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दंड प्रहार दिवस: शाखा से समाज तक अनुशासन और राष्ट्रचेतना का विस्तार* Discipline Day: Extending Discipline and National Consciousness from the Branch to Society*


अजय कुमार बियानी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा को केवल एक दैनिक गतिविधि या व्यायाम स्थल मानना उसकी आत्मा को न समझ पाने जैसा है। शाखा वास्तव में व्यक्ति-निर्माण की प्रयोगशाला है, जहाँ शरीर, मन और बुद्धि—तीनों को संतुलित रूप से विकसित करने का निरंतर प्रयास होता है। इसी परंपरा में मनाया जाने वाला प्रहार दिवस, विशेषकर दंड प्रहार, संघ की कार्यपद्धति, दृष्टि और संस्कारों का जीवंत प्रतीक है


भारतीय संस्कृति में “दंड” का अर्थ कभी भी केवल शारीरिक अस्त्र तक सीमित नहीं रहा। रामराज्य में दंड न्याय, मर्यादा और धर्म का प्रतीक था। गुरुकुल परंपरा में दंड अनुशासन और संयम का माध्यम रहा। संघ की शाखा में दंड प्रहार उसी सांस्कृतिक परंपरा का आधुनिक, व्यावहारिक और सामाजिक रूप है। यहाँ दंड हाथ में लेकर किया जाने वाला अभ्यास किसी पर प्रहार करने के लिए नहीं, बल्कि स्वयं पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए होता है।

प्रहार दिवस का मूल उद्देश्य स्वयंसेवक के भीतर छिपी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को जाग्रत करना है। आज का युवा जिस वातावरण में जी रहा है, वहाँ सुविधाएँ अधिक हैं, पर सहनशीलता और धैर्य कम होता जा रहा है। ऐसे समय में शाखा में होने वाला दंड प्रहार अभ्यास शरीर को चुस्त-दुरुस्त रखने के साथ-साथ मन को स्थिर और आत्मविश्वास से भरता है। नियमित अभ्यास से स्वयंसेवक सीखता है कि कठिन परिस्थिति में घबराने के बजाय संयम और साहस से निर्णय कैसे लिया जाए।

दंड प्रहार का सामूहिक अभ्यास अपने आप में एक संदेश है। जब एक ही आयु, वर्ग और पृष्ठभूमि के नहीं, बल्कि भिन्न-भिन्न सामाजिक स्तरों से आए स्वयंसेवक एक साथ, एक लय में अभ्यास करते हैं, तो वह सामाजिक समरसता का सजीव उदाहरण बन जाता है। यहाँ न कोई छोटा है, न बड़ा; न कोई विशेष है, न सामान्य। सब एक हैं—केवल स्वयंसेवक। यही भाव आगे चलकर समाज में जाति, भाषा, वर्ग और क्षेत्र के भेद को मिटाने की शक्ति देता है।

आज अक्सर संघ के शारीरिक कार्यक्रमों को संकुचित दृष्टि से देखने का प्रयास किया जाता है। दंड प्रहार को आक्रामकता से जोड़ दिया जाता है, जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। संघ का स्वयंसेवक हिंसा का समर्थक नहीं, बल्कि आत्मरक्षा और समाज-रक्षा के सिद्धांत पर चलता है। दंड प्रहार यह सिखाता है कि शक्ति का उपयोग तभी हो, जब धर्म, न्याय और समाज की रक्षा आवश्यक हो। यह अभ्यास स्वयंसेवक को उग्र नहीं, बल्कि संतुलित बनाता है।

प्रहार दिवस केवल शरीर साधना तक सीमित नहीं रहता। शाखा में इसके साथ गीत, प्रार्थना और बौद्धिक के माध्यम से जीवन मूल्यों की भी चर्चा होती है। इससे स्वयंसेवक के भीतर यह भावना दृढ़ होती है कि उसका जीवन केवल व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं के लिए नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए समर्पित है। यही कारण है कि आपदा, संकट या सामाजिक आवश्यकता के समय संघ का स्वयंसेवक सबसे पहले दिखाई देता है—चाहे वह बाढ़ हो, महामारी हो या किसी सामाजिक संघर्ष की घड़ी।

दंड प्रहार दिवस युवाओं में नेतृत्व के गुण भी विकसित करता है। अभ्यास के दौरान संकेतों का पालन, समयबद्धता और समूह के प्रति उत्तरदायित्व स्वयंसेवक को अनुशासित नागरिक बनाता है। यही अनुशासन आगे चलकर कार्यालय, परिवार और समाज—तीनों जगह काम आता है। संघ मानता है कि राष्ट्र का निर्माण केवल नीतियों से नहीं, बल्कि चरित्रवान नागरिकों से होता है, और शाखा उसी चरित्र निर्माण की आधारशिला है।

आज जब समाज में अधिकारों की बात अधिक और कर्तव्यों की चर्चा कम होती जा रही है, तब प्रहार दिवस जैसे आयोजन यह याद दिलाते हैं कि कर्तव्यबोध ही सशक्त समाज की नींव है। दंड प्रहार अभ्यास स्वयंसेवक को यह सिखाता है कि स्वतंत्रता अनुशासन से ही सुरक्षित रहती है। बिना अनुशासन के स्वतंत्रता अराजकता बन जाती है—और संघ इस सत्य को व्यवहार में उतारता है।

प्रहार दिवस का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि यह शारीरिक श्रम और नियमित अभ्यास के प्रति सम्मान पैदा करता है। आज की डिजिटल पीढ़ी स्क्रीन के सामने अधिक और मैदान में कम समय बिताती है। शाखा का वातावरण उन्हें धरती से जोड़ता है, पसीने का मूल्य समझाता है और सामूहिकता का सुख सिखाता है। दंड प्रहार का अभ्यास युवाओं को यह अनुभव कराता है कि वास्तविक आनंद सुविधा में नहीं, बल्कि साधना में है।

समग्र रूप से देखा जाए तो, आरएसएस का दंड प्रहार दिवस किसी एक दिन का कार्यक्रम नहीं, बल्कि पूरे वर्ष चलने वाली संस्कार प्रक्रिया का उत्सव है। यह उस विचार का प्रतीक है कि सशक्त राष्ट्र के लिए सशक्त, अनुशासित और संवेदनशील नागरिक आवश्यक हैं। शाखा के माध्यम से मनाया जाने वाला प्रहार दिवस आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश देता है कि शक्ति का अर्थ प्रभुत्व नहीं, बल्कि सेवा है; और अनुशासन का अर्थ बंधन नहीं, बल्कि आत्मविकास है।

आज के भारत को ऐसे ही नागरिकों की आवश्यकता है—जो शारीरिक रूप से सक्षम हों, मानसिक रूप से संतुलित हों और नैतिक रूप से दृढ़ हों। दंड प्रहार दिवस उसी आवश्यकता की शांत, संयमित और संस्कारित पूर्ति का माध्यम है।

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