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कहां तक जाएगा यह हिंदी विरोध: तमिलनाडु में हिंदी फिल्मों के गाने और होर्डिंग पर रार, बदले हालात में शायद ही How far will this Hindi protest go: Controversy over Hindi film songs and billboards in Tamil Nadu, unlikely in changed circumstances


तमिलनाडु में हिंदी विरोध कोई नई बात नहीं है। लेकिन बात इतनी बढ़ जाएगी कि राज्य में हिंदी फिल्मों के गाने, साइन बोर्ड और होर्डिंग तक पर रोक लगाने की तैयारी हो जाए, यह शायद ही किसी ने सोचा होगा। वहां की स्टालिन सरकार इसकी तैयारी कर भी चुकी थी और विधानसभा में इससे जुड़ा विधेयक लाने की करीब-करीब घोषणा हो चुकी थी। लेकिन पता नहीं, स्टालिन सरकार को सद्बुद्धि आई या फिर कुछ और, इस विधेयक को फिलहाल टाल दिया गया है। सरकार ने सफाई दी है कि राज्य में हिंदी पर प्रतिबंध लगाने का उसका कोई इरादा नहीं है। वैसे राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बढ़ते विरोध के चलते स्टालिन सरकार को यह फैसला लेना पड़ा है।

तमिलनाडु में हिंदी विरोध 1937 से ही जारी है। मद्रास प्रांत के चुनावों में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी मुख्यमंत्री (प्रीमियर) बने थे। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने सत्ता संभालते ही मद्रास प्रांत में प्राथमिक शिक्षा में हिंदी की पढ़ाई शुरू करा दी थी, जिसका विरोध सीए अन्नादुरै ने किया था। उसी अन्नादुरै के उत्तराधिकारी स्टालिन हैं। इस तरह से स्टालिन अन्नादुरै के विचार को ही आगे बढ़ा रहे हैं। तमिलनाडु में हिंदी का तीखा विरोध 1965 में भी हुआ। सांविधानिक प्रावधान के हिसाब से हिंदी को 26 जनवरी, 1965 को राजकाज में अंग्रेजी का स्थान लेना था। लेकिन सीए अन्नादुरै की अगुआई में 25 जनवरी को ही पूरे तमिलनाडु को हिंदी विरोध में काले झंडों से पाट दिया गया। तमिलनाडु में हिंदी विरोध 1967 तक उग्र रूप ले चुका था। स्टालिन सरकार इसी विरोध परंपरा को आगे बढ़ा रही है।इसी साल की शुरुआत में राज्य के आधिकारिक बजट से रुपये के उस हिंदी प्रतीक चिह्न को तमिल सरकार ने हटा दिया, जिसे भारत सरकार ने अपनाया है और जिसे मानना पूरे देश के लिए जरूरी है। 

तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति भाषा और परंपरा विरोध पर टिकी हुई है। रामास्वामी पेरियार से शुरू और सीए अन्नादुरै से होते हुए आज की द्रविड़ राजनीति इसी ग्रंथि से पीड़ित है। इससे तमिल उपराष्ट्रीयता को बढ़ावा मिलता है। द्रविड़ राजनीति इसे तमिल अस्मिता से जोड़कर फायदा उठाती रही है। इसी के चलते कांग्रेस 1967 से तमिलनाडु की सत्ता से बाहर है। तब से लेकर वह कभी द्रमुक, तो कभी अन्नाद्रमुक की पिछलग्गू बनी रही है। द्रमुक और उसके कर्ता-धर्ताओं को सोचना चाहिए कि अब हालात बदल रहे हैं। हिंदी फिल्मों के जरिये तमिल घरों में थोड़ी ही सही, हिंदी ने पहले से ही पहुंच बना रखी है। हिंदी गाने को तो तकरीबन समूचा तमिल समाज समझता है। तमिलनाडु में हिंदी का प्रसार बढ़ रहा है। बड़ी संख्या में उत्तर भारत के छात्र तमिलनाडु के निजी संस्थानों में पढ़ाई कर रहे हैं। चेन्नई के एक प्रतिष्ठित निजी विश्वविद्यालय की हिंदी प्रोफेसर डॉ. पद्मावती कहती हैं कि उनके विश्वविद्यालय का कैंपस ऐसा लगता है, मानो किसी हिंदीभाषी इलाके का विश्वविद्यालय हो। उत्तर भारतीय छात्रों की बदौलत इस विश्वविद्यालय में कामकाज और आपसी संपर्क की भाषा हिंदी है। नतीजतन उनका विश्वविद्यालय न सिर्फ अपने प्रोफेसरों को हिंदी बोलना सीखने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है, बल्कि इसके लिए विशेष कक्षाएं लगाने जा रहा है।हिंदी के संदर्भ में तमिलनाडु का चेहरा बदल रहा है। स्टालिन सरकार ने हिंदी थोपने का आरोप लगाते हुए नई शिक्षा नीति को लागू करने से मना कर दिया है, लेकिन निजी स्कूल धीरे-धीरे नई शिक्षा नीति अपना रहे हैं। विशेषकर सीबीएसई बोर्ड और आईसीएसई बोर्ड के स्कूलों ने नई शिक्षा नीति अपनाना शुरू कर दिया है। नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को प्राथमिक शिक्षा में बढ़ावा देने की बात है, जिनमें हिंदी भी शामिल है। सजग माता-पिता अब अपने बच्चों को हिंदी पढ़ाने पर जोर दे रहे हैं।2011 की जनगणना के अनुसार, तमिलनाडु में करीब 2.11 प्रतिशत जनसंख्या हिंदीभाषी थी। तब से कावेरी में बहुत पानी बह गया है। तकनीक का विस्तार हुआ है, संचार क्रांति कई कदम आगे पहुंच गई है। तब से लेकर अब तक तमिलनाडु में रोजगार के साधन भी बढ़े हैं और पढ़ाई-लिखाई के मंच भी। जाहिर है कि पढ़ाई और रोजगार के लिए उत्तर भारतीयों की अच्छी-खासी संख्या तमिलनाडु पहुंच चुकी है।भाजपा लंबे समय से तमिल राजनीति में सेंध लगाना चाह रही है। बेशक उपराष्ट्रपति सीपी राधाकृष्णन हिंदी नहीं बोल पाते, लेकिन भाजपा उन्हें देश के दूसरे सर्वोच्च पद पर पहुंचा कर तमिल जनता को संदेश दे चुकी है कि भले ही उसका सियासी आधार राज्य में बड़ा न हो, पर वह तमिल अस्मिता और लोगों का सम्मान करती है। काशी-तमिल संगमम के जरिये हिंदीभाषी राज्यों और तमिलनाडु के बीच सांस्कृतिक एकता के तारों को मजबूत किया जा रहा है। शायद इसी वजह से स्टालिन घबराए हुए हैं। उन्हें लगता है कि अगर हिंदी का ऐसे ही प्रसार बढ़ता रहा, भाजपा इसी तरह राज्य में सक्रिय रही, तो उसकी पहुंच और स्वीकार्यता राज्य में बढ़ेगी। इसलिए भाजपा को वह जहां हिंदीभाषियों की पार्टी बताने की कोशिश में हैं, वहीं हिंदी विरोध की परखी हुई राजनीतिक तरकीब को अपना रहे हैं। उन्हें लगता है कि हिंदी विरोध के सहारे तमिलनाडु में भाजपा की पैठ को रोक सकते हैं। लेकिन वह भूल रहे हैं कि अब हालात बदल चुके हैं। अब लोग हिंदी विरोध की राजनीति को समझने लगे हैं।

हालांकि, एक तबका अब भी उत्तर भारत और हिंदी विरोधी मानस से प्रभावित है। लेकिन दूसरी तरफ एक ऐसा वर्ग भी उभर रहा है, जिसे हिंदी विरोध की राजनीति के असल निहितार्थ समझ आते हैं। उसे लगता है कि हिंदी न जानने के पेशेवर नुकसान भी हैं, जिसका जिक्र कुछ महीने पहले जोहो के संस्थापक तमिलभाषी श्रीधर बंबू कर चुके हैं। तमिल माटी की उपज श्रीधर बंबू तकनीक केंद्रित सफल कारोबार चला रहे हैं, जिनकी वैश्विक पूछ है। लिहाजा उनकी आवाज भी सुनी जा रही है। स्टालिन चाहते हैं कि ऐसी आवाजों को सुनने वालों का आधार बढ़े, इसके पहले ही हिंदी विरोध का राजनीतिक रसायन तैयार कर लिया जाए।स्टालिन ने फिलहाल प्रस्तावित कानून की बात को सिरे से खारिज कर दिया है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह हिंदी समर्थक हो जाएंगे। हिंदी के खिलाफ आने वाले दिनों में अपने राजनीतिक पिटारे से वह कोई नया हथियार निकाल सकते हैं। लेकिन बदले हालात में इतना जरूर कहा जा सकता है कि अब शायद ही वे हथियार कारगर हो पाएंगे।

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