शाहजी केतके
भारत के विदेश मंत्री ने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के 80वें सत्र को संबोधित किया तथा संयुक्त राष्ट्र सुधार की आवश्यकता तथा संयुक्त राष्ट्र सुधारों को आगे बढ़ाने में अधिक ज़िम्मेदारियाँ उठाने के लिये भारत की तत्परता पर प्रकाश डाला।
संयुक्त राष्ट्र में सुधारों की क्या आवश्यकता है?
निर्णय लेने में गतिरोध: संयुक्त राष्ट्र को प्राय: संघर्षों, सीमित संसाधनों और आतंकवाद के कारण निर्णय लेने में गतिरोध का सामना करना पड़ता है।
पाँच स्थायी सदस्यों (P5) के पास वीटो पावर होने के कारण कोई भी देश प्रस्तावों को रोक सकता है, भले ही बहुमत उनका समर्थन करता हो, जैसा कि यूक्रेन में रूस और इज़राइल से संबंधित प्रस्तावों पर अमेरिका के साथ देखा गया है।
पुराना और अप्रत्याशित: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद वर्ष 1945 की भू-राजनीतिक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करती है, न कि 21वीं सदी की।
भारत, ब्राज़ील, जर्मनी और जापान जैसी उभरती शक्तियों के पास स्थायी सदस्यता का अभाव है, जबकि वैश्विक दक्षिण का प्रतिनिधित्व कम है, जिससे संयुक्त राष्ट्र की वैधता सीमित हो रही है।
आंतरिक मतभेदों और कमज़ोर शांति स्थापना जनादेश के कारण संयुक्त राष्ट्र को बड़े पैमाने पर संघर्षों को रोकने या हल करने में कठिनाई हो रही है। बोस्निया और रवांडा में ऐतिहासिक विफलताएँ तथा सीरिया, सूडान एवं म्याँमार में निष्क्रियता प्रणालीगत कमियों को उजागर करती हैं।
वित्तीय निर्भरता: कुछ प्रमुख दाताओं, विशेष रूप से अमेरिका पर भारी निर्भरता, संयुक्त राष्ट्र की नीतियों और कार्यों को प्रभावित करने के लिये लाभ पैदा करती है, जिससे निष्पक्षता एवं वैश्विक विश्वास पर असर पड़ता है।
प्रशासनिक मुद्दे: संयुक्त राष्ट्र की विशाल नौकरशाही संकटों पर प्रतिक्रिया देने में धीमी है तथा भ्रष्टाचार, निधि के दुरुपयोग और कदाचार से ग्रस्त है।
उदाहरण के लिये, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) ने खरीद धोखाधड़ी और यौन कदाचार सहित 434 नई जाँचों की सूचना दी, जिससे विश्वसनीयता कम हुई।
संप्रभुता का क्षरण: कुछ राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र को संप्रभुता के लिये खतरा मानते हैं और तर्क देते हैं कि जलवायु परिवर्तन, मानवाधिकार या आव्रजन संबंधी प्रस्ताव राष्ट्रीय हितों पर भारी पड़ सकते हैं।
यह आलोचना संयुक्त राष्ट्र के अधिकार और वैश्विक स्वीकृति को चुनौती देती है।
वैश्विक और क्षेत्रीय संस्थाओं की प्रतिस्पर्द्धा: G20, ब्रिक्स और अफ्रीकी संघ जैसे संगठनों का उदय, संयुक्त राष्ट्र को दरकिनार करते हुए, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिये वैकल्पिक एवं अधिक सक्रिय मंच उपलब्ध कराता है तथा सुधार की आवश्यकता को और अधिक रेखांकित करता है।
संयुक्त राष्ट्र सुधारों को आगे बढ़ाने में भारत क्या भूमिका निभा सकता है?
सुरक्षा परिषद विस्तार: G4 समूह (भारत, ब्राज़ील, जर्मनी, जापान) के सदस्य के रूप में, भारत अफ्रीका, एशिया-प्रशांत, लैटिन अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के लिये छह नई स्थायी सीटों के साथ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता बढ़ाने का समर्थन करता है।
यह पुरानी P5 संरचना को संबोधित करता है और प्रतिनिधित्व को 21वीं सदी की भू-राजनीति के अनुरूप बनाता है।
ग्लोबल साउथ का समर्थन: विकासशील देशों के अभिकर्त्ता के रूप में भारत सतत् विकास, जलवायु न्याय और समान आर्थिक विकास जैसे प्रमुख मुद्दों पर प्रकाश डालकर ग्लोबल साउथ के हितों को प्राथमिकता देते हुए सुधारों को आगे बढ़ा सकता है।
बहुपक्षवाद को बढ़ावा देना: महाशक्ति प्रतिस्पर्द्धा के युग में भारत तर्क और समझ का प्रतिनिधित्व कर सकता है, संघर्ष की बजाय कूटनीति को बढ़ावा देते हुए।
भारत की तटस्थ भूमिका, जो सैन्य कार्रवाई की बजाय बातचीत को प्राथमिकता देती है, शांतिपूर्ण संघर्ष समाधान में इसकी भूमिका को रेखांकित करती है। संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना में अपने योगदान के कारण, भारत UN निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपनी अधिक प्रभावशाली भागीदारी का दावा मज़बूत करता है।
आतंकवाद-रोधी ढाँचे को मज़बूत करना: आतंकवाद का प्रत्यक्ष सामना करने के बाद भारत संयुक्त राष्ट्र के आतंकवाद-रोधी ढाँचे को मज़बूत करने के प्रयासों का नेतृत्व कर सकता है, आतंकवाद पर एक व्यापक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का समर्थन कर सकता है और आतंकवादी समूहों को प्रायोजित या आश्रय देने वाले राज्यों के लिये जवाबदेही सुनिश्चित कर सकता है।
ऐतिहासिक विश्वसनीयता और योगदान का लाभ उठाना: उपनिवेशवाद की समाप्ति, मानवाधिकार, रंगभेद विरोधी प्रयास, शांति स्थापना और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में भारत का ट्रैक रिकॉर्ड संयुक्त राष्ट्र सुधारों में इसकी नेतृत्वकारी भूमिका को वैधता प्रदान करता है।
वैश्विक नेतृत्व और सॉफ्ट पावर का प्रदर्शन: 177 सदस्य देशों के समर्थन से अपनाई गई अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस जैसी पहल, आम सहमति बनाने और बहुपक्षीय सहयोग को बढ़ावा देने की भारत की क्षमता को सुदृढ़ करती है।
संयुक्त राष्ट्र में प्रभावी और समावेशी सुधार सुनिश्चित करने के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं?
पाठ-आधारित वार्ता: व्यापक ‘संवाद’ से आगे बढ़कर अंतर-सरकारी वार्ता (IGN) प्रक्रिया के तहत पाठ-आधारित वार्ता आयोजित की जाएँ, जिसमें स्पष्ट समयसीमा और वार्ता के चरण निर्धारित हों। प्रक्रिया में किसी भी प्रकार की देरी द्वारा ठहराव को रोका जाए।
वीटो के उपयोग में सुधार या सीमा: नरसंहार, युद्ध अपराध या मानवता के विरुद्ध अपराधों से संबंधित स्थितियों में वीटो के उपयोग पर बाध्यकारी प्रतिबंध लागू करना।
यह अधिदेश दें कि वीटो से छूट के लिये बहुमत की आवश्यकता हो या महासभा को संदर्भित किया जाना चाहिये।
सदस्यता को योगदान और भार-साझाकरण से जोड़ना: मूल्यांकन पैमानों और विशेषाधिकारों में सुधार करना, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना, मानवीय सहायता या विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले देशों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व मिले।
‘भुगतान करने की क्षमता’ के सिद्धांत को कायम रखना और विश्वसनीय योगदानकर्त्ताओं को अधिक संस्थागत प्रतिनिधित्व देकर पुरस्कृत करना।
जवाबदेही, पारदर्शिता और निर्णय लेने की दक्षता में सुधार: प्रक्रियागत गतिरोध को रोकने के लिये प्रमुख संयुक्त राष्ट्र निकायों में मतदान नियमों में सुधार।
प्रमुख कार्यक्रमों के लिये प्रदर्शन समीक्षा, लेखा परीक्षा और निर्णय-प्रभाव आकलन प्रकाशित करना।
नए तंत्रों के माध्यम से ‘वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ’ को संस्थागत बनाना: संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न अंगों में ग्लोबल साउथ के समन्वय के लिये स्थायी मंच या कॉकस स्थापित करना, ताकि वे ब्लॉक के रूप में वार्ता कर सकें।
संयुक्त राष्ट्र के निर्णय लेने में G4 या अफ्रीकी संघ जैसे गठबंधन मंचों को मज़बूत करना।
गति निर्माण हेतु गठबंधनों का लाभ उठाना: संयुक्त राष्ट्र सुधार के लिये सर्वसम्मति का दबाव बनाने हेतु संयुक्त राष्ट्र से बाहर के मंचों (G20, BRICS, NAM, IBSA) का उपयोग करना। वीटो-प्रतिरोध के प्रभाव को सीमित करने के लिये मध्यम शक्तियों और छोटे देशों का समर्थन प्राप्त करना।
प्रभुत्व और मुफ्त लाभ लेने से सुरक्षा सुनिश्चित करना: यदि किसी नए विशेषाधिकार का दुरुपयोग या प्रभुत्व देखा जाए तो उनके लिये ‘क्लॉबैक’ या सनसेट क्लॉज़ शामिल करना।
यह सुनिश्चित किया जाए कि सुधार प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र चार्टर में शामिल हों, ताकि उन्हें मनमाने ढंग से रद्द न किया जा सके।
सतत् समीक्षा और अनुकूलन तंत्र: शासन संरचनाओं की आवधिक समीक्षा (उदाहरण के लिये प्रत्येक 10 वर्षों में) स्थापित करना, जिसमें आवश्यक संशोधनों को अनिवार्य किया जाना चाहिये।
बदलती भू-राजनीति के आलोक में अद्यतनों का प्रस्ताव करने हेतु घूर्णनशील सदस्यता के साथ एक स्थायी ‘संयुक्त राष्ट्र सुधार आयोग’ का गठन करना।
निष्कर्ष
संयुक्त राष्ट्र को 21वीं सदी में प्रासंगिक बनाए रखने के लिये, सुधारों में ऐतिहासिक वैश्विक शक्तियों और उभरते राष्ट्रों के बीच शक्ति संतुलन स्थापित करना आवश्यक है। प्रभावी, समावेशी सुधार न केवल वैश्विक शासन को मज़बूत करेंगे, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय शांति, सुरक्षा और विकास चुनौतियों से निपटने में संयुक्त राष्ट्र की वैधता को भी बढ़ाएंगे।

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