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बाबू भाई का विरह सुख ......Babu Bhai's separation happiness...

 


                       रवि उपाध्याय 

प्रत्येक आदमी के जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जिनका होना भी बहुत ही जरूरी होती हैं। इनके बिना सदियों से जीवन अधूरा ही माना जाता है। यह वह घटनाएं होती हैं जो जीवन चक्र को गति देने के लिए अपरिहार्य होती हैं। इनमें एक ऐसी महत्वपूर्ण घटना होती है जिससे व्यक्ति को बहुत खुशी मिलती है और वह घटना है विवाह। जब किसी युवा का विवाह होता है तो वह खुशी से हवा में ऐसा तैरता हुआ महसूस करता है। इसकी तुलना उन अंतरिक्ष यात्रियों से कर सकते हैं जैसे हम अंतरिक्ष यात्री को अंतरिक्ष यान में उड़ते हुए देखते हैं। 

वह दिन में ही सुनहरे सपने देखने लगता है । उसे हवा में चंदन की सुरभि तैरती सी लगती है। ऐसे समय में उस की मन:स्थिति, फिल्म गीत गाता चल के गाने के गाने - मैं वही,दर्पण वही, न जाने ये क्या हो गया कि सब कुछ लागे नया नया, जैसी हो जाती है। पतझड़ में भी उसे बहार लगती है। उसका मन मयूर ठुमक ठुमक कर जब तब नाच उठता है। विवाह के बारे में एक कहावत है कि वो ऐसा लड्डू है जो खाए वो भी पछताए और जो ना खाए वो भी पछताए।


जब विवाह को पांच -सात साल हो जाएं तो फिर स्थिति शीर्षासन करने लगातीं है। ऐसे समय में स्वाभाविक स्थितियों में व्यस्त हो जाता है। वह व्यस्तताओं को खुशी खुशी ओढ़ता चला जाता है और उसे लगता है कि यह ब्रह्मांड उसी के कांधों पर टीका हुआ है और वह इस दुनिया का एक मात्र एटलस है जिसने ग्लोब को धारण कर रखा है। 


शादी के बाद व्यक्ति को जो खुशियां मिलतींं हैं उनमें सबसे बड़ी वह खुशी होती है जब सालों बाद मिसिस का पति देव को छोड़ कर मायके सहित किसी अन्य जगह जाना होता है। ऐसे समय में पति को जो परमानंद की अनुभूति होती होती है। वह शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल होता है। उसके इस आनंद की अनुभूति को इस भजन की चंद लाइनों से व्यक्त किया जा सकता है। इस भजन के बोल हैं सूरज से तपते तन को मिल जाए जैसे तरुवर की छाया, ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है मैं जब से शरण तेरी आया, मेरे राम।


उसके इस आनंद को कुछ इसी तरह के परमानंद की अनुभूति इन दिनों हमारे मित्र बाबू भाई महसूस कर रहे हैं । वे हाल ही में हमारी भाभी जी को हवाई जहाज से उनके गंतव्य तक छोड़ने गए थे। दिल इस खुशी के बदले बार बार हाई जंप कर रहा था। वे बैठे तो विमान थे लेकिन उनका मन विमान की गति से भी तेज गति उड़ा जा रहा था। वो गंतव्य तक मिसिस को पहुंच कर लौटे तो वे बार बार पीछे पलट पलट कर देख रहे थे कि कहीं भाभी जी लौट कर तो नहीं आ रही हैं। घर लौट कर आने के बाद बाबू भाई ने राहत की गहरी सांस ली। 


आज बाबू भाई को बैचलर लाइफ़ जीते हुए महीना भर होने को आ रहा है। वे बड़े खुश हैं। सुबह और शाम बादाम और काजू का नाश्ता हो रहा है। बादाम का दूध पीया जा रहा है। रात को गहरी नींद आ रही है। भाई बताते हैं कि वे पहले सुबह 11 बजे सो कर जागते थे। अब वे रात को बिना किसी टोका टाकी के गहरी नींद लेते हैं। अल सुबह 6 बजे उठ कर गृहस्थ धर्म का पालन करते हैं। वे बिना किसी रोक टोक के जहां जाना होता है जाते हैं। जो खाना होता है खाते हैं। उन्हें ऐसा लग रहा है कि यदि स्वर्ग कहीं है तो यहीं है। हमीं अस्तो हमीं अस्तो । हमने पूछा बाबू भैया और क्या करते हैं । वे बड़ी शान से इतराते हुए बोले - खाते हैं पीते हैं, ऐश करते हैं और क्या ? 


बाबू भैया अपनी दिन चर्या बताते हुए बोले दोपहर बाद शाम 4 बजे ओट्स या दलिया खाते हैं। उन्होंने ने बताया कि वे इन दिनों बहुत नई स्फूर्ति का अनुभव कर रहे हैं। हमने कहा बाबू भैया आपके गाल भी लाल हो गए हैं। वे बोले सेहत बना रहे हैं। गिजा खा रहे हैं। बाबू भैया बोले हर शादी शुदा से दिल की बात पूछो कि वे क्या चाहते हैं तो धीरे से कहेगा आज़ादी। हमने पूछा किस से आज़ादी ? वे आंखें तरेर कर बोले तुम जैसे बुड़बक से, नासमझ कहीं के।


उन्होंने बताया कि वे गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए मोबाइल से दिन में दो बार भाभी जी को दिलासा देते हैं कि मेरी चिंता कतई न करें। आप अपने कर्तव्य को निभाए में यहां ठीक हूं। तुम्हारे यह त्याग कर रहा हूं। आप आराम से आएं, कोई जल्दी नहीं है। फोन पर बात करते समय बाबू भाई परिपक्वता और पूर्ण जिम्मेदारी से भाभी जी से बात करते हैं ताकि वे अपना हौंसला बनाए रखें। ऐसा न हो कि वे सुबह वाली गाड़ी से आ धमके। दोस्तों इन स्वर्णिम काल के आनंद को वही व्यक्ति महसूस कर सकता है जो इस तरह के स्वर्णिम काल का रसास्वादन किया हो। बंदर क्या जाने अंदर का स्वाद।


बाबू भैया जिस दौर से गुज़र रहे हैं इस दौर से कई महा पुरुष गुजरे हैं। इस स्वर्णिम काल की तलाश सभी को रहती है। भले वे कहें या नहीं पर दिल तो यही चाहता है। इस स्वर्णिम काल को नेहरू जी ने भी जिया है। राष्ट्रपिता ने अफ्रीका में जिआ है। संत तुलसी दास ने और उनके आराध्य रामजी, लक्ष्मण और महादेव ने भी जिआ है। योगी राज ने भी इसे जिआ है। सिद्धार्थ इसे जी कर गौतम बुद्ध बन गए। तो हमारे बाबू भाई का यह त्याग अमन की खोज में बड़ा प्रयास है। परंतु इस की परिणिति अन्ततः पुनः मूषक भव: जैसी ही होनी है। तो बंधुओं यही वैवाहिक जीवन का सार है। शादी का लड्डू खाने के बाद सभी विवाहितों की आत्मा शांति की तलाश में भटकती ही रहती है और उसे शांति की प्राप्ति वहीं मिलती है जहां से हम चले थे। कितना ही खुश हो जाएं बंधना इसी खूंटे से। वो आत्मा आप का पीछा नहीं छोड़ने वाली।


(लेखक एक व्यंग्यकार और राजनैतिक समीक्षक हैं। )

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