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भारतीय शहरों का असली संकट: घरेलू ऋण 2015 की तुलना में अब काफी अधिक, ज्यादातर खर्च अनुत्पादक उद्देश्यों परThe real crisis of Indian cities: household debt is much higher now than in 2015, mostly spent on unproductive purposes

 शाहजी केतके 

भारत के शहर लाखों लोगों के लिए महंगे साबित हो रहे हैं। आर्थिक तंगी के चलते गुजर-बसर करने के लिए परिवारों को धीरे-धीरे कर्ज लेने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। शहरी गरीबों का जीवन हमेशा से ही अनिश्चित रहा है, लेकिन अब निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग भी इस परेशानी को महसूस कर रहे हैं और वे तेजी से मुखर हो रहे हैं। घर का किराया, किराने का सामान, स्कूल फीस, परिवहन और इलाज में आमदनी का इतना बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है कि वेतनभोगी लोगों को भी गुजारा करने के लिए उधार लेना पड़ रहा है। जीवनयापन के खर्च का संकट अब भविष्य का खतरा नहीं रहा, बल्कि मौजूदा संकट बन गया है।

पिछले दिनों दिल्ली में एक घातक विस्फोट हुआ, जिसमें 13 लोगों की मौत हो गई है और कई अन्य घायल हो गए हैं। आतंकवाद के भय के बीच लाखों लोगों का दैनिक जीवन उसी निरंतर वित्तीय तनाव से जूझ रहा है। प्रख्यात अर्थशास्त्री अजित रानाडे ने हाल ही में एक अखबार में प्रकाशित टिप्पणी में इन आंकड़ों को बेहद स्पष्टता से प्रस्तुत किया। लंबे समय से सतर्क बचतकर्ता माने जाने वाले भारतीय परिवार चुपचाप रिकॉर्ड स्तर पर कर्ज ले रहे हैं।भारतीय रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार, भारत में घरेलू ऋण 2024 के अंत में सकल घरेलू उत्पाद का 42 प्रतिशत हो गया, जो 2015 में केवल 26 प्रतिशत था। प्रति व्यक्ति औसत ऋण केवल दो वर्षों में 23 प्रतिशत बढ़ गया है, जो राष्ट्रीय आय से दोगुनी गति से बढ़ रहा है, और 2023 में 3.9 लाख रुपये से मार्च 2025 में 4.8 लाख रुपये हो गया है। इस उधारी का आधे से अधिक, यानी लगभग 55 प्रतिशत हिस्सा गैर-आवासीय खुदरा ऋणों जैसे क्रेडिट कार्ड बकाया, व्यक्तिगत ऋण, वाहन ऋण और स्वर्ण ऋण है, जबकि पारंपरिक आवास ऋण कुल घरेलू ऋण का केवल करीब 29 प्रतिशत ही है। रानाडे बताते हैं,

 समस्या घरेलू कर्ज नहीं, बल्कि इन कर्जों का उद्देश्य है। शिक्षा, आवास या छोटे व्यवसायों के लिए लिए गए ऋण भावी संपत्ति का निर्माण करते हैं। लेकिन उपभोग की खातिर लिए गए ऋण उत्पादक नहीं होते। जैसे-जैसे परिवार अपनी आय का ज्यादा हिस्सा व्यक्तिगत ऋणों और क्रेडिट कार्ड बिलों के भुगतान में खर्च करते हैं, उनके पास बचत या निवेश योग्य पैसा कम बचता है। बड़ी संख्या में परिवार रोजमर्रा के खर्चों-जैसे किराना, बिजली बिल, स्कूल फीस या स्वास्थ्य देखभाल के भुगतान के लिए ऋण ले रहे हैं। जैसा कि रानाडे कहते हैं, 'शहरी जीवन की लागत बढ़ रही है, और कर्ज इससे निपटने का एक जरिया बन गया है। दूसरी चिंताजनक बात परिवारों की वित्तीय बचत में गिरावट है।' युवा, वेतनभोगी उपभोक्ता अपनी वर्तमान जीवनशैली को बनाए रखने के लिए भारी मात्रा में कर्ज ले रहे हैं।एक आईआईटीयन ने हाल ही में एक्स पर पोस्ट किया, 'मैं धीरे-धीरे इस बात को स्वीकार कर रहा हूं कि भारत में जीवनयापन का खर्च बढ़ता जा रहा है-छोटे, टियर-3 शहरों में भी

। और सच कहूं तो, मुझे इस बात की चिंता होने लगी है कि निम्न और मध्यवर्ग कैसे गुजारा कर रहा है... या अगले कुछ वर्षों में वे कैसे गुजारा करेंगे। हो सकता है कि मैं बस भ्रम में हूं, और यह इतना बुरा भी न हो। मुझे नहीं पता, लेकिन कुछ तो गड़बड़ लग रही है। बंगलूरू में भी, मेरे किराने के बिल (जिसमें सिर्फ जरूरी चीजें शामिल हैं-कुछ भी लग्जरी नहीं) असामान्य रूप से ज्यादा लगने लगे हैं। बस, सामान्य फल, सब्जियां और रोजमर्रा की जरूरत की चीजें-फिर भी लगता है कि चीजें जितनी महंगी होनी चाहिए थीं, उससे कहीं ज्यादा महंगी हो गई हैं।' तो फिर, यह संकट भारत में सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा क्यों नहीं है? आम मेहनतकश भारतीयों की रोजमर्रा की चिंताओं की आवाज कौन उठा रहा है? न्यूयॉर्क शहर में, जोहरान ममदानी ने मेयर का चुनाव जीत लिया है, और उन्होंने वह काम किया है, 

जो सत्ता में बैठे ज्यादातर भारतीय राजनेता करने से कतराते हैं-उन्होंने इस संकट को रेखांकित किया। उनका प्रचार अभियान न्यूयॉर्क के मजदूर वर्ग की भौतिक सच्चाइयों के इर्द-गिर्द बुना गया था-स्थिर किराया, बच्चों की देखभाल की सार्वभौमिक व्यवस्था, मुफ्त सार्वजनिक बसें, शहर द्वारा संचालित किराना स्टोर, और अमीरों पर ज्यादा कर।ममदानी की अल्पसंख्यक पहचान (युगांडा में जन्मे और भारतीय मूल के मुसलमान) उनके अभियान की सफलता का एक प्रमुख कारक थी। इसने मुसलमानों, दक्षिण एशियाई और अप्रवासियों जैसे कम प्रतिनिधित्व वाले समूहों के मतदाताओं को उनके पक्ष में मोड़ दिया, लेकिन 2025 के न्यूयॉर्क शहर के मेयर चुनाव में उनकी जीत का यही एकमात्र कारण नहीं बना। वह इसलिए जीते, क्योंकि उन्होंने अपने मतदाताओं की आर्थिक पीड़ा के बारे में बात की तथा एक स्पष्ट एजेंडा पेश करके उन्होंने बताया कि वे क्या करने की योजना बना रहे हैं। भारत में ममदानी की जीत पर जो बहस चल रही है, उसमें उनके संबंधों और पहचान पर जोर है, जबकि उनके अभियान का मूल तत्व था-जीवनयापन की लागत पर साहसिक और बेबाक चर्चा। भारत को ममदानी के फॉर्मूले की नकल करने की जरूरत नहीं है। हमारे शहरों की अपनी वास्तविकताएं, अपनी सीमाएं और अपनी राजनीतिक संस्कृतियां हैं। हमें ममदानी व उन्हें चुनने वाले मतदाताओं से जो सीखने की जरूरत है, वह है उनके अभियान की ईमानदारी। उन्होंने बचने का कोई रास्ता नहीं अपनाया। उन्होंने कोई अस्पष्ट वादे नहीं किए

। उन्होंने संकट का जिक्र किया, उस पर बातचीत शुरू की और गुजारे के संकट को राजनीतिक एजेंडे का केंद्र बनाया। भारत में यही कमी है। कोई खाका नहीं, बल्कि एक हिसाब-किताब।ममदानी को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। शासन करना चुनाव प्रचार से ज्यादा कठिन है। उन्होंने वह काम पहले ही कर दिया है, जो भारतीय शहरी राजनीति करने में नाकाम रही है: उन्होंने जीवनयापन की लागत को एक जायज, जरूरी और केंद्रीय मुद्दा बना दिया है। उन्होंने आर्थिक पीड़ा को निजी बोझ नहीं, बल्कि सार्वजनिक चिंता माना है। किराये, भोजन, ईंधन और मजदूरी के बारे में स्पष्ट बोलने वाले उम्मीदवार दुनिया भर के मतदाताओं के बीच अपनी जगह बना रहे हैं।

 ममदानी का अभियान इसलिए कामयाब रहा, क्योंकि उन्होंने गरिमा, निष्पक्षता और संभावना की कहानी कही। इसने जीवनयापन को एक ऐसी लड़ाई जैसा बना दिया, जिसमें शामिल होना जरूरी है। भारतीय शहरों में वास्तविक संकट पहचान का नहीं, बल्कि जीवनयापन का है।

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