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अथातो पादुका जिज्ञासा Athato Paduka Jigyasa

अथातो पादुका जिज्ञासा Athato Paduka Jigyasa



रजनीश श्रीवास्तव

रोमन सम्राट कॉन्स्टेंटियस को उसी की सभा में, लगभग ढाई हजार साल पहले एक विद्रोही ने पहला जूता मारा था|

केवल भारत में ही नहीं, दुनिया भर में जूता निम्नतम-अपमान का प्रतीक रहा है।

जूता चोटिल कम करता है, अपमानित अधिक|


जूता फेंकने वाला 'केवल हिंसक' नहीं होता। केवल हिंसक होता तो पत्थर फेंकता। पत्थर, चोटिल अधिक करता है, आहत कम। 

जूता, एक 'असहाय-आक्रोश' की अभिव्यक्ति है|


एक कुचला हुआ प्रतिरोध, जो किसी पर कुछ फेंकने में निहित, न्यूनतम-हिंसा से खुद को बचा नहीं सकता। 

जैसे किसी के मुंह पर थूकने में हमला निहित है लेकिन थूक का लक्ष्य देह को घायल करना नहीं। ये अंतरात्मा को घायल करने का प्रयास है। 

जूता सदियों से अपमान का शक्तिशाली स्वर रहा है।


अशक्त-क्रोध ने.....कई बार जूते को अभिव्यक्ति बनाया है। 

संस्कृत कवि भास के २ हजार साल पुराने नाटक 'प्रतिज्ञायौगंधरायण' में मंत्री यौगंधरायण, सेवक को सलाह देता है 'नृपं प्रति पादत्राणेन ताडयेत्' अर्थात ''राजा की तरफ जूता फेंक कर मारना'' जूता दैहिक रूप से राजा का क्या बिगाड़ेगा? *जूते का लक्ष्य देह होती ही नहीं......


भारतीय लोकोक्तियों की दुनिया तो एक चलता-फिरता 'जूताखाना' है। 

किसी को अपमानित करने के लिए जितना वैविध्य जूते में है, उतना अन्य किसी शब्द में नहीं।

जैसे किसी को 'जूते की नोक पर रखना' और कोई नोक इतना आहत नहीं करेगी जितना जूते की नोक। 'सौ-सौ जूते खाय, तमाशा घुसकर देखेंगे'' ये लोकोक्ति उन बेशर्मों का सम्मान है, जो अपमानप्रुफ हो चुके। ''जूते चाटना'' कोई कह दे तुम उसकी घडी, अंगूठी, कड़ा, पगड़ी चाटते हो तो चल जायेगा लेकिन 'जूता चाटना' दो ही शब्द काफी हैं ये बताने के लिए कि लक्ष्य कहाँ है।


जूतों को छोड़कर बाकी अधिकांश मालाएं केवल सम्मानित करती हैं। 


अकेली जूतों की माला है जो 'अतिसम्मानित' करने के लिए पहनाई जाती है।

सूखा जूता तो फिर भी ठीक था। रचनात्मक शिल्पियों ने अधिकतम उपार्जन के लिए 'भिगोकर जूते मारना'' भी अविष्कृत किया। 

कुछ कहते हैं दुष्ट से 'जूता हाथ में लेकर ही बात करनी' चाहिए। 

बड़े-बूढ़े कहते हैं 'भाग सोया हो तो नए जूते भी काटते हैं' 

जूता महात्म्य जहाँ तक बखाना जाये, कम है। 

पहिये और आग के बाद मानव सभ्यता की तीसरी बड़ी खोज जूता ही है|

इस जगत में जितने भी युगल हैं, उनमे सबसे शाश्वत जोड़ी जूतों की ही है। 

एक के बिना दूसरा हवा में तो चलता है जमीन पर नहीं। 

आस्था और विनम्रता का स्तर ऐसा कि मंदिर की सीढ़ियों पर ही जीवन काट देता है। 

आज़ादी की लड़ाई में भी जूते ने अपना योगदान दिया। लाहौर और बनारस की विरोध-सभाओं में जूते दिखाकर नारे लगाए जाते थे ''शासक के पाँव का जूता नहीं बनेंगे'' 

फ़ारसी में एक शब्द है पैज़ार। जिसका मतलब भी जूता ही है लेकिन यदि ये किसी तरह 'जूतम' से मिल जाए तो फिर जो 'जूतम-पैज़ार' होगी, वो अविस्मर्णीय होगी। 

कई बार जब तर्क हार जाता है, जूता वाद जीत लेता है। 

इसलिए 

जब 'शब्द' नहीं चलते तब 'जूते' चलते हैं|

'किसी व्यक्ति को आप उसके चेहरे से अधिक जूतों से जान सकते हैं'' 

जूता केवल व्यक्ति को गिरने से नहीं बचाता..चरित्र गिरने से भी बचाता है। 


इसलिए जूता चरित्र से कम फिसलता है। 


पुराने कई जमीदार मूंछों की नोक से भी पैनी जूतों की नोक रखते थे। 


जूते पर लिखने के लिए कितने भी जूते घिसो कम है। इसलिए तमाम विश्व में आज तक फेंके गए समस्त जूतों की 'कड़ी निंदा' करते हुए.....


*जूताख्यान को यहीं विराम देकर, अपने जूते खोजता हूँ ताकि घूमने जा सकूँ...।*

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