प्रणव बजाज
हाल ही में, दिल्ली में किया गया क्लाउड सीडिंग का प्रयोग नाकाम रहा। दिल्ली की वायु गुणवत्ता बेहद खराब हो गई थी। क्लाउड सीडिंग में सबसे पहले उन बादलों की पहचान की जाती है, जिनमें पर्याप्त नमी और ऊंचाई हो। इसके बाद विशेष रासायनिक पदार्थ तैयार किए जाते हैं, और इन्हें विमान, रॉकेट या ड्रोन के जरिये बादलों में छोड़ा जाता है। ये कण बादलों में जाकर जलवाष्प को आकर्षित करते हैं। छोटे-छोटे कण मिलकर बड़े जलकण बन जाते हैं और भार बढ़ने पर वे पृथ्वी पर वर्षा की बूंदों के रूप में गिरते हैं। इसमें सिल्वर आयोडाइड, सोडियम क्लोराइड, पोटेशियम आयोडाइड और ड्राई आइस जैसे रसायन प्रमुख रूप से उपयोग किए जाते हैं।
दिल्ली में 28 अक्तूबर, 2025 को किए गए इस प्रयोग के दौरान विशेष विमानों से बादलों में सिल्वर आयोडाइड और सोडियम क्लोराइड जैसे रासायनिक कण छोड़े गए। पर वातावरण में नमी बहुत कम रहने के कारण पर्याप्त वर्षा नहीं हो सकी। केवल कुछ क्षेत्रों में हल्की फुहारें पड़ीं। यदि मौसम की स्थिति अनुकूल होती, तो यह प्रयोग पूर्णतः सफल हो सकता था। फिर भी, यह वायु प्रदूषण नियंत्रण की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास था, जिसने भविष्य के लिए नई संभावनाओं के द्वार खोल दिए।क्लाउड सीडिंग का इतिहास लगभग आठ दशक पुराना है। 1946 में अमेरिका के वैज्ञानिक विंसेंट शेफर और इरविंग लैंगम्यूर ने ड्राई आइस के प्रयोग से कृत्रिम वर्षा कराने का पहला सफल प्रयास किया। इसके बाद कई देशों में न केवल सूखे से राहत के लिए, बल्कि वायु प्रदूषण घटाने और जलवायु नियंत्रण के लिए भी इसे अपनाया गया। भारत में इसका पहला प्रयोग 1980 के दशक में तमिलनाडु और महाराष्ट्र में किया गया था। वहां यह सूखे से राहत देने में काफी कारगर साबित हुआ। बाद में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों ने भी इसे अपनाया। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भी इसे बर्फबारी बढ़ाने के लिए प्रयोग किया गया। अब दिल्ली में इसे प्रदूषण नियंत्रण के नए प्रयोग के रूप में आजमाया गया।क्लाउड सीडिंग वायु प्रदूषण नियंत्रण के अलावा सूखे इलाकों में कृत्रिम वर्षा द्वारा खेती को पुनर्जीवित कर सकती है। इससे भूजल स्तर में वृद्धि होती है और पेयजल स्रोत भरते हैं। यह जंगलों की आग बुझाने, जलाशयों को भरने और जलविद्युत उत्पादन बढ़ाने में भी उपयोगी हो सकती है।
हालांकि, यह तकनीक हर बार सफल नहीं होती, क्योंकि इसका परिणाम मौसम की स्थितियों पर निर्भर करता है। इसकी लागत भी काफी अधिक होती है, क्योंकि विमानों, उपकरणों और रसायनों पर भारी खर्च आता है। इसके बावजूद, वैज्ञानिकों का मानना है कि क्लाउड सीडिंग भविष्य की आवश्यकता बन सकती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता की मदद से बादलों के बनने, नमी के स्तर और तापमान का सटीक विश्लेषण करके सीडिंग के लिए सबसे उपयुक्त समय और स्थान तय करना संभव हो सकता है। इससे इसकी सफलता दर बढ़ सकती है और लागत भी घट सकती है।क्लाउड सीडिंग में मानव प्रकृति के साथ मिलकर काम करती है, न कि उसके विरुद्ध। यह प्राकृतिक वर्षा का विकल्प नहीं, बल्कि उसका सहयोगी उपाय है। यदि इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, पर्यावरणीय सावधानी और नीति-निर्माण की पारदर्शिता के साथ लागू किया जाए, तो यह जल संकट, सूखे और प्रदूषण जैसी समस्याओं से निपटने में एक प्रभावी कदम सिद्ध हो सकती है। भविष्य में जब जलवायु परिवर्तन और जल संकट की चुनौतियां और बढ़ेंगी, तब यह तकनीक मानवता के लिए नई आशा बनेगी।

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