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सोन पापड़ी का सफ़र ....!Journey of Son Papdi....!

     सोन पापड़ी का सफ़र ....!Journey of Son Papdi....!

     


               

  रवि उपाध्याय 

दीपावाली के त्योहार पर जितना महत्व माता लक्ष्मीपूजन,रोशनी और पटाखों मींस आतिशबाजी का है उतना ही महत्व मिठाइयों का भी है। मिठाइयों में यदि कोई अति लोकप्रिय मिठाई है तो वह मिठाई है सोनपापड़ी। इसे कई लोग सोन पापड़ी के नाम से बुलाते हैं तो कोई इसे सोहन पापड़ी कहते हैं। कहीं कहीं तो इसे पतिशा पापड़ी भी कहते हैं। लोग इसे भले ही अलग अलग नाम से जानते पहचानते हों, पर इसका रूप रंग और स्वाद लगभग एक जैसा ही है। उसमें तनिक भी फर्क नहीं पड़ता। यह वह मिठाई है जिसका सभी इतना आदर और सम्मान करते हैं कि कोई इसका भक्षण नहीं करना चाहता है।


लक्ष्मी जी के बारे में सदियों से यह कहावत प्रसिद्ध है कि लक्ष्मी चलायमान है, आज इसके पास तो कल उसके पास। उसी तरह सोन पापड़ी का डब्बा भी गजब का गति शील है। आज आपके पास आया तो कल आपसे दूसरी जगह डब्बा का जाना तय है। इसके यातायात की गति पृथ्वी से भी तेज है। सोहन पापड़ी की तुलना हमारे स्वदेशी खेल खो - खो से की जा सकती है। जिसके पास खो आती है वह तत्काल उस को दूसरे के मत्थे मढ़ देने में तनिक भी देर नहीं लगाता है। इस मिठाई का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह लोगों को लालच दूर रखती है।इससे व्यक्ति में निरासक्ति और विराग पैदा होता है।सोन पापड़ी हमें यह भी बताती है कि दान (गिवअप) मनुष्यता का सबसे बड़ा आभूषण है। देने से ईश्वर भी खुश होते हैं। अब देखिए न दानवीर कर्ण ने तो अपना स्वर्ण कवच और महर्षि दधीचि ने तो अपनी अस्थियों से बना अस्त्र भी दान कर दिया था। इतना ही नहीं मोतीलाल नेहरू ने तो अपना बंगला आनंद भवन तक दान कर दिया था। आम आदमी के अदभुत अवतार केजरीवाल तो करोड़ों का शीश महल तज कर पंजाब चले गए। भारत ऐसे ऐसे ऐसे दानवीरों की भूमि रही है।


सोन पापड़ी वह मिठाई है जो पूरी तरह से भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कुरूक्षेत्र में दिए गए भगवद्गीता के उपदेश पर आधारित है। सोन पापड़ी का सफ़र हमको बताता है कि जो आज तुम्हारा है वह कल किसी ओर का था ओर कल किसी ओर का होगा। व्यर्थ क्यों दुःखी होते हो। तुम क्या लेकर आए थे और क्या लेकर जाओगे। सब व्यर्थ है। क्यों दुःखी होते हो। सोन पापड़ी के डिब्बे की यात्रा पृथ्वी की गति की तरह अनंत है, चलती ही रहती है। जिस तरह हमारा आना जाना, जीवन - मृत्यु एक अनंत और अविरल यात्रा है, उसी प्रकार सोहन पापड़ी की यात्रा भी अमर और अटल है। सोन पापड़ी के लिए एक पुरानी फिल्म का यह गाना सटीक है ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में सागर मिले कौन से जल में कोई जाने न। ओह रे ताल मिले.....।


सोन पापड़ी के साथ एक बात और खास है जिस तरह माता लक्ष्मी की पूजन कार्तिक मास की अमावस्या को ही होती है। उसी तरह सोन पापड़ी के डब्बे का अवतरण दीपावाली के त्योहार पर ही बड़ी तादाद में होता है। इस दिन इसके दर्शन सर्व सुलभ होते हैं और इसके बाद यह अंतर्ध्यान हो जाती है वैसे ही जिस अमरनाथ में बर्फानी बाबा सावन के त्योहार के बाद विलुप्त हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यह विलुप्तता का गुण केवल सोहन पापड़ी में ही हो। यह गुण हमारे नेताओं में भी विद्यमान है। चुनावों के समय यह वैसे ही फैल जाते हैं जैसे बरसात के आगमन के समय मच्छर माखियां नजर आने लगती हैं। और उसके बाद तुम कौन हम कौन। आपने यह देखा होगा कि दीपावाली के पहले सोन पापड़ी आपको होटलों में बिकते नहीं मिलेगी और न ही कोई उसके बारे पूछता मिलेगा।

जिस तरह सोन पापड़ी का डब्बा इस हाथ से उस हाथ में और इस घर से उस घर में घूमता रहता है। यही हाल हमारे नेताओं का हम देख सुनते चले आ रहे हैं। जिस तरह दीपावाली का त्योहार आता है सोनपापड़ी भ्रमणशील हो जाती है। उसी तरह जब जब चुनावों का मौसम आता है नेता भी इस पार्टी से उस पार्टी में विचरण करने लगते हैं।

हम यह सोच रहे थे तभी दरवाजे पर घंटी बजी। डरते डरते हमने दरवाजा खोला तो वही हुआ जिसका डर था। छेदी बाबू हाथ में सोन पापड़ी का डब्बा थामे खड़े थे। हमने मन ही मन नारा लगाया। सोन पापड़ी अमर रहे। लगा कि सोन पापड़ी के डब्बे को भी कहीं अश्वत्थामा, हनुमान जी और आल्हा ऊदल की तरह अमरता का वरदान तो प्राप्त नहीं है। छेदी बाबू नमस्कार कर के बोले भाई साहब दीपावली की बधाई। ये सोन पापड़ी का डब्बा हमारे यहां शुक्ला जी दे गए थे। हमने सोचा क्यों न आपको दे दें ? हमारे यहां तो सब को शुगर है । सोचा आप इसके सुपात्र हैं, तो आपको भेंट है। हमने डब्बे पर हाथ फेरते हुए मन ही मन कहा क्यों बेटा फिर लौट आए ? उड़ी जहाज को पंछी फिरी जहाज को आवै।

( लेखक व्यंग्यकार और राजनैतिक समीक्षक हैं। )

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