Top News

जब RSS का साथ छोड़कर चुपचाप चले गए थे गुरु गोलवलकर When Guru Golwalkar quietly left the RSS

प्रणव बजाज

गुरु गोलवलकर अध्यात्म और राष्ट्र निर्माण को साथ-साथ लेकर चलते थे. यही वजह रही कि उनकी जीवन यात्रा में एक समय ऐसा आया जब वो सार्वजनिक जीवन को छोड़कर नागपुर से मीलों दूर बंगाल के रामकृष्ण आश्रम में आ गए. एक स्वामी की सेवा करने. ये वही समय है जब डॉ हेडगेवार संघ का नेतृत्व सौंपने के लिए एक ऊर्जावान और चरित्रवान शख्सियत खोज रहे थे. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है यही कहानी.



समाजसेवा के अलावा माधव सदाशिव गोलवलकर का एक आध्यात्मिक पक्ष भी था. वो लगातार नागपुर के रामकृष्ण मिशन में आते-जाते रहते थे. 1936 में माधव बीमार स्वामी अखंडानंद की देखभाल करने के लिए बंगाल में रामकृष्ण मिशन के सरगाची आश्रम के लिए निकल गए. फिर करीब 2 साल का उनका समय वहीं कटा. स्वामी जी से उन्होंने संन्यास की दीक्षा भी ली और उनकी मृत्यु के 2 महीने बाद तक वहीं रुके रहे. उन्होंने फिर से 1938 में नागपुर वापसी की. 



उनकी वापसी को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी किताब ‘ज्योतिपुंज’ में एक घटना का जिक्र किया है कि कैसे तरुण भारत के तत्कालीन सम्पादक ने उन दिनों डॉ हेडगेवार की मौजूदगी में गुरु गोलवलकर से लम्बी बातचीत के दौरान एक सवाल पूछा था, “आप संघ को बीच में छोड़कर बंगाल के रामकृष्ण मिशन आश्रम चले गए थे, जहां आपने स्वामी विवेकानंद के गुरु बंधु से दीक्षा भी ली थी, तो फिर आप संघ में वापस क्यों लौट आए?”  

पीएम मोदी ने लिखा है कि इस सवाल से गुरु गोलवलकर चकित रह गए थे, उन्होंने अधखुली आंखों से इस सवाल पर विचार किया और धीरे धीरे जवाब देने लगे, “आपने एक अप्रत्याशित सवाल पूछा है, आश्रम और संघ की भूमिका के बीच कोई अंतर है या नहीं, यह डॉक्टरजी ही अधिक आधिकारिक रूप से बता सकते हैं. मेरा झुकाव हमेशा राष्ट्र निर्माण और आध्यात्म के प्रति रहा है. यह काम मैं संघ के साथ अच्छे तरीके से कर सकता हूं, ये बात मैंने बनारस, नागपुर और कलकत्ता की अपनी यात्राओं से जानी. इसलिए मैंने स्वयं को संघ को समर्पित कर दिया है. मुझे लगता है यह स्वामी विवेकानंद के संदेश के अनुरूप है, मैं किसी और से अधिक उनसे प्रभावित हूं. मुझे लगता है कि मैं केवल संघ के जरिए उनके लक्ष्यों को आगे बढ़ा सकता हूं”. 

हालांकि रामकृष्ण मिशन में जाना उनकी वैचारिक यात्रा का पड़ाव या उलझाव के तौर पर देखा जा सकता है. हेडगेवार इस वैचारिक उलझाव को समझते थे, तभी तो बालाजी हुद्दार तक के लौटने के बाद उनके भाषण शाखा में करवाए थे, गुरु गोलवलकर का भी दोबारा संघ में स्वागत किया. बल्कि ज्यादा गर्मजोशी के साथ. वैसे भी आप पाएंगे कि आलोचक हेडगेवार को अपने निशाने पर शायद ही लेते हैं, पूरा इकोसिस्टम गुरु गोलवलकर को ही निशाने पर रखता है क्योंकि गुरु गोलवलकर ने ही पौधे को वृक्ष बनाया था, वैचारिक रूप से सुदृढ भी. जाहिर है हेडगेवार को उनकी इस प्रतिभा को पहचानकर उत्तराधिकारी बनाने का श्रेय जाना चाहिए.

दूसरी पारी में भी माधव को परखते रहे केशव

नाना पालकर ने अपनी किताब ‘हेडगेवार चरित’ में ऐसी कई घटनाओं का उल्लेख किया है, जहां हेडगेवार गोलवलकर को अपनी जगह भेजते रहे और देखते रहे कि गोलवलकर उसे कैसे करते हैं, या उस दायित्व को कैसे संभालते हैं या बोलते हैं. फिर मन ही मन खुश होते थे कि उनका चुनाव एकदम सही है. साथ में वह ये भी ध्यान रख रहे थे कि बाकी लोग भी माधव की प्रतिभा को लेकर वैसा ही सोचते हैं कि नहीं, इसलिए वह अक्सर उनका मन टोहते रहते. जैसे एक बार अप्पाजी जोशी से उन्होंने सीधे ही पूछ लिया, “गुरुजी को भविष्य में सरसंघचालक के रूप में कैसे देखते हैं? अप्पाजी जोशी का जवाब था, “बढिया रहेगा, उत्तम चुनाव”. बाद में अप्पाजी जोशी के एक प्रशंसक कार्यकर्ता ने उनसे पूछा कि आप तो डॉक्टरजी (हेडगेवार) के दाएं हाथ हो, आपको संघ की पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी, गुरुजी इसमें सक्षम नहीं होंगे”. तब जोशी का जवाब था, “ अगर मैं दाहिना हाथ था तो गुरुजी उनका हृदय थे”. 

हेडगेवार बड़े अधिकारियों से ही नहीं आम स्वयंसेवकों से भी पूछते रहते थे कि गुरुजी का स्वभाव कैसा लगता है, उनका काम कैसा लगता है? प्रशंसा भरे जवाब मिलते तो खुश भी हो जाते थे. धीरे धीरे हेडगेवार ने गोलवलकर की जिम्मेदारियां बढानी शुरू कर दी थी, उन्हें अकोला में लगने वाले संघ शिक्षा वर्ग की जिम्मेदारी दी गई, पहली बार हेडगेवार ने किसी वर्ग में इतना कम समय दिया था. उसी वर्ग की तैयारियों में जुटे माधव ने अपनी एलएलबी भी पूरी कर ली. इतने सब में उलझे रहने के बावजूद हेडगेवार हैरान थे कि ये कर्मयोगी संन्यास की राह पर कैसे जा सकता है. 

बावजूद इसके डॉक्टर हेडगेवार को ये खबर जब अक्तूबर 1936 में मिली कि माधव गोलवलकर अचानक बिना बताए कहीं चले गए हैं. तो हेडगेवार को अच्छा तो नहीं लगा. लेकिन उन्होंने जाहिर नहीं किया, बल्कि जब भी उनकी चर्चा किसी बैठक में होती, वो खुलकर माधव की तारीफें करते. साल भर से माधव लॉ की प्रैक्टिस भी कर रहे थे, उनके सहयोगी दत्तोपंत देशपांडे भी स्वयंसेवक थे और हेडगेवार के करीबी थे. उन्हीं से पता चला कि माधव स्वामी अखंडानंदजी की सेवा में हैं. जब भी दत्तोपंत मिलते, हमेशा उनसे पूछते कि आपके मित्र कब वापस लौट रहे हैं, यानी उन्हें पूर्ण विश्वास था कि माधव को वापस आना ही है.

इधर डायबिटीज और हृदय रोग से पीड़ित स्वामी अखंडानंद की तबियत ज्यादा खराब हो गई तो उन्हें बेलूर मठ लाना पड़ा, जहां 7 फरवरी 1937 को उनकी मृत्यु हो गई. अब तक माधव गोलवलकर एक नर्स की तरह उनकी सेवा में थे. अखंडानंद जी की मृत्यु से माधव भी बैचेन हो गए. आखिरकार मार्च 1937 के अंत में वे वापस नागपुर आए. संन्यास के बाद उनके माता पिता ये समझ चुके थे कि उनका बेटा अब विवाह नहीं करेगा. वहीं डॉ हेडगेवार को इस खबर से राहत मिली.  

हालांकि अगले 1 साल तक माधव और हेडगेवार का कभी-कभी मिलना होता रहा, हेडगेवार उन्हें और समय देना चाहते थे. माधव अपने कस्बे रामटेक में समय देते रहे, स्थानीय शाखाओं में जाते रहे. 

Post a Comment

Previous Post Next Post