संदीप जोशी
कहा जाता है कि एक चित्र हजार से ज्यादा शब्द को समेटने का माद्दा रखता है। लेख के साथ दिया गया चित्र मेक्सिको का है। मेक्सिको सिटी में सरकार की नीति के विरोध में चल रहे प्रदर्शन का चित्र। आधुनिक सभ्यता विकास को सभी के लिए समाज के सामने भी लाता है। गंभीर स्थितियों में ऐसे चित्र ही समाज में चल रहे आंतरिक संघर्ष को दर्शाते हैं।
अनेक देशों में सत्ता व जनता के बीच चल रहे द्वंद्व या विरोध के कई स्थानीय कारण हो सकते हैं।ऐसे चित्र आजकल हर देश में खींचे जा रहे हैं, जो रातोंरात सोशल मीडिया के जरिये दुनिया भर में फैल जाते हैं। ये आक्रोश व हिंसा के प्रसार में लगे नजर आते हैं। जबकि सभी जानते-मानते हैं कि इन चित्रों में इन देशों की सारी जनता शामिल नहीं है। इसलिए चित्र के जरिये साधन-साध्य के सिद्धांत पर भी सोच-समझ बननी चाहिए। क्या आधुनिक सभ्यता व्यावहारिक विकास को अपनाना जानती है?
या यह सिर्फ पूंजीवाद और सत्ता कुछ ही हाथों में संचित होती पूंजी के कारण हैं?महात्मा गांधी ने साधन-साध्य के सिद्धांत को अपने के प्रयोग से समाज के लिए परोसा था। उन्होंने माना था कि जीवन के हर पहलू में साधन-साध्य के सिद्धांत से मानवता का वैचारिक व व्यावहारिक विकास हो सकता है। इस सिद्धांत को गांधी जी ने विचार के लिए विस्तार से हिंद स्वराज में दर्शाया है। समाज जो साधन सत्ता के प्रति अपने विरोध को दर्शाने के लिए अपनाता है, वही साधन समाज का विरोध रोकने के लिए सत्ता को भी मिलता है।
अगर सत्ता पर समाज की सुरक्षा का उत्तरदायित्व रहता है, तो समाज को साध्य पाने के सही साधन भी समझने, अपनाने होंगे। क्योंकि जनता ही सेवा के लिए अपनी सरकार चुनती है या चुने गए व्यक्ति को सत्ता सौंपती है। इसलिए समाज को अपना साध्य पाने के लिए सही साधन भी चुनना सीखना होगा। इसके अलावा, उसे निःस्वार्थ साधन भी अपनाने होंगे।अपनी प्रगति या विकास के लिए जनता जो साधन अपनाती है, वैसे ही साधन, ज्यादा तंत्र-संपन्न सत्ता को भी अपनाने का अधिकार मिलता है। यानी अगर जनता ऊपर के चित्र के अनुसार हथौड़ा, डंडा व पत्थर उठाकर उपयोग में लेती है, तो सत्ता को भी लाठी, आंसू-गैस गोले व बंदूक के उपयोग से रोका नहीं जा सकता। और ऐसे ही अगर हम अपनी सामाजिक संस्थाओं का दुरुपयोग करते हैं,
तो सरकारी संस्थाओं के दुरुपयोग को रोक नहीं सकते।आज सभी सरकारी संस्थाएं सत्ता के ही काम के लिए जुटी हैं, तो ऐसा इसलिए कि समाज ने ही लंबे समय से यह होने दिया होगा। हमने ही अपने लोकतंत्र के चार स्तंभ- विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के साथ-साथ मीडिया को भी सत्ता का साधन बनने दिया है। इसलिए लोकतंत्र के बुनियादी आधार, चुनावों में अपने साध्य के लिए जो साधन हम अपनाते हैं,
वही साधन सत्ता को उसका साध्य हासिल करने की स्वतंत्रता देता है।आचार्य विनोबा जी ने ‘गीता प्रवचन’ में एक जगह जीवन की व्याख्या को 'संस्कार-संचय' भर माना है। यानी हम बचपन से बुढ़ापे तक सिर्फ अपने संस्कार गढ़ते रहते हैं, जो अंत तक साधन-साध्य के सिद्धांत के रूप में हमारे उपयोग आते हैं। इसलिए समाज को ही कोशिश करनी होगी कि हमारे संस्कार साधन-साध्य सिद्धांत की समझ से ही गढ़े जाएं। जनता के पैसे से ही जनता को सत्ता द्वारा भरमाने के भ्रम को समाज समझे।
और सर्वोदय साध्य को ही पाने में समाज लगे। जनता द्वारा साध्य को हिंसा से पाने की कोशिशें कैसे सत्ता की प्रतिहिंसा का शिकार होती हैं, यह हम सभी ने श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश के अलावा मेक्सिको तक के देशों में हो रहे विरोध प्रदर्शनों से देख-समझ लिया है। विरोध में की गई समाज की हिंसा, सत्ता के लिए प्रतिहिंसा का कारण बनती है। जनता अगर अपने साधन अहिंसक रखे, तभी समाज में सौहार्द बना रह सकता है।'मेरे गांधी' में नारायण देसाई ने समझाया है कि गांधी जी खुद को व्यावहारिक आदर्शवादी मानते थे।
साधन की शुचिता पर उनके जोर देने के पीछे सबसे बड़ा तकाजा व्यावहारिक था। वह समझते थे कि साध्य बहुत-सी बातों पर निर्भर करता है, जो हमारे नियंत्रण से बाहर होती हैं। असल में साधन ही वह चीज है, जिसे कोई खुद चुन सकता है। गांधी जी ने लिखा भी कि हमेशा साधनों पर ही हमारा नियंत्रण हो सकता है, साध्य पर नहीं। इसलिए हिंसक हो रही जनता को अहिंसक समाज के निर्माण के लिए सही साधन से अच्छे साध्य पाने में ही लगना होगा।
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