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बदलाव का वक्त आ गया है... नागरिकों की अपेक्षाओं और प्रशासन की क्षमताओं के बीच बेहतर तालमेल बिठाना अहम The time for change has come... It is important to strike a better balance between the expectations of citizens and the capabilities of the administration

सम्पादकीय

यूपीएससी परीक्षा की विसंगतियों को दूर कर ऐसे बदलाव हों, जो नागरिकों की अपेक्षाओं और प्रशासन की क्षमताओं के बीच बेहतर तालमेल बिठाते हों।

हाल ही में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर बताया कि वह प्रारंभिक परीक्षा की अंतरिम आंसर-की जारी करेगा। यह अच्छा निर्णय है, लेकिन एक दशक से ज्यादा पुराने हो चुके देश की सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा के प्रारूप में बदलाव का वक्त आ गया है। मौजूदा सिविल सेवा परीक्षा की जड़ें आजादी से पूर्व मैकाले समिति द्वारा तैयार की गई आईसीएस परीक्षा से जुड़ती हैं, जिसकी रिपोर्ट इस आधार पर थी कि ‘शैक्षणिक प्रतिभा को प्रशासनिक प्रतिभा में बदला जा सकता है।’

आजादी के बाद कुछ बदलाव के साथ वह योजना  1970 के दशक तक जारी रही। यद्यपि कुछ प्रतिभावान अभ्यर्थी सफल रहे, लेकिन ज्यादातर अभिजात वर्ग और अंग्रेजी माध्यम वाले अभ्यर्थी ही इससे लाभान्वित होते रहे। परीक्षा को सभी के लिए सुलभ बनाने के लिए सरकार ने 1974 में कोठारी समिति गठित की। समिति ने प्रारंभिक, मुख्य और साक्षात्कार की त्रिस्तरीय प्रक्रिया की अनुशंसा की। वर्ष 1988 में सतीश चंद्र समिति ने प्रारंभिक परीक्षा में निगेटिव मार्किंग, मुख्य परीक्षा में निबंध और व्यक्तित्व परीक्षण के अंक बढ़ाने जैसे आंशिक बदलाव के साथ कोठारी समिति की परीक्षा पद्धति को ही जारी रखने की सिफारिश की। यह योजना ग्रामीण, अर्धशहरी और मेट्रो शहरों यानी सभी तरह के अभ्यर्थियों के लिए सुलभ थी और कुछ हद तक सामान्य पृष्ठभूमि वाले अभ्यर्थी सफल भी हुए। वर्ष 2005 बैच के आईपीएस मनोज कुमार शर्मा, जिनके ऊपर 12वीं फेल फिल्म बनी, इसी योजना के जरिये सफल हुए।द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने 2009 में एसके खन्ना समिति गठित की। वर्ष 2011 में इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर वैकल्पिक पेपर को एक सामान्य पेपर से बदल दिया गया और प्रारंभिक परीक्षा को पुनर्गठित करके दो पेपरों को शामिल किया गया। इससे शहरी क्षेत्र और कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी ज्यादा लाभान्वित हुए। काफी विरोध के बाद कुछ परिवर्तनों के साथ 2013 में नया प्रारूप जारी हुआ, जो अब तक जारी है, लेकिन अब इस प्रारूप में कई सुधारों की आवश्यकता है।सबसे पहले, बीते एक दशक में अभ्यर्थियों की संख्या बढ़कर दोगुनी हो चुकी है, जबकि सीटें 750 से 1,000 के बीच ही हैं, जिनकी संख्या बढ़नी चाहिए। अभी प्रारंभिक परीक्षा में एक पेपर क्वालिफाइंग और दूसरा प्रतियोगी होता है। होना तो यह चाहिए कि सभी विषयों  को दोनों पेपरों में समान रूप से बांटकर, दोनों के अंकों के आधार पर मुख्य परीक्षा की पात्रता मिलनी चाहिए। मुख्य परीक्षा में भी कुछ बदलाव की जरूरत है। निबंध में एक विषय दार्शनिक दृष्टिकोण, तो दूसरा समसामयिक विषयों से संबंधित होना चाहिए।सामान्य अध्ययन के पेपरों में लघु उत्तरीय प्रश्न होने से भावी लोक सेवक के लिए अत्यावश्यक विश्लेषणात्मक कौशल का परीक्षण नहीं हो पाता। इसलिए दीर्घ उत्तरीय प्रश्न शामिल हों। यूपीएससी की वार्षिक रिपोर्ट से पता चलता है कि अधिकांश अभ्यर्थी क्रॉस डोमेन मूवर्स हैं और वैकल्पिक विषयों का चयन डोमेन विशेषज्ञता के बजाय ‘स्कोरिंग’ और ‘स्कोरिंग नहीं’ के मानदंड पर आधारित है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां एक अभ्यर्थी, जो चार प्रयासों में सफल नहीं हुआ, पांचवें प्रयास में सफल हो गया, जहां उसने वैकल्पिक विषय को बिना अंक वाले से अंक वाले विकल्प में बदल दिया। इसमें सुधार होना चाहिए। यूपीएससी द्वारा अपनाई गई स्केलिंग प्रणाली पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए, ताकि किसी भी वैकल्पिक विषय को स्कोरिंग या नॉन स्कोरिंग न कहा जाए। यदि यह संभव न हो, तो वैकल्पिक विषय को हटा दिया जाए, जैसा कि अलघ समिति, द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग और बसवान समिति ने सिफारिश की है और इसके स्थान पर सामान्य पेपरों को रखा जाए, जो शासन-प्रशासन नीति और योजना के क्षेत्रों पर जोर देते हों।व्यक्तित्व परीक्षण के वर्तमान प्रारूप को जारी रखा जा सकता है, जिसमें ऐसे प्रश्नों पर अधिक जोर दिया जाए, जो अभ्यर्थी के मूल व्यक्तित्व लक्षणों को सामने लाते हों। एक बहु-बोर्ड साक्षात्कार प्रणाली की व्यवहार्यता की जांच की जानी चाहिए, जिसमें एक अभ्यर्थी का दो अलग-अलग बोर्डों द्वारा स्वतंत्र रूप से साक्षात्कार लिया जाता है और औसत अंक दिए जाते हैं। एक बहु बोर्ड प्रणाली साक्षात्कारकर्ता द्वारा बोर्ड की कथित व्यक्तिपरकता को संतुलित करेगी। अब परीक्षा की योजना पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है। वर्तमान प्रणाली की समीक्षा करने और उसमें परिवर्तन का सुझाव देने के लिए वरिष्ठ लोक सेवकों, शिक्षाविदों, राज्य लोक सेवा आयोगों के प्रतिनिधियों और अन्य हितधारकों की एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति गठित की जानी चाहिए। नई समिति बसवान समिति (2017) की रिपोर्ट की सिफारिशों पर काम कर सकती है और सार्वजनिक परामर्श के बाद यथाशीघ्र समयबद्ध तरीके से बदलावों को शामिल कर सकती है। अन्यथा नतीजा यह होगा कि प्रशासनिक अंतराल बढ़ता जाएगा तथा नागरिकों की अपेक्षाओं व प्रशासन की क्षमता के बीच भी विसंगति बढ़ेगी। यूपीएससी को आंसर-की के संबंध में प्रमाणिक स्रोत को भी स्पष्ट करना चाहिए।

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