सीखता रहे, बदलता रहे, और विकास करता रहे। यदि सीखना बंद कर दें, तो कहानी पचपन या शायद उससे पहले ही खत्म हो जाए। पर जिसने सीखते रहना चुना, वह वास्तव में कभी वृद्ध नहीं होता।
पचपन और पचहत्तर की उम्र में फर्क सिर्फ समय का नहीं, बल्कि उन नई चीजों का भी है, जो हमने खुद में जोड़ीं, उन अनुभवों का है, जो हमने जुटाए, उन रिश्तों का है, जिन्हें हमने कमाया। यही तो जीवन है। जीवन के हर दशक में एक नई पारी शुरू होती है। उम्र बढ़ना दरवाजों के बंद होने की नहीं, बल्कि नए दरवाजे खोलने की प्रक्रिया है। जिंदगी में किसी चीज का अंत नहीं होता, सिर्फ बदलाव होता है। और उसी में जीवन की सबसे चमकदार रोशनी छिपी है।चालीस का पड़ाव युवाओं के लिए वृद्धावस्था की उम्र है, जबकि पचास में बुजुर्गों की जवानी शुरू होती है।

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