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शक्ति का रहस्य और आज की उपासना The secret of power and today's worship

शक्ति का रहस्य और आज की उपासना The secret of power and today's worship

(वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण)

गिरीश जोशी

आद्यगुरु शंकराचार्य अपने जब गुरु आचार्य गौड़पाद से शिक्षा पूर्ण कर ली तब उन्हें गुरु ने आगे की काम के लिए काशी जाने के लिए कहा। काशी में आचार्य से अनेक मत –संप्रदाय के विद्वान ब्रम्ह ज्ञान के विषय में शास्त्रार्थ के लिए आने लगे। एक दिन आचार्य शंकर गंगा स्नान के लिए जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक स्त्री अपने पति के शव को गोदी में रखकर विलाप करती हुई दिखाई पड़ी।



 ये स्त्री उनके मार्ग के बीच में कुछ इस तरह से बैठी हुई थी कि आचार्य का रास्ते में बाधा खड़ी हो रही थी। आचार्य ने जब उस स्त्री से मार्ग छोड़ने का नुरोध किया तब उस स्त्री ने कहा कि आचार्य आप तो ब्रह्मज्ञानी है। आप स्वयं इस शव को हट जाने के लिए कह दें। आचार्य ने अचंभित होकर उत्तर दिया –“ माँ ये शव स्वयं कैसे हट सकता है, इसमें अब शक्ति नहीं बची है। तब उस स्त्री ने कहा – “आप तो हमेशा ब्रह्म तत्व की महत्ता को ही स्थापित करते हैं, सर्वत्र केवल ब्रह्म ही है ये सब को बताते हैं फिर इस शव में भी तो ब्रम्ह है न फिर आपका ब्रह्म इस शव को क्यों नहीं हटा सकता।“ तब आचार्य ने कहा –“ माँ इस शव को हटाने के लिए शक्ति की आवश्यकता है।“ लेकिन इस इस उत्तर को देते देते अचानक आचार्य की तंद्रा भंग हुई। आचार्य को ध्यान में आ गया आदिशक्ति ने अपनी महत्ता का स्मरण करवाने के लिए ये लीला रची थी। 

ऊर्जा और शक्ति का अंतर

इस प्रसंग से हमें शक्ति की महत्ता ध्यान में आती है जब परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की कल्पना की तब उसके तीन प्रमुख विषय सृजन, पालन और विसर्जन करने के लिए तीन प्रकार की ऊर्जा को प्रकट किया इन ऊर्जाओं को हम ब्रह्मा, विष्णु और महेश के नाम से जानते हैं। लेकिन केवल ऊर्जा से ही काम बनने वाला नहीं था प्रत्येक कार्य को करने के लिए ऊर्जा के अलावा शक्ति की भी आवश्यकता होती है। ईश्वरीय ऊर्जा से ही एक शक्ति उत्पन्न हुई जिसे हम आद्यशक्ति कहते हैं, उसे ही दुर्गा भी कहा जाता है।

शक्ति का उपयोग

 आज के विज्ञान की भाषा में इसे समझने का प्रयास करें तो हम जानते हैं भाप की ऊर्जा का उपयोग कर जो शक्ति उत्पन्न होती है उससे इंजन चलाए जाते हैं। पानी के प्रवाह की ऊर्जा से जो शक्ति उत्पन्न होती है उसे हम बिजली कहते हैं। यही बिजली ताप की उर्जा से भी उत्पन्न होती है, यही बिजली परमाणु संयंत्र से निकलने वाली ऊर्जा से भी उत्पन्न होती है। इसी शक्ति का उपयोग कर हम अलग-अलग कार्य करते हैं जैसे बिजली की शक्ति का उपयोग कर प्रकाश उत्पन्न करते हैं, वस्तु को ठंडा गर्म करते हैं, वातावरण को ठंडा गर्म करते हैं, अनेक मशीनों को चलाते हैं आदि आदि। बिजली शक्ति एक ही है लेकिन वह अलग अलग स्वरूप में अलग -अलग कार्यों को करती है। उसी तरह इस सृष्टि के संचालन के लिए ईश्वर ने अपनी उर्जा से जो शक्ति उत्पन्न की उस आदिशक्ति को तीन प्रकारों में व्यक्त किया। माँ सरस्वती, माँ लक्ष्मी एवं माँ काली के रूप में किया गया जो सृष्टि में क्रमशः सृजन, पालन और विसर्जन का कार्य करती है।

विज्ञान में शक्ति की गणना 

आधुनिक विज्ञान में शक्ति की परिभाषा है – “शक्ति की गणना कार्य करने में लगने वाले समय के आधार पर होती है यानि कार्य करने की दर को ही शक्ति कहा जाता है।“ हमारे पौराणिक आख्यानों के माध्यम से सृष्टि के इस रहस्य को, इस विज्ञान को कहानियों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है। जैसे महिषासुर नाम की बहुआयामी दुष्ट शक्ति को नष्ट करने के लिए देवताओं ने आदिशक्ति दुर्गा को अपनी उर्जा से अलग-अलग शक्तियां प्रदान की। एक समय में अनेक काम करने की क्षमता केवल स्त्री के पास ही होती है। कार्यकरने की दर स्त्री के पास अधिक होती है इसीलिए उसे शक्तिस्वरूपा कहा जाता है । एक ही समय में अलग-अलग दिशाओं के अलग-अलग प्रकार के काम करने की नैसर्गिक क्षमता इस शक्तिस्वरूपा के पास ही होती है। महिषासुर के वध के लिए एक समय में आठों दिशाओं से आठ प्रकार के आक्रमण करने की आवश्यकता थी। इसलिए ये कार्य देवी दुर्गा को सौंपा गया।

रिसर्च में स्त्री शक्ति का प्रभाव

अभी हाल ही में एक रिसर्च हुई कि जब कोई महिला बच्चे को जन्म देने के पूर्व जो प्रसव वेदना सहन करती है उस प्रसव वेदना का अनुभव किसी पुरुष को करवाया जाए। उस रिसर्च के दौरान पुरुष उस वेदना का 10% भी सहन न कर सके। इस रिसर्च से यह ध्यान में आया कि पुरुष के पास ऊर्जा तो होती है यानी वह बलवान हो सकता है लेकिन सहन करने की शक्ति, लंबे समय तक काम करने की शक्ति अधिक काम करने की शक्ति तो स्त्री का ही आभूषण है।

                                            शास्त्रों में कहा गया- “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥“ अर्थात जहां स्त्री का सम्मान होता है वहाँ सृष्टि की सकारात्मक ऊर्जा रहती है। ऊर्जा और शक्ति एक दूसरे की पूरक है इसीलिए हमारे शास्त्रों में शिव और शक्ति के माध्यम से इस सिद्धांत को स्थापित किया गया।

शक्ति पीठो की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि

 पौराणिक कथा के अनुसार दक्ष प्रजापति के यज्ञ में भगवान शिव के अपमान से व्यथित होकर माँ पार्वती ने अपनी देह त्याग दी और भगवान शिव ने इस घटना से व्यथित होकर उनके शव को अपने कंधे पर रख कर तांडव किया। इस वजह से देवी का यानि शक्ति का एक- एक अंग पृथ्वी पर गिरता चला गया। उनके लगभग 52 अंग जिन स्थानों पर गिरे वो आज शक्तिपीठ के रूप में पूजे जाते हैं। 

इसको वैज्ञानिक रूप से समझने का प्रयास करें तो ध्यान में आता है ये यज्ञ लगभग वैसा ही था जैसे आज के परमाणु सयंत्र होते है। हमारे ऋषि मुनि परमाणु शक्ति के अनेक प्रकारों को जानते थे,उसकी सृजन शक्ति एवं सकारात्मक विकिरणों से भी परिचित थे। पौराणिक ग्रन्थों में दर्ज दिव्यास्त्र इसी तकनीक से संचालित होते थे।   

शक्ति विभाजन की जरूरत व महत्व

यज्ञ से रचनात्मक तथा विधवन्सात्मक शक्ति उत्पन्न हुआ करती थी। यदि रचनात्मक शक्ति को भी ठीक तरह से विभक्त ना किया जाता तो वो सम्पूर्ण सृष्टि को नष्ट करने का सामर्थ्य रखती थी। जैसे आसमान में जब बिजली कड़कती है और किसी स्थान पर गिरती है तब उस स्थान पर सब नष्ट हो जाता है क्योंकि वहाँ लगभग दस करोड़ वॉल्ट का करंट एक ही झटके में गिर जाता है । पावर प्लांट से बिजली ग्रिड, ट्रांसफार्मर से होते हुए घर तक पहुँचती है तब उसमें 220 वॉल्ट का करंट होता है। 

 उसी तरह यज्ञ से उत्पन्न शक्ति को विभाजित करने के लिए सृष्टि की विसर्जन उर्जा ही आवश्यक थी। इसलिए कहा जाता है की भगवान शिव के माध्यम से इस शक्ति को 52 खंडों में विभाजित किया गया और ये 52 स्थान शक्ति के केंद्र बने। चूंकि ये रचनात्मक दिव्य शक्ति थी इसलिए इसकी विकिरण से सकारात्मक उत्सर्जित होती है।इसी वजह से इन शक्तिपीठों पर जाने से हमें आज भी सकारात्मक शक्ति प्राप्त होती है।

शक्ति संधान का अनुकूल समय

अपनी जीवन शक्ति को चलाएमान रखने, जीवंत रखने के लिए कालचक्र में कुछ ऐसे अवसर आते हैं जिसमें विशेष आराधना कर अपने जीवन ऊर्जा और शक्ति को बढ़ा सकते हैं। इस कालखंड को ही हमारे यहां नवरात्र की संज्ञा दी गई। ये कालखंड वर्ष में चार बार ऋतु परिवर्तन के संध्याकाल में चैत्र, आषाढ़, अश्विन तथा माघ माह में आता है। इन नौ दिन और रातों में हम अपने शरीर शुद्धि के लिए उपवास करते हैं और शक्ति का संधान करने के लिए आराधना करते हैं। 

शक्ति की आराधना के लिए हम दुर्गा सप्तशती का पाठ, देवी के अनेक स्तोत्र,कवच, यज्ञ आदि करते हैं । इसके लिए मंत्रों का पाठ किया जाता है। पुणे के अंतरिक्ष अनुसन्धान केंद्र में शोध कर रहे डा. एस नारायण के अनुसार मंत्र का सीधा सम्बन्ध ध्वनि से है। ध्वनि प्रकाश, ताप, अणु-शक्ति, विद्युत -शक्ति की भांति एक प्रत्यक्ष शक्ति है। मन्त्रों में नियत अक्षरों का एक खास क्रम, लय और आवर्तिता से उपयोग होता है। इसमें प्रयुक्त शब्द का निश्चित भार, रूप, आकार, शक्ति, गुण और रंग होता हैं। एक निश्चित उर्जा, फ्रिक्वेन्सि और वेवलेंथ होती हैं। मंत्र से सूक्ष्म ऊर्जा-गुच्छ पैदा होते है जो शक्ति प्रदान करते हैं । 

युगानुकुल शक्ति संधान

प्रत्येक युग में शक्ति अर्जन के लिए हमारे पूर्वजों ने एक सूत्र दिया है- “त्रेतायां मंत्र-शक्तिश्च ज्ञानशक्तिः कृते-युगे। द्वापरे युद्ध-शक्तिश्च, संघशक्ति कलौ युगे।।“ अर्थात त्रेतायुग में शक्ति का संधान मंत्र के माध्यम से होता है। कृतयुग में ज्ञान के माध्यम से द्वापर में युद्ध के माध्यम से और कलयुग में मंत्र, ज्ञान तथा युद्ध तीनों का संगठित उपयोग कर शक्ति का संधान कर विध्वंसकारी वृत्तियों का संहार किया जा सकता है।

आज की बेटी

आज जब घर में बेटी का जन्म होता है तब हम प्रसन्न होकर कहते हैं हमारे घर लक्ष्मी आयी है। शक्ति को अत्यंत सावधानी से संभालने की जरूरत होती है।जैसे यदि हम बिजली के खुले तार को छू लें तो उसकी शक्ति का बड़ा झटका लगता है। शक्ति हमेशा से ही संवेदनशील होती है। आज उसे बल का दुरुपयोग कर पुरुष दूषित करने का प्रयास कर रहे हैं। इसलिए आवश्यक है कि बेटियों को उनके शक्ति स्वरूप का बोध करवाया जाए। दुष्टशक्ति से रक्षा करने लिए उसे शिक्षा, संस्कार, विवेक, विचार शक्ति, धर्म ज्ञान, आत्मरक्षा के लिए मार्शल आर्ट या कुंग फू जैसी विद्या, आत्मविश्वास, साहस जैसे अष्टास्त्रों से सज्ज करने की आवश्यकता है। इन अष्टास्त्रों का उपयोग आ जाने पर हमारी बेटियां किसी भी परिस्थिति में अनायास आने वाले महिषासुर, शुंभ-निशुंभ जैसे किसी भी रूप में आने वाले संकट से स्वयं की रक्षा कर सकेगी। 

बेटों को शक्ति जतन के संस्कार

आज परिवार में माताओं को चाहिए की वे अपने पुत्रों को भी ‘मातृवत् परदारेषु’ का संस्कार आवश्यक रूप से दे क्योंकि मातृत्व की भावना का विस्तार मनुष्य को देवत्व की ओर लेकर जाता है।इसके विपरीत मातृत्व भाव का संकुचन मनुष्य को पशुत्व की ओर ले जाता है । 

आज के रक्तबीज 

माँ काली और रक्तबीज के आख्यान को आज के परिपेक्ष में देखने का प्रयास करते है। आज विघटनकारी तत्व समाज में विद्वेष फैलाने के लिए, देश को तोड़ने के लिए दुर्विचारों को फैलाने का कार्य अलग –अलग प्रकार से करते हैं। इस प्रकार की वृत्ति ही आज का रक्तबीज है। जिस तरह माँ काली ने रक्तबीज के रक्त को जमीन पर गिरने नहीं दिया, अपने खप्पर में एकत्रित कर उसे पी गयी ठीक उसी तरह दुर्जनों के दुष्ट विचारों को फैलने से रोकना और अपने धर्म, ज्ञान, संस्कृति,परम्पराओं की जानकारी के खप्पर में उनको समेट कर अपने विचारों की स्पष्टता के अस्त्र से तथा समाज संगठन के शस्त्र से दुर्जनों की सोच व ताक़त को समाप्त करना आज की शक्ति उपासना है।

                                                                                                           - गिरीश जोशी 

संस्कृति अध्येता एवं अकादमिक प्रशासक   

मोबा.- 9425062332 

girish.joshi0909@gmail.com

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