प्रणव बजाज
क्या मुगलों ने इसकी शुरुआत की? दिवाली से पहले यह सवाल बहुत लाजमी है. इतिहास कहता है कि प्राचीन काल से ही भारत के लोग खास रोशनी और आवाज से फटने वाले यंत्रों से परिचित थे, लेकिन आतिशबाजी का दौर कैसे शुरू हुआ, आइए जान लेते हैं.
भारत में खुशी जताने के लिए पटाखों का जमकर इस्तेमाल किया जाता है. शादी समारोह हो या क्रिकेट में भारत की जीत, पटाखों से आसमान गुंजायमान हो जाता है. दिवाली का त्योहार तो पटाखों के बिना अधूरा माना जाता है. हालांकि, समय-समय पर कोर्ट ने प्रदूषण फैलाने वाले पटाखों पर बैन भी लगाया है. इसके बावजूद खूब आतिशबाजी होती आ रही है. ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि भारत में पटाखों का चलन कैसे शुरू हुआ? कुछ लोग कहते हैं कि मुगलों ने इसका ट्रेंड शुरू किया तो कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यह परपंरा पहले से चली आ रही है. आइए जानने की कोशिश करते हैं कि भारत में कैसे शुरू हुआ पटाखों का ट्रेंड?
प्राचीन काल से ही भारत के लोग खास रोशनी और आवाज से फटने वाले यंत्रों से परिचित थे. दो हजार से भी अधिक पुराने भारतीय मिथकों में इसका जिक्र मिलता है. यहां तक कि ईसा पूर्व काल की पुस्तक कौटिल्य यानी चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी एक ऐसे चूर्ण का जिक्र मिलता है, जो तेजी से जलता और तेज लपटें उत्पन्न करता था. इसमें गंधक और कोयले का बुरादा मिलाने से ज्वलनशीलता और भी बढ़ जाती थी.
हालांकि, लगभग पूरे देश में पाया जाने वाले इस चूर्ण का इस्तेमाल तब पटाख़े बनाने में नहीं होता था. ख़ुशियां मनाने के लिए लोग घर-द्वार पर रोशनी करते थे. इसके लिए घी के दीये का इस्तेमाल किया जाता था, जिसका उल्लेख भी मिलता था.
चीन की परंपरा
बीबीसी की इसी रिपोर्ट में पंजाब विश्वविद्यालय में इतिहास के शिक्षक राजीव लोचन के हवाले से बताया गया है कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में दिवाली पर लोग रोशनी कर खुशी जताते थे, पटाखों से शोर कर नहीं. पटाखे जलाने की परंपरा चीन की देन है. वहां मान्यता थी कि पटाखे जलाने से बुरी आत्माएं और दुर्भाग्य भागता है और सौभाग्य बढ़ता है. वहीं से संभवत: बंगाली बौद्ध धर्मगुरु आतिश दीपांकर नाम के एक बंगाली बौद्ध धर्मगुरु इस परंपरा को भारत लेकर आए.
मुगलों के पहले से मौजूद थे पटाखे
दूसरे लोग दावा करते हैं कि आतिशबाजी की शुरुआत मुगलों के आने के बाद शुरू हुई. मंगोल अपने साथ इसकी तकनीक भारत लेकर आए. 13वीं शताब्दी के बीच के समय में दिल्ली में इसे पेश किया, जिसके बाद पहली बार दिल्ली में आतिशबाजी देखी गई.
मध्य काल के इतिहासकार फरिश्ता की एक किताब है तारिख-ए-फरिश्ता. इसमें बताया गया है कि मार्च 1258 में पटाखों का प्रयोग मंगोल शासक हुलगु खान के दूत के स्वागत में हुआ था. वह सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद के दरबार में आया था. हालांकि, इतिहासकार इस तथ्य से पूरी तरह से सहमत नहीं हैं. वैसे यह तो तय है कि मुगलों के दौर में आतिशबाजी के लिए पटाखों का खूब इस्तेमाल होता था पर मुगल इसे भारत लेकर आया, यह कहना ठीक नहीं है. गन पाउडर या यूं कहें कि युद्ध में बारूद के इस्तेमाल की तकनीक जरूर मुगल अपने साथ लाए पर पटाखे पहले से यहां मौजूद थे.
शब-ए-बारात पर होती थी आतिशबाजी
प्रोफेसर इक़्तिदार आलम खान का मानना है कि इतिहासकार फरिश्ता ने जिस आतिशबाजी का जिक्र किया है, वह वास्तव में पटाखे के बजाय युद्ध में इस्तेमाल होने वाला बारूद था, क्योंकि दिल्ली में सुल्तान फिरोज शाह तुगलक के शासन के दौरान भी पटाखे जलाए जाते थे.
तारीख-ए-फिरोजशाही में लिखा गया है कि शब-ए-बारात पर खासतौर पर शाम को पटाखे जलाए जाते थे. प्रोफेसर खान की मानें तो 15वीं सदी के शुरू तक बारूद की तकनीक चीनी व्यापारी जहाजों के जरिए दक्षिण भारत तक पहुंच चुकी थी. जमोरिन और अन्य लोगों ने पटाखे बनाने के लिए इसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था. तब भी युद्ध में हथियार के लिए इसका इस्तेमाल नहीं हुआ था.
इतिहासकार बताते हैं कि मुगलों से पहले भारत आ चुके पुर्तगाली भी पटाखों का प्रयोग करते थे. बीजापुर के अली आदिल शाह की साल 1570 की एक रचना है नुजुम उल-उलूम. इसमें तो पटाखों पर पूरा एक अध्याय ही है.
मुगलों के समय में बढ़ा पटाखों का चलन
इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि मुगलों के दौर में पटाखों का इस्तेमाल बढ़ा. किंग्स कॉलेज लंदन की शिक्षक डॉ. कैथरीन बटलर स्कोफील्ड का मानना है कि मुगल और उनके समकालीन राजपूत बड़े पैमाने पर पटाखों का इस्तेमाल करते थे. खासतौर पर साल के उन महीनों में, जब अंधेरा अधिक होता था. शाहजहां और उसके बाद औरंगजेब के शासन के दौर के इतिहास में विवाह, जन्मदिन, राज्याभिषेक और शब-ए-बारात जैसे मौकों पर पटाखों के इस्तेमाल का वर्णन मिलता है. इसकी पेंटिंग भी मौजूद हैं. यहां तक कि दारा शिकोह की भी शादी की पेंटिंग में पटाखे चलाते लोग देखे जा सकते हैं.
दिवाली पर पटाखे जलाने की परंपरा शुरू की
इतिहासकार इस बात से इत्तेफाक जरूर रखते हैं कि दिवाली पर पटाखे जलाने की परंपरा शायद मुगलों ने ही शुरू की थी. इसका अंदाजा इतिहासकार और मुगल साम्राज्य के वजीर रहे अबुल फजल की किताब आईन-ए-अकबरी के पहले खंड से लगाया जा सकता है. इसमें लिखा गया है कि अकबर (बादशाह) का कहना है कि आग व प्रकाश की पूजा एक धार्मिक कर्तव्य के साथ ही दैवीय स्तुति है.
ऐसे में इतिहासकार इससे सहमत हैं कि दिवाली आज जिस रूप में पटाखों के साथ मनाई जाती है, उसकी शुरुआत मुगल काल में ही हुई थी. इसके बाद 18वीं-19वीं शताब्दी में बंगाल और अवध के नवाब दुर्गा पूजा और दिवाली जैसे त्योहारों को संरक्षण देने के साथ ही आतिशबाजी का शानदार आयोजन करते थे.
डॉ. कैथरीन बटलर स्कोफील्ड मानती हैं कि 18वीं सदी के अंत से आतिशबाजी दिवाली का एक अहम हिस्सा बन गई और इसमें अंतर्निहित हो गई थी. दिवाली और दुर्गा पूजा पर आतिशबाजी की पेंटिंग भी मिलती हैं. दिवाली पर आतिशबाजी की लखनऊ नवाबी पेंटिंग पाई जाती है तो मुर्शिदाबाद व कलकत्ता (अब कोलकाता) में दुर्गा पूजा के दौरान आतिशबाजी की यूरोपीय पेंटिंग भी मौजूद है.

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