अमेय बजाज
Mitrokhin Archive – II की थीम से प्रेरित भारतीय–सोवियत कहानी पूर्णतः काल्पनिक कथा है जिसमें “भारत लगभग बिक गया” जैसी बातें सिर्फ़ थ्रिलर–शैली की कल्पना हैं।
मॉस्को, 1992 सर्द हवा बर्फ के महीन कणों को धकेलती हुई ब्रिटिश दूतावास की ऊँची दीवारों से टकरा रही थी। इसी ठंड के बीच एक दुबला-पतला वृद्ध एक भारी लोहे का ट्रंक घसीटते हुए दूतावास में प्रवेश करता है। यह ट्रंक किसी साधारण वस्तुओं का संग्रह नहीं था। इसमें छिपे थे सोवियत खुफ़िया दुनिया के अँधेरे, इतिहास के धुँधले कोनों में दबे वे रहस्य, जिनकी भनक शायद ही किसी राष्ट्र को कभी लगी हो।
ट्रंक के भीतर वासिली मित्रोखिन की वर्षों की मेहनत से नकल किए गए काग़ज़ थे—पेचीदा नोट्स, कोडनाम, स्थानचिह्न, गुप्त ऑपरेशनों की सूचियाँ, और भारत से जुड़ी एक मोटी फ़ाइल जिसका शीर्षक था:
“ऑपरेशन व्योम : भारत — एक असफल सौदा।”
यही कहानी आगे खुलती है—पूर्णतः काल्पनिक, पूरी तरह थ्रिलर-शैली में, उस वातावरण से प्रेरित जो शीतयुद्ध के धुएँ में छिपा रहा
लाल परछाइयों का उदय**
1969 का भारत राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक तनाव और वैचारिक खींचातानी से गुजर रहा था। ऐसे समय में KGB ने नई दिल्ली को दक्षिण एशिया का सबसे महत्वपूर्ण मोर्चा माना। सोवियत दूतावास के भीतर एक विशाल “रेजिडेंसी” काम कर रही थी—जो व्यवहार में एक राज्य के भीतर दूसरा राज्य थी। इसके कमरों में टंकण मशीनें लगातार चलती रहतीं, और गोपनीय रिपोर्टें रोशनी की तरह पसरती जातीं।
सोवियत विश्लेषकों की दृष्टि में भारत उस युग का सबसे बड़ा अवसर था—राजनीतिक रूप से जटिल, लेकिन सामरिक रूप से अनिवार्य। एक ओर पश्चिमी शक्तियाँ भारत को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाना चाहती थीं, दूसरी ओर सोवियत संघ उसे “रणनीतिक साझेदार” के रूप में देखना चाहता था। इसी प्रतिस्पर्धा के बीच ऑपरेशन व्योम का जन्म हुआ।
नियंत्रण का खाका**
ऑपरेशन व्योम की असली योजना सार्वजनिक दस्तावेज़ों में कभी दिखाई नहीं दी। यह केवल उन “इंटरनल स्ट्रैटेजिक फ़्रेमवर्क” का हिस्सा था, जिन्हें केवल कुछ चुनिंदा सोवियत विश्लेषक ही पढ़ते थे।
इस योजना का मूल उद्देश्य भारत को एक खुला सहयोगी बनाने के बजाय एक निर्भर राष्ट्र बनाना था। निर्भरता की परिभाषा किसी औपचारिक अधीनता से नहीं, बल्कि उन संस्थागत धागों से थी जो धीरे-धीरे किसी देश की नीतियों को नियंत्रित कर लेते हैं।
योजना के तीन स्तंभ थे—
(1) वैचारिक प्रभाव का विस्तार
भारतीय राजनीतिक दलों, विशेषकर वामधाराओं और कुछ क्षेत्रीय शक्तियों में वैचारिक सहानुभूति बनाना।
गुप्त प्रकाशन तंत्र के माध्यम से समाचारपत्रों और शोधसमूहों को “सामग्री” देना।
(2) आर्थिक संरचनाओं में पैठ
शहरी विकास योजनाओं, ऊर्जा परियोजनाओं और रक्षा-उद्योग को ऐसे सहयोगी मॉडल में ढालना, जिसमें भारत सोवियत विशेषज्ञता पर स्थायी रूप से निर्भर हो जाए।
(3) प्रशासनिक सलाहकारों का प्रविष्टि-मार्ग
यह सबसे संवेदनशील भाग था—एक “आपातकालीन स्थिरीकरण ढाँचा” तैयार करना, जिसमें राजनीतिक उथल-पुथल होने पर भारत के रणनीतिक क्षेत्रों में सोवियत “सलाहकारों” को अस्थायी अधिकार दिए जा सकें।
यही वह बिंदु था जहाँ योजना ने एक खतरनाक मोड़ लिया।
यह केवल प्रभाव का विस्तार नहीं, बल्कि एक प्रकार की “परदे के पीछे से शासन-भागीदारी” थी, जो किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए अदृश्य खतरा बन सकती थी।
निर्णायक दशक
1971 का भारत युद्ध की दहलीज़ पर खड़ा था। पूर्वी पाकिस्तान में हिंसा बढ़ती जा रही थी, लाखों शरणार्थी भारत में आ रहे थे। इस तनावपूर्ण समय में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत लगभग अकेला था। पश्चिमी देश राजनीतिक दबाव और सैन्य संतुलन के आधार पर भारत का समर्थन करने में झिझक रहे थे।
इसी पृष्ठभूमि में भारत–सोवियत मैत्री संधि हुई। इससे भारत को रणनीतिक सुरक्षा मिली, और सोवियत संघ को अपना सबसे बड़ा भू-राजनीतिक साथी।
यही वह समय था जब KGB ने माना कि भारत अब सोवियत प्रभाव क्षेत्र का स्थायी हिस्सा बन सकता है।
स्थिति का लाभ उठाते हुए “ऑपरेशन व्योम–β” की तैयारी शुरू हुई—एक उप–योजना जो अधिक गहन आर्थिक और प्रशासनिक सम्पर्कों को मजबूत करने पर आधारित थी।
हालाँकि, यह योजना वास्तविक नीतिगत स्तर तक कभी नहीं पहुँची। इसे सोवियत आंतरिक तंत्र में ही सीमित रखा गया। लेकिन काल्पनिक कथा के अनुसार, यही वह बिंदु था जहाँ भारत के “लगभग बिक जाने” का विचार एजेंसी-मस्तिष्कों में उपजा
आपातकाल का अँधेरा
1975 में घोषित आपातकाल ने स्थिति को नई दिशा दी।
देश के भीतर लोकतांत्रिक संस्थाएँ सीमित हो गईं।
विदेशी एजेंसियाँ इसे अवसर और संकट दोनों की तरह देख रही थीं।
कई देशों की ख़ुफ़िया एजेंसियाँ मान बैठीं कि यह भारत के राजनीतिक ढांचे में प्रवेश करने का सबसे अनुकूल क्षण है।
इसी समय KGB ने भारत में अपने कुछ पुराने संपर्कों और सहयोगियों को सक्रिय करने की कोशिश की।
कथा के अनुसार, सोवियत तर्क यह था कि राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति में वे भारत को “तकनीकी सलाहकारों” के माध्यम से स्थिरता प्रदान कर सकते थे।
यही वह विचार था जो भारत की सार्वभौमिकता के लिए सबसे बड़ा काल्पनिक खतरा बन सकता था।
योजना यह नहीं थी कि भारत को औपचारिक रूप से अपने नियंत्रण में लिया जाए, बल्कि यह कि उसकी नीतिगत मशीनरी को बाहरी सलाहकारों पर इतना निर्भर कर दिया जाए कि निर्णय भारत के भीतर न होकर बाहर से प्रभावित हों।
लेकिन भारत की वास्तविक राजनीतिक संरचना ने इसे कभी वास्तविकता बनने नहीं दिया।
भारतीय निर्णयकर्ता, संस्थाएँ, और देश का लोकतांत्रिक चरित्र किसी भी प्रकार की बाहरी पकड़ को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था।
वह दस्तावेज़ जो कभी सार्वजनिक नहीं हुआ**
कथा में उल्लेखित “फ़ाइल N-37” सोवियत आंतरिक विमर्श का सबसे महत्वाकांक्षी और विवादास्पद विचार था।
इसमें प्रस्तावित था कि भारत की कुछ महत्वपूर्ण नीतिगत इकाइयों—जैसे ऊर्जा आयोग, वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र, विदेश नीति समन्वय, और वित्तीय ढांचे—में सोवियत विशेषज्ञों को “स्थायी सलाह” की भूमिका दी जाए।
यह विचार किसी औपचारिक योजना का हिस्सा नहीं था।
यह केवल कुछ कट्टरपंथी नीति–निर्माताओं की कल्पना थी, जिसे सोवियत नेतृत्व ने कभी स्वीकार नहीं किया।
लेकिन विचार का अस्तित्व ही यह दर्शाता था कि कुछ शक्तियों ने भारतीय प्रशासन के भीतर उस स्थान को देखना शुरू कर दिया था, जहाँ प्रभाव धीरे-धीरे नियंत्रण का रूप ले सकता था।
काल्पनिक कथा का यह हिस्सा दर्शाता है कि किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा खतरा प्रत्यक्ष आक्रमण नहीं, बल्कि धीमी, अचिह्ननीय निर्भरता होती है
सोवियत संघ का पतन और भारतीय अस्मिता की जीत**
1991 में सोवियत संघ का पतन हुआ।
मॉस्को की विशाल गगनचुंबी एजेंसी–इमारतें, जिनमें कभी योजनाएँ बनती थीं, अब इतिहास का हिस्सा बन गईं।
नई दिल्ली में कभी सक्रिय रहने वाली “रेजिडेंसी” लगभग खाली हो गई।
मित्रोखिन के नोट्स बतलाते हैं—काल्पनिक कथा के अनुसार—कि सोवियत संघ भारत को प्रभावित करने के अपने बड़े–बड़े दावों को बार-बार बढ़ा-चढ़ाकर लिखता रहा।
वास्तविकता यह थी कि भारत ने किसी भी गहरी हस्तक्षेपकारी योजना को कभी स्वीकार ही नहीं किया।
भारत की राजनीतिक परंपरा, बहुदलीय व्यवस्था, और संस्थागत जटिलता इतनी मजबूत थी कि किसी भी विदेशी शक्ति के लिए उसे नियंत्रित करना असंभव था।
सोवियत संघ का पतन प्रतीकात्मक रूप से यह भी दर्शाता है कि राष्ट्रों की नियति बाहरी शक्तियों के हाथों में नहीं, बल्कि उनकी आंतरिक जीवटता, असहमति की संस्कृति और लोकतंत्र की बहस में छिपी होती है।
भारत उस बहस का सबसे जीवंत उदाहरण था।
उपसंहार : एक गणराज्य की नीलामी रुक चुकी थी**
कथा का निष्कर्ष सरल था—
भारत को कभी बेचा नहीं जा सकता था,
क्योंकि भारत किसी एक हाथ में समाहित होने वाला राष्ट्र था ही नहीं।
उसकी राजनीति बहुस्तरीय थी,
उसकी जनता प्रश्न करने वाली थी,
उसकी संस्थाएँ स्वायत्त थीं,
और उसकी आत्मा अनियंत्रित थी।
आज मित्रोखिन के ट्रंक से निकले काग़ज़ हमें यह याद दिलाते हैं कि किसी राष्ट्र का पतन बाहरी आक्रमण से नहीं, बल्कि भीतर की चुप्पी से होता है।
जिस दिन कोई देश प्रश्न पूछना छोड़ देता है, वही दिन उसकी नीलामी का पहला दिन होता है।
लेकिन भारत ने कभी प्रश्न पूछना नहीं छोड़ा।
इसीलिए गणराज्य बचा रहा।
और “ऑपरेशन व्योम” केवल एक असफल, धुँधली, इतिहास के कोनों में दबी हुई कल्पना बनकर रह गया।

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