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1979 का वो फैसला सुप्रीम कोर्ट के लिए शर्मिंदगी का क्षण... किस केस का जिक्र कर सीजेआई ने ऐसा कहा?That 1979 decision was a moment of embarrassment for the Supreme Court... Referring to which case did the CJI say this?

 मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने सुप्रीम कोर्ट के 1979 के एक फैसले को संस्थागत शर्मिंदगी का क्षण बताया। यह फैसला एक आदिवासी लड़की के बलात्कार से जुड़ा था। इस फैसले ने देश को झकझोर दिया और महिला अधिकार आंदोलन को जन्म दिया।

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई ने सुप्रीम कोर्ट के 1979 के एक फैसले को 'संस्थागत शर्मिंदगी का क्षण' करार दिया है। यह फैसला एक आदिवासी लड़की के बलात्कार के मामले में दो पुलिसकर्मियों को बरी करने से जुड़ा था, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि चोट के निशान न होने के कारण लड़की की सहमति स्वैच्छिक मानी गई।


CJI गवई ने यह बात 30वें जस्टिस सुनंदा भंडारे मेमोरियल लेक्चर में कही, जहां उन्होंने बताया कि कैसे आम लोगों और नागरिक समाज की जागरूकता और हिम्मत ने न्यायपालिका को जवाबदेह बनाए रखा है। उन्होंने इस फैसले को न्यायपालिका की एक बड़ी विफलता बताया, जो लैंगिक समानता और समावेशी भारत के निर्माण की राह में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।

CJI गवई ने सुप्रीम कोर्ट के 1979 के 'तुकाराम बनाम महाराष्ट्र राज्य' मामले, जिसे 'मथुरा केस' के नाम से भी जाना जाता है, को एक ऐसी संस्थागत विफलता बताया जो न्यायपालिका की सोच में पिछड़ी और पितृसत्तात्मक सोच को दर्शाती थी। उनके अनुसार, इस फैसले ने उस सामाजिक हकीकत को नजरअंदाज कर दिया था जहां यौन हिंसा अक्सर शक्ति, दबाव और लाचारी के माहौल में होती है।

CJI गवई ने कहा, 'मेरी राय में, यह फैसला भारत के संवैधानिक और न्यायिक इतिहास के सबसे परेशान करने वाले क्षणों में से एक है। मैं इसे 'संस्थागत शर्मिंदगी का क्षण' कहता हूं, जब कानूनी व्यवस्था उस व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करने में विफल रही जिसकी रक्षा के लिए वह बनी थी।' उन्होंने कहा कि यह फैसला सिर्फ एक गलती नहीं था, बल्कि इसने देश को झकझोर दिया। जनता में भारी गुस्सा फैला और देशव्यापी विरोध प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों का नेतृत्व महिला समूहों, छात्रों और कानूनी कार्यकर्ताओं ने किया।

इसी विरोध ने आधुनिक भारतीय महिला अधिकार आंदोलन को जन्म दिया। इस आंदोलन ने देश को अपने आपराधिक कानूनों की कमियों पर सोचने पर मजबूर किया। इसके परिणामस्वरूप, आपराधिक कानूनों में ऐसे बदलाव किए गए जिन्होंने 'सहमति' की परिभाषा को फिर से परिभाषित किया और हिरासत में बलात्कार के खिलाफ कानूनी सुरक्षा को मजबूत किया।'लैंगिक न्याय के लिए कई महत्वपूर्ण कानून'

CJI गवई लिंग समानता और एक समावेशी भारत के निर्माण में कानून के विकास पर बात कर रहे थे। उन्होंने बताया कि लैंगिक न्याय के लिए कई महत्वपूर्ण कानून बनाए गए हैं। अदालतों ने भी अपने फैसलों से समानता सुनिश्चित करने में योगदान दिया है, सिवाय कुछ अपवादों के जैसे कि 1979 का वह फैसला। उन्होंने कहा कि इन प्रयासों से परिवार और रीति-रिवाजों में गहराई से बैठी संरचनात्मक असमानताओं को दूर करने में मदद मिली है। इसने महिलाओं को निर्भरता के हाशिये से निकालकर संवैधानिक नागरिकता के केंद्र में ला दिया है।

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