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मोहन का सम्मोहनMohan's hypnosis

 

आलोक एम इंदौरिया-

बिहार विधानसभा के आम चुनावों के नतीजों ने एक ओर जहां भाजपा गठबंधन की आशातीत सफलता की एक नई इबारत लिख डाली, तो वहीं दूसरी ओर भाजपा की रणनीति और नेतृत्व की निर्णायक भूमिका को भी राजनीतिक परिदृश्य में सामने लाने और स्थापित करने का काम किया है। निश्चित ही इस चुनाव में मोदी और शाह का करिश्मायी व्यक्तित्व और नेतृत्व ने एक बड़ी लकीर को खींचा है वहीं यदुवंशियों के बैल्ट और पिछड़े वर्ग में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन के सम्मोहन का जोरदार असर भी देखने को मिला है। यकीनन भाजपा अलाकमान ने जिस मुराद और उम्मीद से मोहन यादव को बिहार के चुनावी समर में उतारा था उस पर वे न केवल खरे उतरे बल्कि देश में भाजपा की ओर से वे अब सबसे बड़े यादव नेता के चेहरे और ब्रांड के तौर पर स्थापित भी हो गए जो स्थान भाजपा में लगभग खाली था। बिहार चुनाव में मोहन के सम्मोहन ने यदुवंशी बाहुल्य क्षेत्र में न केवल राजद की कोर वोट बैंक को खण्ड-खण्ड कर दिया  अपितु युदवंशी बाहुल्य क्षेत्र में यादव वोटों को पहली बार कमल के फूल बाला बटन दवाने को भी मजबूर कर दिया। यह सच है कि मोहन यादव के सघन और धुंआधार प्रचार से एनडीए के पक्ष में बड़ा ही सकारात्मक माहौल उनके दायित्व वाले विधानसभा क्षेत्रों में बना जिसका प्रभाव पूरे बिहार में भी पड़ा।


बिहार के प्रतिष्ठापूर्ण चुनावों में यूं तो मोदी और शाह के नेतृत्व में भाजपा के तमाम नेताओं ने प्रचार किया और बेहतर से बेहतर काम एनडीए के पक्ष में किया। निश्चित ही मोदी और शाह का नेतृत्व अपना करिश्मा दिखा रहा था लेकिन राजद का कोर वोटर यानि यादव और मुस्लिम वोटों की युति को भंग करने और इन्हें विभाजित करने की तरकीब आला कमान तलाश रही थी और उसकी यह तलाश आखिर में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव के नाम पर आकर ठहर गई। यदि भाजपा को खंगालें तो उसके पास पूरी भाजपा में अखिलेश, लालू  या फिर तेजस्वी को टक्कर देने वाला एक भी यादव नेता नहीं है। जबकि उ.प्र. में ये वोटर 18 प्रतिशत और बिहार में 15 प्रतिशत हैं और यह पूरी तरह से दोनों ही राज्यों में सत्ता में डोमिनेट रहे हैं। उ.प्र. में मुलायम सिंह, अखिलेश सिंह तथा बिहार में लम्बे समय तक लालू राज में यादव समाज ने राजनीति में खासा ऊंचा मुकाम बना लिया था और सत्ता की कहानी हमेशा इनके ईद-गिर्द घूमती थी। एम वाय समीकरण यानी यादव और मुस्लिम वोट बैंक की युति के दम पर सत्ता में आने का सीधा रास्ता इनके पास था। मगर एमवाय समीकरण के चलते भाजपा को सत्ता में आने के लिए न केवल कड़ा परिश्रम करना पड़ा बल्कि यादव वोट बैंक को अपने पक्ष में करने लिए राजनैतिक इलाज भी तलाशना पड़ा।

इस बार के चुनाव में भाजपा अलाकमान ने यादव समाज के कद्दावर नेता के रूप में स्थापित हो चुके मध्य प्रदेश के काबिल मुख्यमंत्री मोहन यादव को बिहार के अखाड़े में यह सोचकर उतारा कि वे यादव वोटों में सेंघ लगाकर उन्हें भाजपा की तरफ मोड़ेंगे। निश्चित ही यह बड़ी चुनौती थी। भाजपा का उद्देश्य था कि एक सम्मानित और देश के एक मात्र यादव मुख्यमंत्री के रूप में मोहन यादव एनडीए के लिए सबसे ज्यादा मुफीद हो सकते हैं। इसी के चलते उन्हें 50 से अधिक सीटें पर प्रचार और कुछ क्षेत्रों में प्रत्याशियों के नामांकन भराने तक की जिम्मेदारी भी दी गई। इसके अतिरिक्त दो दर्जन से अधिक सीटों की सीधी कमान भी उन्हें संभाला गई। बिहार के मतदाताओं ने डॉ. मोहन यादव के सादगी पूर्णर् स्वभाव, जमीनी जुड़ाव और मजबूत संगठन कौशल, सहृदय व्यवहार के साथ लच्छेदार भाषण शैली को दिल की गहराई से स्वीकार किया। 

मोहन यादव का करिश्माई व्यक्तित्व बिहार में एक नई ऊर्जा लेकर आया और बिहार को अपना दूसरा घर बताकर उन्होंने आम जनता का दिल भी जीत डाला। मोहन यादव की सभाओं में भारी भीड़ ने उनकी लोकप्रियता का अहसास तो कराया साथ ही बिहार के यादव वोटों में उनकी स्वीकारोक्ति अब पुख्ता हो गईर् है, इस बात पर भी मोहर लगाई। उन्होंने यदुवंशी समाज को यह अहसास कराया और विश्वास दिलाया कि यदुवंशी समाज का भाजपा अहम और वेहद महत्वपूर्ण स्थान हैं। देश में भाजपा ही एक मात्र ऐसी पार्टी हैं जिसने मध्य प्रदेश में तमाम योग्य और अनुभवी नेताओं के बाद भी युदवंशी समाज से मोहन यादव को मुख्यमंत्री तो बनाया ही साथ ही मध्य प्रदेश में काम करने की खुली छूट दी। जिसके कारण उन्होंने मध्य प्रदेश को बीमारू राज्य की  परिधि से बाहर निकाल कर औद्योगिक विकास के एक नई और शानदार इबारत लिख डाली। राजनीति के पंडितों की मानें तो उनके अनुसार डॉ. मोहन यादव का बिहार में डेरा जमा लेना और लगातार प्रयास पूरी तरह से गेम चेंजर साबित हुआ और एक यादव मुख्यमंत्री को देखकर यदुवंशी उनकी ओर ऐसे आकर्षित हुए की यादव वोट पहली बार ऐसा बटा की लालू और तेजस्वी की लालटेन बुझी ही गई। मोदी, शाह,  योगी के साथ मोहन यादव का प्रयास रहा कि जाति से ऊपर उठकर विकास और उसमें अपनी भागीदारी को आमजन सुनिश्चित करे और बिहार के लोगों ने ऐसा किया भी

। देश का एक मात्र यादव मुख्यमंत्री भाजपा से......यह एक ऐसा बड़ा संदेश बना जिसने यदुवंशियों को सोचने पर मजबूर कर दिया और यही भाजपा अलाकमान चाहती भी थी। पटना से लेकर पूर्णिया तक तमाम जिलों की विधानसभाओं को उन्होंने नाप डाला और इंडि गठबंधन के एमवाय की जगह उन्होंने मोदी के एमवाय यानि महिला और यूथ पर फोकस किया। मोहन यादव की सभाओं में महिलाओं और युवाओं की भारी भीड़ उनकी लोकप्रियता को बताती हैं और इस तरह उन्होंने राजद के गढ़ में सेंघ लगाकर  उनके कोर वोट बैंक को तोड़ डाला। पहली बार यादव बाहुल्य क्षेत्रों में भाजपा ने भारी बढ़त हांसिल की और यह स्वीकारना होगा कि कहीं न कहीं इसमें मोहन के सम्मोहन की महत्वपूर्ण भूमिका थी। 

मोहन यादव ने 26 विधानसभाओं का दायित्व और सीधा प्रचार संभाला था। जिसमें 22 पर एनडीए गठबंधन जीता। इसमें 13 सीट भाजपा के खाते में गई वहीं 9 सीटें एनडीए के सहयोगी दलों को मिलीं। यानि यादव बाहुल्य क्षेत्र में पहली बार भाजपा की बड़ी जीत का परचम लहराया। खास बात यह है कि बिहार में यादव बाहुल्य बाली 88-90 सीटें हैं और डॉ. मोहन यादव ने इसमें से 26 सीटों का जिम्मा संभाला और प्रचार किया। इस प्रचार का एनडीए  को फायदा यह हुआ कि पूरी 88 सीटों में यदुवंशियों के बीच यह संदेश गया कि मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने सकल समाज को सम्मान दिया है और यही कारण है कि इन 88 सीटों में से तेजस्वी यादव और उनका गठबंधन केवल 12 सीटें जीत सका। शेष 76 सीटें भाजपा और उसके एनडीए गठबंधन ने जीती। मोदी फैक्टर के बाद इन यादव बाहुल्य 88 विधानसभा क्षेत्रों में मोहन यादव का फैक्टर चला जिसके चलते इंडि गठबंधन को जिस क्षेत्र से सर्वाधिक उम्मीद थी उनकी वो उम्मीद और सत्ता पाने का सपना चकनाचूर हो गया।

बरहाल बिहार का चुनाव परिणाम मात्र जीती और हारी हुई सीटों की गणना मात्र नहीं है। जिसमें जनता ने जंगल राज की जगह विकास और सामाजिक समरसता की ओर कदम बढ़ाया यह एक नए सामाजिक परिवर्तन का संकेत इसलिए हैं कि पहली बार बिहार के चुनाव जात पात से ऊपर उठकर बिहार के विकास पर केन्द्रित हो गए। यह भी उतना ही सच है कि यादव बैल्ट की इन 88 से 90 सीटों में लालू औ ।र उनके परिवार का ऐसा दखल और दबदबा था जिसे तोड़ना नामुमकिन था। मगर डबल एम यानि मोदी के नेतृत्व और मोहन के सम्मोहन ने लालटेन के तिलस्म को तोड़कर अधिकतर क्षेत्रों में एनडीए की जीत का परचम लहराकर बिहार की जनता को यह विश्वास दिलाया कि विकास और समरसता न केवल एक साथ चल सकते हैं बल्कि दौड़ भी सकते हैं।

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