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कुंठा किसी आरक्षण से कभी नहीं जाएगी, Frustration will never go away with any reservation,

 

डॉक्टर गरिमा संजय दुबे 

यह भीतर का रोग है । कर्ण की कुंठा एक प्रतीक है, जिसे विमर्श बनाकर  साहित्य ने परोसा, वह रोता ही रहा इतना योग्य होकर भी, जितना सवर्णों ने उसे सूत पुत्र कहकर अपमानित नहीं किया, दूसरों ने उसे सूत पुत्र नहीं कहा उतना वह स्वयं अपने आपको सूत पुत्र कह कहकर अपने आपको अपनी धर्म माता और पिता का अपमान करता रहा । वहीं श्रीकृष्ण थे, यादव आज की भाषा में OBC न रोए न कुंठित हुए, अपनी धर्म माता को विश्व में सबसे अधिक सम्मान दिलाया । अपनी अहीर प्रेमिका को मान दिया, हर कहीं अपने को ग्वाला कहकर सम्मानित करते रहे, यशोदा और नन्द बाबा को मान देते रहे ।

कृष्ण का कहां कहां अपमान नहीं हुआ, किंतु उस अपमान से कुंठित होने के बजाय वह बढ़ते गए और आज उनकी गीता विश्व के सबसे बड़े ग्रंथ के रूप में हर हिन्दू के लिए पूजनीय है । किसी ने उसमें भेद नहीं किया कि सवर्ण ऋषि का लिखा या बोला नहीं है इसलिए मान्य नहीं होगा, 

बात यदि भारत में वर्ण व्यवस्था पर और शोषण पर होती है तो कुछ बात करते हैं। कर्ण को विमर्श का आधार बना बड़े ग्रंथ रचे गए और यह बताने का प्रयास किया गया कि भारतीय सनातन परंपरा बड़ी निकृष्ट थी, जाति आधारित भेद करती थी, परम्परा नहीं उसके बाद उसमें मानवीय हस्तक्षेप ने मलीनता उत्पन्न की । परंपरा तो बहुत उदार थी, योग्य का सम्मान था  ।

कुछ बिंदु हैं ध्यान दीजिए 

1.महाराज शांतनु ने एक मत्स्य कन्या से विवाह किया, जिसके लिए भीष्म ने अपना अधिकार छोड़ दिया । क्षत्रिय और मत्स्य, कहां वर्ण आड़े आया , अपितु कन्या के पिता ने राजा के सामने शर्त रख दी । इतना शक्तिशाली था एक मछुआरा।

2. सूत का बड़ा मान था, न होता तो श्रीकृष्ण सारथी न बनते, शल्य कर्ण के सारथी न बनते और। तो और वेद व्यास संजय सूत को दिव्य दृष्टि न देते ।

3. निषाद राज श्री राम की मित्रता, शबरी के बेर का उदाहरण 

4. एकलव्य को शिक्षा के लिए मना इसलिए किया गया क्योंकि वह शत्रु राज्य का सेनापति था ।

5. द्रोणाचार्य ने कर्ण को भी सिखाया यद्यपि राज्य की नियमावली के अनुरूप,  वे राजा के द्वारा राजपुत्रों के लिए नियुक्त थे किसी और को नहीं सीखा सकते थे,  कृपाचार्य और द्रोणाचार्य दोनों कर्ण के गुरु माने गए हैं ।

किंतु प्रचारित किया गया कि सूत होने के नाते नहीं सिखाया , परशुराम ने शापित इसलिए किया क्योंकि झूठ बोला था, परशुराम को केवल क्षत्रिय से बैर  था सूत से नहीं । महाभारत का मूल पाठ पढ़िए, साहित्यकारों के थोपे हुए विमर्श से धारणा न बनाईए ।

आप अपने विमर्श के जहर को भरते रहिए ।

कर्ण भी इसी कुंठा में रहा कि द्रौपदी ने क्यों नकार दिया, आप को ब्राह्मण की बेटी चाहिए, सबको ब्राह्मण की बेटी ही चाहिए ताकि उसपर अपनी कुंठा का वमन कर सकें, एक बड़े चर्चित उपन्यास में, कैसा घिनौना बिम्ब है, और यह विक्षिप्त पंथ उसे समाजवादी सुधारवादी बात कहते नहीं अघाता। कुंठा का शमन स्त्री की देह से हुआ, जैसे वह प्रेमिका नहीं ब्राह्मणवाद का पुतला था । उस देह पर विजय पाकर अपनी कुंठा का शमन कर पाया नायक, नहीं, कुंठा ऐसा रोग है जो हर बार अपने से श्रेष्ठ को देखकर उपजता है । 

ब्राह्मण स्त्री के मन में तो कोई कुंठा नहीं है वह तो प्रेम में है, तुम्हें ही उस पर शासन कर अपने विजेता होने का दंभ सिद्ध करना है, तुम्हारी जीत कहां से प्रारंभ होती है और कुंठा कहां समाप्त होती है । 

दुनिया का कोई आरक्षण तुम्हारी कुंठा समाप्त नहीं कर सकता, वह स्वयं समाप्त करनी होती है, जैसे श्रीकृष्ण कर सके, स्वयं श्रेष्ठ होकर स्थापित होने से बड़ा कुछ नहीं । वाल्मीकि, श्रीकृष्ण को पूज्य है यह राष्ट्र बिना किसी भेद के । 

दिन रात सवर्ण, पितृसता का रोना रोने से भी कुछ हासिल नहीं, योग्य बनिए हर कहीं पूजे जाएंगे, रोते रहे तो कर्ण की तरह कुंठा का विष ही फैलाएंगे, कुंठित मनुष्य अपनी क्षमताओं के साथ भी न्याय नहीं करता और मौका मिलते ही लपक लेता है अवसर, जैसे कर्ण ने लपक लिया दुर्योधन का हाथ । कर्ण कभी भी रुझान से श्रेष्ठ नहीं हो सकता क्योंकि तमाम प्रतिकूलताओं के बाद भी अर्जुन और श्रीकृष्ण ने धर्म का मार्ग नहीं छोड़ा । अर्जुन और श्रीकृष्ण के जीवन के संघर्ष कर्ण से कम नहीं थे । ठीक वायस ही इस देश के सवर्णों के संघर्ष भी कम नहीं हैं किंतु वे रोना नहीं रोते रहे, अपने परिश्रम से विश्व पर छाए हैं ।

आरक्षण कुंठा समाप्त नहीं करता बल्कि और बढ़ाता है ।

यह स्वयं की कुंठा है जो सत्तर वर्ष के आरक्षण के बाद भी अपनी श्रेष्ठता स्थापित न करने से जन्मी है, यह वह कुंठा है जो मंडल कमंडल के बाद सवर्णों की दुर्गति का स्वप्न देखने से उपजी थी, किंतु 1991 की वैश्वीकरण की पहल ने उसे सफल न होने दिया । यह वह कुंठा है जो बिना आरक्षण का सहारा लिए भी दुनिया भर में अपनी प्रज्ञा मेधा का परचम लहराते युवाओं को देखकर जन्मती है। यही कुंठा निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग करती है । अपने लिए हर कहीं आरक्षण की बैसाखियां चाहने  वाले कभी कुंठा मुक्त नहीं हो सकते, यह एक प्रशासनिक अधिकारी की कुंठा है जो अपने ही वर्ग के दलित वंचित पीड़ित लोगों के लिए अपना आरक्षण छोड़ने को तैयार नहीं हैं, इन्हें सबकुछ ब्राह्मणों से चाहिए । इस देश के कुंठित वर्ग को अल्पसंख्यकों, दलित, बुद्धिजीवियों ( सब नहीं) को संसार का पूरा वैभव भी दे दिया जाए तब भी इनकी कुंठा समाप्त नहीं होगी ।

अपने परिश्रम से बिना किसी सहारे के राष्ट्र के लिए एसेट बनिए लायबिलिटी नहीं, भारत के सवर्ण मध्यमवर्ग के संघर्ष कम नहीं हैं उन संघर्षों के पार जाकर वह आज अपना स्थान बना रहे हैं, आपको सबकुछ मिला, मिलता रहे हमारे बच्चे कोई शिकायत नहीं करेंगे, लेकिन इतना मिलने के बाद भी विलाप कम नहीं होता, कुंठा जाती नहीं ।

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