शाहजी केतके
उर्दू शायरी से लेकर परंपरागत हिंदी कविताओं तक में स्वच्छता और सफाईकर्मी की जान की परवाह क्यों नहीं दिखती?
अभी-अभी हमने गांधी जयंती मनाई है। गांधी जी ने स्वच्छता को राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा बनाया था। व्यावहारिक प्रयोग के तौर पर वह ‘साबरमती आश्रम’ के निकट बसाई गई एक बस्ती से जुड़ गए थे। जब 1993 में ‘सिर पर मैला ढोने’ की प्रथा को गैर कानूनी करार दिया गया और हाथ से सफाई करने-कराने और बिना सुरक्षा उपकरणों के जहरीले गैस भरे सीवरों में उतरने पर रोक लगा दी गई, तो सीवर में मौतों का सिलसिला अविराम क्यों चलता दिखाई दे रहा है?
हाल ही में दिल्ली के अशोक विहार में सीवर की जहरीली गैस की चपेट में आकर कासगंज (उत्तर प्रदेश) निवासी चालीस वर्षीय मजदूर अरविंद यादव की मृत्यु हो गई और चार मजदूर अस्पताल में मौत से जूझते रहे। ठेकेदार ने मजदूरों को लालच देकर रात के अंधेरे में सीवर के मैनहोल में उतारा था। जेहन में प्रश्न कौंधा कि ऐसी कौन-सी शिक्षा, सलाह या मानवीय प्रशिक्षण है, जिससे आम इन्सान की जान की अहमियत समझ आए, जो कार्य स्वास्थ्य के प्रतिकूल न हो, जोखिम कम से कम किए जा सकें और अप्राकृतिक मौतें रोकी जा सकें। भारतीय साहित्य, शेरो-शायरी और कविता-कहानी में यह मसला अभिव्यक्त क्यों नहीं हुआ? तरक्कीपसंद उर्दू शायरों से लेकर परंपरागत हिंदी कवियों के यहां स्वच्छता और स्वच्छकार की जान की परवाह क्यों नहीं हुई? महबूबा के रुखसार का रोमांटिक चित्रण और मेहनतकशों के पेट की आग पर खामोशी क्यों? जब साहित्यकार आंखें बंद करे, तो सरकारों को सचेत कौन करे? क्या यह कहना उचित नहीं होगा कि 'जाके पांव न फटी बिवाई वह क्या जाने पीर पराई' वाली कहावत लागू हुई है। यानी जो समुदाय भुक्तभोगी है, वह तो साहित्य में रहा नहीं, जो है, उसने पराई पीर से सरोकार नहीं रखा? ऐसा नहीं है कि मैला ढोने या मुर्दा मवेशी उठाने की प्रथा को आधुनिक तकनीक के सहारे मानव-श्रम और गरिमा के संरक्षण का सवाल बौद्धिक हल्कों में कभी उठा ही नहीं है। बेजवाड़ा विल्सन की संस्था हो या बिंदेश्वरी पाठक का शुलभ शौचालय, काम तो इधर के दिनों में भी हुए हैं, पर सरकारों से संबंधित मंत्रालयों ने क्या किया? बिना कोई प्रभावी कदम उठाए ‘योजना आयोग’ लंबी उम्र जीकर चला गया। एक बार केंद्रीय मंत्री बाबू जगजीवन राम ने कहा था, मलिन पेशे जब तक एक समुदाय तक महदूद रखे जाएंगे, उनकी आर्थिक दशा उन्हें वैकल्पिक पेशों में जाने नहीं देगी और लाभार्थी लोग जब तक इसे अपनी भी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे, तब तक रास्ते नहीं निकलेंगे। उस समय एक हिंदी पत्रिका में प्रसिद्ध कथाकार शिवानी ने जगजीवन राम से लंबा परिवाद किया था। उनका कहना था, आखिर यह काम करना तो इन्सान को ही पड़ेगा, बाबूजी क्या सवर्णों को भी सफाई कर्मचारी बनाना चाहते हैं? तब बाबूजी का जबाव था, हम आधुनिक तकनीक के जरिये विकसित देशों की तरह मशीनों से सफाई कराएंगे। तब न सीवर मौतें होंगी, न किसी और को हाथों से मानव मल उठाने का असम्मानित कार्य करना होगा। हालांकि बाबूजी के गुजर जाने के बाद मुद्दा डीप फ्रीजर में चला गया। वर्तमान सरकार ने खुले में शौच जाना बंद करवा कर घरों में शौचालयों के निर्माण की योजनाएं चलाई हैं। यह बात दीगर है कि यह पूरी तरह सफल नहीं हुई है, खासकर ग्रामीणों के बीच, जहां शौचालय हैं, पर पानी नहीं है।
घर से बाहर रात में कैसे जाएं, बिजली नहीं है, निर्भरता अधिक है। स्वयं सहायता और जागरूकता इत्यादि की जरूरत है। साहित्य में सामंती शुद्धतावाद के चलते ‘गंदगी’ को कविता का विषय नहीं बनाया जा सकता था। दलित साहित्य अपवाद है, वहां यह समस्या चित्रित हुई है। इसी वर्ष का 'नयी धारा सम्मान' पाने वाली प्रो. रजत रानी ‘मीनू’ ने 1992 में जेएनयू से ‘नब्बे के दशक की हिंदी दलित कविता पर आंबेडकर का प्रभाव’ शीर्षक से एम.फिल का लघु प्रबंध तैयार किया था, उसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि की एक कविता ‘झाड़ूवाली’ का उल्लेख किया गया है। डॉ. ‘मीनू’ ने अपने कविता संग्रह ‘पिता भी तो होते हैं मां’ में स्वयं भी ‘झाड़ूवाली’ शीर्षक से एक कविता लिखी है।मनुष्य की गरिमा, जीवन सुरक्षा, और सफाई की अनिवार्यता की दृष्टि से भी समस्या गंभीर है। मानव मल-मूत्र मानव ही के हाथों साफ कराया जाना कोई सम्मान की बात नहीं है। इसमें तकनीक सहायक हो सकती है। विकसित और विकासशील देशों में यह हुआ है और भारत में भी आंशिक शुरुआत हो रही है। समाज और सरकार, दोनों के दायित्व बड़े हैं। इसलिए भी कि हमारा देश विशाल है। आबादी भी अधिक है और सफाई उपकरण कम हैं। स्वच्छता पर निवेश बढ़ाने, रोबोट व अन्य उपकरण लगाने की जरूरत है। स्वच्छता के मद में बजट बढ़ाने की आवश्यकता है। साथ ही नागरिकों में स्वयं स्वच्छता के भाव को राष्ट्र सेवा की तरह साहित्य, संगीत के जरिये भी विकसित किया जाना चाहिए।
Post a Comment