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गुरु गोलवलकर की अगुवाई में संघ के ‘मिशन कश्मीर’ की मुकम्मल कहानी The complete story of the Sangh's 'Mission Kashmir' under the leadership of Guru Golwalkar

 प्रणव बजाज

माधव सदाशिवराव गोलवलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक पद के लिए एकमात्र विकल्प नहीं थे लेकिन उन्हें इस पद पर चुना गया और उन्होंने कठिन दौर में संगठन का नेतृत्व किया और उसे आकार दिया। 

आरएसएस के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने जून 1940 में अपनी मृत्यु से पहले जंतुविज्ञान के प्रोफेसर गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी चुना था।


माधव सदाशिवराव गोलवलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक पद के लिए एकमात्र विकल्प नहीं थे लेकिन उन्हें इस पद पर चुना गया और उन्होंने कठिन दौर में संगठन का नेतृत्व किया और उसे आकार दिया। वरिष्ठ पत्रकार सुधीर पाठक ने ऐसा दावा किया है।

आरएसएस के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने जून 1940 में अपनी मृत्यु से पहले जंतुविज्ञान के प्रोफेसर गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी चुना था।

उस समय 34 वर्ष के रहे गोलवलकर 1925 में संघ की स्थापना के बाद से संगठन से तब तक जुड़े नहीं थे।

पाठक ने कहा कि वह रामकृष्ण मिशन जैसे संगठन में शामिल होने के इच्छुक थे और उन्होंने संन्यासी बनने के बारे में भी सोचा था।

पाठक के अनुसार अगले आरएसएस प्रमुख के लिए अप्पाजी जोशी जैसे अन्य संघ पदाधिकारियों के नामों पर भी विचार किया गया था। गोलवलकर उस समय संगठन के सरकार्यवाह थे, लेकिन कुछ नेता उनसे वरिष्ठ भी थे।

लेकिन अंततः हेडगेवार ने निर्णय लिया कि गोलवलकर को संघ की कमान संभालनी चाहिए। गोलवलकर, जिन्हें ‘गुरुजी’ के नाम से जाना जाता था, 1973 में अपनी मृत्यु तक इस पद पर रहे।

पाठक ने बताया कि आरएसएस प्रमुख के रूप में, गोलवलकर का ध्यान शाखाओं के नेटवर्क का विस्तार करने और ‘व्यक्तित्व निर्माण’ या अपने स्वयंसेवकों के चरित्र निर्माण पर था, जिस पर हेडगेवार ने ज़ोर दिया था।

पाठक के अनुसार 1942 में जब महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, तो गोलवलकर को एक बड़े नीतिगत फैसले का सामना करना पड़ा और यह सवाल उठा कि क्या आरएसएस को इस आंदोलन में शामिल होना चाहिए। गोलवलकर ने फैसला किया कि संघ इस आंदोलन का हिस्सा नहीं होगा, हालांकि इसके सदस्य व्यक्तिगत रूप से इसमें भाग ले सकते हैं।

पाठक ने बताया कि कुछ आरएसएस स्वयंसेवकों ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। उन्होंने बालासाहेब देशपांडे जैसे लोगों का उदाहरण दिया, जिन्होंने नागपुर जिले के रामटेक तहसील कार्यालय से ब्रिटिश झंडे यूनियन जैक को हटा दिया था।

उन्होंने बताया कि संघ स्वयंसेवकों ने चिमूर-आष्टी आंदोलन में भी भाग लिया था, जिसमें तीन आरएसएस स्वयंसेवकों सहित सात लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी, लेकिन बाद में प्रिवी काउंसिल से उन्हें राहत मिल गई थी।

पाठक ने कहा कि गोलवलकर 1947 में विभाजन के पक्ष में नहीं थे, लेकिन संघ इसका प्रभावी ढंग से विरोध करने की स्थिति में नहीं था।

जल्द ही, आरएसएस को अपनी सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा जब जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई और सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया।

पाठक के अनुसार, गोलवलकर ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल और महात्मा गांधी के परिवार के सदस्यों को तार भेजकर गांधी की मृत्यु पर शोक व्यक्त किया।

हालांकि, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मध्य प्रदेश के बैतूल और सिवनी की जेलों में रखा गया। 5 फरवरी, 1948 को आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

जेल से, गोलवलकर ने सरकार से पत्र-व्यवहार किया और प्रतिबंध हटाने का अनुरोध किया, जिसे वह अवैध मानते थे।

वरिष्ठ पत्रकार के अनुसार, नवंबर 1948 में आरएसएस स्वयंसेवकों ने ‘शाखा’ के लिए एकत्रित होकर सत्याग्रह शुरू किया। तीन महीने बाद, सरकार ने संगठन से एक लिखित संविधान बनाने को कहा।

गोलवलकर ने जेल से ही एक संविधान का मसौदा तैयार किया और उसे सरकार को सौंप दिया। इसके बाद, आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा लिया गया और उन्हें रिहा कर दिया गया।

पाठक ने बताया कि गोलवलकर की सरदार पटेल से मुलाकात के बाद, आरएसएस के प्रति सरकार का रवैया थोड़ा बदल गया।

पाठक ने बताया कि 1948 से 1950 का समय आरएसएस के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण था क्योंकि जनमत इसके खिलाफ था, लेकिन गोलवलकर इस संकट को टालने में कामयाब रहे और उन्होंने संगठन को एक नई दिशा दी

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